शिमला/शैल। वनभूमि पर हुए अवैध कब्जों को हटाने का मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में वर्ष 2014 से चल रहा है और अब तक 260 याचिकांए अदालत में इस आश्य की आ चुकी हैं। उच्च न्यायालय यह कई बार स्पष्ट कर चुका है कि एक- एक ईंच अवैध कब्जा हटाया जायेगा। बल्कि इन अवैध कब्जों के परिणामस्वरूप हो रही आय को मनीलॉंड्रिंग के परिप्रेक्ष्य में देखने के ईडी तक को निर्देश उच्च न्यायालय दे चुका है। लेकिन उच्च न्यायालय के इन निर्देशों की सरकार और उसके प्रशासन ने कितनी ईमानदारी से अनुपालना की है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अदालत ने बड़े अवैध कब्जाधारकों के खिलाफ 25.4.2018 को एसआईटी का गठन किया था और अब 20.7.18 को अवैध कब्जे हटाने के लिये सेना तैनात करनी पड़ी है। सेना तैनात करने की नौवत तब आयी जब कोर्ट मित्रा के माध्यम से अदालत के सामने लोगों की यह शिकायत लिखित में की कि प्रशासन बड़े और प्रभावशाली अवैध कब्जाधारकों के खिलाफ तो कोई कारवाई नही कर रहा है। लेकिन छोटे लोगों को ही परेशान कर रहा है। शिकायत में ऐसे 13 लोगों के नाम पूरे विस्तार के साथ दिये गये हैं और आरोप लगाया गया कि प्रशासन इनके साथ मिला हुआ है। ऐसे ही नामों की एक और सूची पहले भी अदालत के संज्ञान में लायी गयी है। जिन लोगां के खिलाफ शिकायत आयी है वह सब तहसील कोटखाई के गांव जालथ, चैथला, पुंगरीश पंडाली, कलेमू और बढ़ाल के निवासी हैं। यह सूची कोर्ट मित्र के माध्यम से अदालत तक आयी है जिससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह सब सरकार के अपने महाधिवक्ता की जानकारी में नही रहा है और शायद इसी कारण से महाधिवक्ता को अदालत में यह कहना पडा़ कि जो शपथपत्रा उन्होनें आज दायर करना था उसके प्रति वह स्वयं ही सतुंष्ट नही हैं। महाधिवक्ता का अदालत में यह कहना अपरोक्ष में उनके सरकार के साथ संवाद संबंधों की ओर भी बहुत कुछ इंगित कर जाता है। सेना की सहायता सामान्यतः तब ली जाती है जब कोई कानून और व्यवस्था का मामला पुलिस बल के नियन्त्रण से बाहर हो जाये। लेकिन उच्च न्यायालय के फैसले की अनुपालना करने के लिये सेना की सहायता लेनी पड़ी तो इसके कई मायने निकलते हैं।
अदालत ने साफ कहा है कि सरकार और प्रशासन को उसका फैसला अक्षरशः मानना ही होगा या तो वह इसके खिलाफ अगली अदालत में जाये। सरकार या कोई अन्य इस संद्धर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में तो गया नही है। इसलिये उच्च न्यायालय के फैसले पर अमल करने की बजाये और कोई विकल्प नही रहा जाता। यहां तो प्रशासन पर स्पष्ट शब्दो में यह आरोप लगा है कि वह प्रभावशाली लोगों के साथ मिला हुआ है। किसी भी सरकार और उसके तन्त्र पर इससे बड़ा कोई आरोप नही हो सकता है। प्रशासन में यह स्थिति कैसे आ जाये की वह उच्चन्यायालय के फैलसे पर अमल करने मे इस तरह से हिचकिचाये। उच्च न्यायालय प्रशासन के इस रूख का क्या संज्ञान लेता है यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा लेकिन इतना तय है कि इसके परिणाम गंभीर होंगे। ऐसे में यह भी सवाल उठता है कि क्या वन विभाग के अधिकारियों ने अपने ही स्तर पर इस तरह की हिमाकत कर दी या उस पर कोई बड़ा दवाब रहा है। वन विभाग के सूत्रों के मुताबिक विभाग के प्रमुख पर इस दिशा में Go slow का दवाब डाला जा रहा था बल्कि प्रमुख के बाद दूसरे बड़े अधिकारी पर भी शीर्ष से यह दबाव रहा है। अब जब उच्च न्यायालय की सख्ती सामने आयेगी तो निश्चित रूप से यह सब चर्चा में आ जायेगा। सेना की तैनाती से न केवल प्रशासन की कार्य प्रणाली बल्कि स्वयं सरकार की नीयत और नीति पर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है।
