शिमला/शैल। जयराम सरकार पर विपक्ष का सबसे बड़ा आरोप यह लग रहा है कि सरकार अधिकारियों और कर्मचारियों के तबादलों में ही उलझकर रह गयी है। यह आरोप कितना सही है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जनवरी से लेकर जून तक लगभग हर माह प्रशासनिक अधिकारियों तक के तबादले होते रहे हैं। बल्कि यहां तक होता रहा है कि आज आदेश जारी हुए तो कल ही कुछेक को फेन पर निर्देश दे दिये गये कि आपने अभी कार्यभार ग्रहण नही करना है। कई पदों पर तो यहां तक रहा है कि तीन-तीन, चार- चार बार अधिकारी बदले गये हैं। विपक्ष के आरोप का जवाब भी सरकार की ओर से यही आया है कि कांग्रेस के समय में भी यही होता था। कुल मिलाकर छः महीने के कार्यकाल के बाद भी प्रशासनिक अधिकारियों में स्थिरता का भाव नहीं आ पाया है और यही सरकार का सबसे नकारात्मक पक्ष चल रहा है।
प्रशासन में व्याप्त इसी अस्थिरता का परिणाम है कि सरकार अभी तक प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में खाली चले आ रहे सदस्यों के पदों को अब तक नहीं भर
पायी है। क्योंकि इन पदों के लिये संभावित उम्मीदवारों के रूप में पूर्व मुख्य सचिव और वर्तमान मुख्य सचिव दोनो का नाम माना जा रहा है। वर्तमान मुख्य सचिव की सेवानिवृति सितम्बर माह मे है इसलिये चर्चा है कि ट्रिब्यूनल के पद सितम्बर के बाद ही भरे जायेंगे भले ही कर्मचारी न्याय के लिये बाट जोहते रहें। विश्वविद्यालय में अभी तक वाईसचान्सलर का चयन नही हो पा रहा है। लोकायुक्त और मानवाधिकार आयोग खाली चल रहे हैं जबकि इन पदों पर तो अब तक नियुक्तियां हो जानी चाहिये थी। इससे सुशासन को लेकर सरकार की छवि पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गये हैं।
प्रशासन पर मुख्यमन्त्री की पकड़ कितनी बन पायी है और प्रशासन की आन्तरिक समझ सरकार को कितनी आ पायी है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जब सरकार ने पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव को सेवानिवृति से एक सप्ताह पूर्व तक की स्टडी लीव सारे नियमों/कानूनों को ताक पर रखकर दे दी। यह फैसला अपराध की श्रेणी में आता है पूरे प्रशासन में कर्मचारियों तक यह चर्चा का विषय बना हुआ है। इसी तरह अब आरसीएस के पद पर की गयी नियुक्ति को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं क्योंकि एचपीसीए कंपनी है या सोसायटी यह मामला अभी तक आरसीएस के पास फैसले के लिये लंबित चल रहा है। अब जिस अधिकारी को आरसीएस की जिम्मेदारी दी गयी है वह स्वयं एचपीसीए में नामजद है। एचपीसीए का मामला एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दे का रूप ले चुका है। क्योंकि वीरभद्र के पांच साल के सारे कार्यकाल में विजिलैन्स के पास एक प्रमुख मुद्दा रहा है। यह प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय तक भी पंहुचा हुआ है। सरकार इसमें एचपीसीए की मदद करना चाहती है जबकि कांग्रेस इस पर बराबर शोर करेगी। ऐसे में जब सरकार आरसीएस के पद पर ऐसी नियुक्ति करेगी तो इसका सीधा सा अर्थ होगा कि आप जानबझूकर कांग्रेस को एक मुद्दा दे रहे हैं। अप्रत्यक्षतः इससे यह भी संकेत जायेगा कि शायद एचपीसीए को लेकर सरकार की नीयत ही साफ नही है।
प्रदेश के सहकारी बैंकों में 900 करोड़ से अधिक का एनपीए हो चुका है। यह जानकरी जयराम सरकार के पहले बजट सत्र में एक प्रश्न के माध्यम से सामने आयी है। प्रश्न के उत्तर में एनपीए के यह आंकड़े दिये गये हैं। जिसका अर्थ है कि सरकार और बैंक प्रबन्धनों ने पूरी जांच पड़ताल के बाद ही यह जानकारी सदन को दी है। इस एनपीए पर अब कारवाई आगे बढ़ाने की बजाये सहकारी बैंको के प्रबन्ध निर्देशकों की नियुक्ति को ही सरकार स्थायी रूप से नही दे पा रही है। उधर प्रबन्धन को ही कुछ लोगों ने एनपीए को लेकर यह वकालत करनी भी शुरू कर दी है कि सबकुछ ठीक है और कोई घपला नही हुआ है। चर्चा है कि बैंको के पूर्व प्रबन्धन ने एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी के माध्यम से जयराम सरकार के शीर्ष प्रशासनिक स्तर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके एनपीए की जांच को शुरू होने से पहले ही दबाने का पूरा प्रबन्ध कर दिया है। ऐसी ही स्थिति कई अन्य मामलों में भी है जिनका जिक्र बाद में उठाया जायेगा।
इस तरह प्रशासन में जो कुछ हो रहा है उसका प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष सारा प्रभाव राजनीतिक नेतृत्व पर ही पडे़गा। नेतृत्व को ही जनता में जवाब देना पड़ता है यह स्थिति मुख्य सचिव को लेकर उठे मामले में आ चुकी है। केन्द्र सरकार में किन कारणों से वह सचिव के पैनल में नही आ पाये हैं उसको लेकर राज्य सरकार की अपनी भूमिका बहुत सीमित है लेकिन जो कुछ केन्द्र में घटा है उसका यह आरोप तो लग ही गया है कि इससे अधिकारी की निष्ठा तो संदिग्धता के दायरे में आ जाती है। इस आरोप पर मुख्यमन्त्री को विवशता में बचाव में उतरना पड़ा है। आने वाले समय में ऐसे कई और मामले खड़े होंगे जहां इस तरह के बचाव में उतरना पड़ेगा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि प्रशासन में जो स्थिरता अभी तक नही बन पा रही है वह महज़ संयोगवश है या उसके पीछे एक सुनिश्चित रणनीति काम कर रही है। क्योंकि यह अपने में ही हास्यस्पद हो जाता है कि पहले तो तबादले के आदेश जारी हो जायें और उसके तुरन्त बाद उनकी अनुपालना फोन करके रोक दी जाये। इससे यह सवाल उठता है कि क्या मुख्यमन्त्री ने आदेश करने से पूर्व इस पर पूरा विचार नहीं किया या फिर बाद में प्रशासन ने अपने ही स्तर पर फेरबदल कर लिये। वास्तविकता कुछ भी रही हो लेकिन आम आदमी पर इसको लेकर सरकार का प्रभाव अच्छा नही पड़ रहा है।