राज्य सहकारी बैंक में अराजकता की विरासत से निपटना बना चुनौती

Created on Tuesday, 26 June 2018 11:13
Written by Shail Samachar

                            668 कर्मीयों को दिये लाभ में बैंक को करोड़ों का नुकसान
                              आर सी एस के आदेश पर नहीं हुई कोई कारवाई
शिमला/शैल। प्रदेश के राज्य सहकारी बैंक में अराजकता का आलम किस हद तक पहुंच गया है इसका खुलासा आरसीएस के 22-12-2017 के आदेश में देखा जा सकता है। इस आदेश पर अमल करने में प्रबन्धन के सामने बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है। क्यांकि इसके तहते 668 बैंक कर्मीयों को दिये गये अनुचित लाभ को वापिस लेने के साथ ही भविष्य के लिये इसे बन्द भी किया जाना है। इस लाभ देने से प्रतिवर्ष बैंक को करोड़ों का नुकसान हो रहा है जबकि बैंक का एनपीए 250 करोड़ से ऊपर जा चुका है। एनपीए के और बढ़ने के आसार हैं क्योंकि जिन हाईडल परियोजनाओं को बैंक ने नियमां में ढील देकर फाईनैस कर रखा है वह खाते एनपीए के कगार पर पहुंच चुके हैं। यह सब इसलिये हुआ है कि बैंक में कार्यरत कर्मचारियों से लेकर प्रबन्धन तक भाई भतीजावाद में इस कदर उलझ गया कि बैंक में कायदा कानून को अगूंठा दिखाते हुए ‘‘अंधा बांटे रेवडियां ’’ की कहावत चरितार्थ होती गयी जो आज वर्तमान प्रबन्धन के लिये एक गंभीर चुनौती बन गयी है।
बैंक में 2005 में कान्ट्रैक्ट पर भर्ती किये जाने की पॉलिसी स्वीकृति की गयी थी। इसके तहत 2006़ में बैंक के विभिन्न संवर्गो में 360 कर्मी भर्ती किये गये थे 2006 में भर्ती हुए इन कर्मीयों को पॉलिसी के मुताबिक पांच साल बाद रैगुलर कर दिया गया। इसके बाद 2012, 2014, 2016 में फिर कान्टै्रक्ट पर 450 के करीब भर्तीयां हुई। लेकिन इन सभी लोगों को पाचं वर्ष का कार्यकाल पूरा किये बिना ही 18 जुलाई 2016 को रैगुलर कर दिया।
यही नही कान्टै्रक्ट में ही कुछ को डीए का लाभ भी दिया गया है। जो कि बैंक नियम 25 का सीधा उल्लघंन है। इसी समय में 150 पार्ट टाईम कर्मीयों को भी नियमित कर दिया गया। इस तरह नियमित किये जाने और लाभ दिये जाने के कारण कई संवर्गो में वेतन विसंगतियां खड़ी हो गयी। सरकार में कान्टै्रक्ट पर नियुक्ति हुए कर्मीयों को पांच साल का कार्यकाल पूरा होने पर नियमित किये जाने का नियम है लेकिन बैंक ने इस नियम को नज़रअन्दाज करके छः माह वाले को भी नियमित कर दिया। यहां सवाल उठा हैं कि क्या सहकारिता के नाम पर बैंक सरकार की नीति और नियमों को नज़र अन्दाज कर सकता है और वह भी उस सूरत में जब बैंक का एनपीए बढ़ता जा रहा हो। सूत्रों की माने तो यह सब इसलिये किया गया था क्योंकि इस तरह नियुक्त हुए लोग सत्ता के उच्च गलियारों से जुड़े हुए थे। शायद इसी कारण से सरकार के वित्त विभाग ने भी इस पर कोई आपति नही उठाई जबकि बोर्ड की हर बैठक में विभाग का प्रतिनिधि आरसीएस के माध्यम से मौजूद रहता है।
बैंक में इस तरह का चलन लम्बे समय से चला आ रहा था और पहली बार इसके खिलाफ एक संजय सिंह मण्डयाल ने 31.5.2012 को प्रधान सचिव सहकारिता को एक शिकायत भेजी। इस शिकायत की एक प्रति आरसीएस को भी भेजी गयी थी। लेकिन जब इस शिकायत पर लम्बे समय तक कोई कारवाई नही हुई तब मण्डयाल ने इसको प्रदेश उच्च न्यायालय में CWP No 2055 of 2017 के माध्यम से चुनौती दे दी। इस याचिका पर उच्च न्यायालय ने 13.9.17 को आरसीएस को निर्देश दिये कि वह इस शिकायत को विधिवत तरीके से सुने और इस पर फैसला करे। उच्च न्यायालय के निर्देशों की अधिकारिक जानकारी आरसीएस को 25.10.2017 को मिली। इस पर 8.11.2017 को आरसीएस ने सुनवाई रखी इस सुनवाई पर बैंक ने जबाव में 4.5.13 की एक जांच रिपोर्ट पेश की। यह जांच आरसीएस के निर्देशों पर हुई थी जब शिकायत की प्रति मिली थी। जांच के लिये तीन सदस्यों की कमेटी बनाई गयी थी जिसने 4.5.13 को रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में तीन बिन्दु सामने आये थे