पिछले दिनों मुख्यमन्त्री ने एक साक्षात्कार में कहा था कि वह मंत्रीयों के रिपोर्ट कार्ड पर नज़र रखे हुए हैं। इस साक्षात्कार के बाद मुख्यमन्त्री दिल्ली जाकर पार्टी प्रमुख अमितशाह से मिलकर आये हैं। इस मुलाकात के बाद प्रदेश मन्त्रीमण्डल में फेरबदल की चर्चाएं शुरू हो गयी हैं। कहा जा रहा है कि एक दो मन्त्रीयों की छुट्टी भी हो सकती है। सिरमौर और हमीरपुर को मन्त्रीमण्डल में जगह मिल सकती है। कुछ मन्त्रीयों के विभागों में फेरबदल हो सकता है। यह चर्चाएं कितनी सही साबित होता हैं यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इसी बीच यह भी सामने आ रहा है कि कुछ मंत्रियों के ओएसडीयां का अपने ही कार्यालयों में कोई बहुत अच्छा तालमेल नही चल रहा है। इस संद्धर्भ में शिक्षामन्त्री, सहकारिता मन्त्री और स्वयं मुख्यमन्त्री का कार्यालय तक चर्चा में है। मुख्यमन्त्री के कार्यालय और आवास में तैनात अधिकारी मुख्यमन्त्री से दूरभाष पर संपर्क तक नही करवाते हैं यह चर्चाएं भी अब सुनने को मिलने लगी हैं। बहुत सारी चीजें मुख्यमन्त्री के संज्ञान में आ ही नही पाती हैं। उनके कार्यालय में समय लेकर उनसे मिलने की सुचारू व्यवस्था अब तक नही बन पायी है। ऐसा माना जा रहा है कि शीर्ष प्रशासन कई मसलों पर उन्हें सही जानकारी ही नही दे पा रहा है। इसी का परिणाम था कि जब हरियाणा के राज्यपाल ने हिमाचल का कार्यभार संभाला तब उनके शपथ ग्रहण समारोह में मुख्यमन्त्री शामिल नही हो पाये। ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि राज्यपाल के शपथ ग्रहण में मुख्यमन्त्री शामिल नही हो पाये हैं। प्रदेश में मुख्यमन्त्री और सरकार के बिना राष्ट्रपति शासन लग जाता है अर्थात मुख्यमन्त्री के बिना प्रदेश हो सकता है लेकिन राज्यपाल के बिना नही। राष्ट्रपति भवन से राज्यपाल के शपथ ग्रहण के लिये जो प्रोटोकॉल जारी है उसके अनुसार मंच पर मुख्यमंत्री, राज्यपाल (जिसकी शपथ होनी है) और मुख्यन्यायाधीश जिसने शपथ दिलानी है इन्ही तीन के बैठने के लिये चेयर लगाई जाती हैं। मुख्यमन्त्री के अतिरिक्त कोई दूसरा मन्त्री मंच पर बैठने को अधिकृत नही है इससे स्पष्ट है कि राज्यपाल के शपथ ग्रहण में मुख्यमन्त्री का रहना अनिवार्य है लेकिन इस अवसर पर मुख्यमन्त्री के स्थान पर शिक्षा मन्त्री को बैठाया गया जो कि प्रोटोकॉल की अवेहलना थी। इससे भी प्रशासन को लेकर कोई सकारात्मक संदेश नही जा पाया है।
इस तरह आज अवैध निर्माणों से लेकर अवैध कब्जों तक के मामलों में प्रशासन को लेकर कोई ठोस संदेश नही जा पाया है। कसौली में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर अमल करने में गोली चल गयी दो लोगां की मौत हो गयी अब उच्च न्यायालय के फैसले पर अमल करने के लिये सेना बुलानी पड़ी है। ऐसे में जब मन्त्रीयों के रिपोर्ट कार्ड पर चर्चा होगी तब इन मामलों को किसके रिपोर्ट कोर्ड में जोड़कर देखा जायेगा। इसका अनुमान लगाया जा सकता है।