(a) That the Bank granted special increments to its employees in lieu of passing graduation degree after appointment in Bank and allowed wrong stepping up of pay to the incumbents out of cadre;
(b) That the Bank granted special increment to its employee after their appointment in the Bank and treating it as pay anomaly; and
(c) That the Bank granted special increment to its employee for passing graduation degree and merged the same in the basic pay.

कमेटी की यह रिपोर्ट बैंक के एमडी को 19.6.13 को भेजी गयी थी और इस पर तुरन्त कारवाई करने के निर्देश दिये गये थे। मण्डयाल ने भी 6.3.2016 को एक और प्रतिवेदन देकर रिपोर्ट पर कारवाई सुनिश्चित किये जाने का आग्रह आरसीएस से किया। इस आग्रह को भी एमडी को 2.4.2016 को भेज दिया गया।
बैंक ने 4.5.13 की रिपोर्ट पर पहली बार पांच वर्ष बाद 8.11.2017 को अपना जवाब आरसीएस को भेजा। इस जवाब में यह कहा गया कि कई बार यह मामला वीओडी के सामने लाया गया लेकिन निदेशक मण्डल इस पर कोई फैसला नही ले पाया क्योंकि कई कर्मचारी सेवानिवृति हो चुके थे तथा इस पर अमल करने से और मुकद्दमें खड़े होने का अंदेशा था। इस रिपोर्ट पर बैंक ने अपने वेतन विंग का विस्तृत ऑडिट करने के लिये एक वित्तिय सलाहकार भी नियुक्ति किया। इस सलाहकार ने भी 668 कर्मचारियों को गल्त तरीके से वित्तिय लाभ देने का दोषी पाया। बैंक को और इस पर कारवाई करने के लिये कहा। लेकिन बैंक ने फिर कारवाई न करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के 18.12.2014 को रफीक मसीह बना स्टेट ऑफ पंजाब में आये फैसले का कवर लिया। आरसीएस ने बैंक की इस दलील को इस आधार पर नकार दिया कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला 18.12.2014 को आया जबकि बैंक में हुई गड़बड़ी की जानकारी 31.5.2012 को ही आरसीएस के संज्ञान में आ गयी थी और बैंक को 19.6.2013 को ही इस पर कारवाई करने के निर्देश दे दिये गये थे। फिर 2014 का फैसला वर्षों पहले हुई धांधली पर कैसे लागू किया जा सकता है। यही नही सहकारिकता में यह प्रावधान है कि यदि बैंक में किसी नियम की व्याख्या में कोई सन्देह पैदा हो जाये तो उसमें आरसीएस की व्याख्या ही अन्तिम मानी जायेगी।
आरसीएस ने अपने 12.12.17 के आदेशों में बैंक के एमडी को स्पष्ट निदेश दिये हैं कि 19.6.2013 की रिपोर्ट पर तीन माह में अमल किया जाये। यदि ऐसा नही होता है तो वह संवद्ध दोषी अधिकारियों और बैंक के पदाधिकारियों के खिलाफ कारवाई अमल में लायी जायेगी। आरसीएस के इस आदेश को आये छः माह का समय हो गया है लेकिन अभी तक न तो रिपोर्ट पर बैंक कोई कारवाई कर पाया है और न ही संवद्ध प्रबन्धन के खिलाफ कोई कारवाई की जा सकी है। लगता है कि विरासत में मिली इस अराजकता पर नया प्रबन्धन भी कारवाई का साहस नही कर पा रहा है या कोई बड़ा दवाब चल रहा है।