शिमला/शैल। कसौली नारायणी गैस्ट हॉऊस के अवैध निर्माण को गिराये जाने के सर्वोच्च न्यायलय के आदेशों की अनुपालना करवाते हुए जब टीसीपी की अधिकारी शैल बाला शर्मा की गैस्ट हॉऊस के मालिक विजय सिंह ने दिन दिहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी थी तब शीर्ष अदालत ने इसका स्वतः संज्ञान लेते हुए इस कृत्य को अदालत कि अवमानना करार देते हुये आदेश दिये थे कि प्रदेश सरकार इन चार बिन्दुओं पर दो माह में अदालत में रिपोर्ट सौपें। ये बिन्दु थे।
We have gone through the status report and we would require the State of Himachal Pradesh to file another status report indicating the response to the following issues:
1. The names and designation of the officers who were posted at the time when unauthorized construction was being carried out and whether any steps have been taken to hold these officers responsible and accountable for the unauthorized construction.
2. Guidelines, if any, that have been framed by the State of Himachal Pradesh to ensure that unauthorized constructions do not take place at the scale as happened in Kasauli. If guidelines have not been framed, they should be framed expeditiously.
3. Specific steps that are being taken by the State of Himachal Pradesh so that there is no unauthorized construction in other parts of the State and how the problem is proposed to be tackled by the State.
4. What does the State of Himachal Pradesh propose to do with the debris which will remain after the demolition of the unauthorized constructions. The presence of debris can create an environmental hazard.
The status report be filed within a period of two months. List the matter on 8th August, 2018.
इस आदेश के बाद यह मामला 8 अगस्त को अदालत में लगा था। लेकिन इस दिन शीर्ष अदालत में उक्त बिन्दुओं पर रिपोर्ट सौंपने की बजाये प्रदेश सरकार के वकील अभिनव मुखर्जी ने अदालत में उस याचिका की प्रति रख दी जो 2002 में जस्टिस दीपक गुप्ता की पत्नी पूनम गुप्ता ने हिमाचल हाईकोर्ट में दायर की थी। इस याचिका की प्रति रखने के साथ अदालत से यह आग्रह कर दिया कि जस्टिस गुप्ता इस मामले की सुनवाई से हट जायें। इस आग्रह पर जब जस्टिस दीपक गप्ता ने यह प्रति देखी तो उन्होने यह कहा कि यह अगल मामला है और जिस मामले की सुनावई इस पीठ में चल रही है वह अलग है। इस पर जस्टिस मदन बी लोकूर ने प्रदेश सरकार के वकील से पूछा कि क्या उन्होने यह याचिका पढी है। इस पर जब वकील ने यह कहा कि उन्होने नही पढ़ी है तब वकील को शीर्ष अदालत की कड़ी प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा।
अदालत ने यहां तक कह दिया कि "Does the state have nothing else to do? What about governing the state? Tell your state that this will not be tolerated. Don't be a mouthpiece of somebody who has some vested interest. You are an advocate and officer of the court and not a 'chamcha' of the state. Do not do it ever again," Justice Lokur said.
सर्वोच्च न्यायालय में यह प्रताड़ना की स्थिति तब आयी जब सरकारी वकील मुखर्जी ने 2002 की याचिका पीठ के सामने रखी। 2002 में यह याचिका तब आयी थी जब तत्कालीन भाजपा सरकार ने वनभूमि पर हो रहे अवैध कब्जों को नियमित करने के लिये पॉलिसी बनाई थी। तब इस पॉलिसी को प्रदेश उच्च न्यायालय में ब्ॅच् 1028 वि 2002 और ब्डच् 1645 वि 2002 के माध्यम से चुनौती दी गयी थी। यह याचिकाएं पूनम गुप्ता ओर हृदेश आर्य द्वारा दायर की गयी थी। उस समय याचिकाकर्ताओं के वकील राजीव शर्मा थे और सरकार की ओर से संजय करोल महाधिवक्ता थे और उनके साथ एमआर विष्ट सहायक थे। फिर इस मामले में त्रिलोक चौहान भी याचिकाकर्ताओं के वकील रहे हैं। इस मामले की सुनावई जस्टिस कमलेश शर्मा और जस्टिस के.सी.सूद की पीठ में हुई थी। पीठ ने इसमें यह आदेश पारित किया था। Reply to the application may be filed with in a period of four weeks.
In the facts and circumstances on record it is ordered that the proceedings for regularisation of the encroachments on Government lands may go on, but Pattas will not be issued under the impugned rules till further orders.
यह याचिकाएं अवैध कब्जों को नियमित करने के लिये लायी गयी पॉलिसी के खिलाफ थी। इन याचिकाओं की पैरवी के साथ जुड़े रहे वकील संयोगवश हिमाचल उच्च न्यायालय के सम्मानित जज हैं। और अवैध कब्जों को लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय में पिछले तीन वर्षों से मामले चल रहे हैं। इन सभी न्यायधीशों ने इसमें समय-समय पर आदेश पारित किये हैं। लेकिन उस समय तो प्रदेश सरकार की ओर से 2002 की इस लंबित चली आ रही याचिका का कवर लेकर यह नही कहा गया कि यह न्यायाधीश मामले की सुनवाई न करें। फिर आज सर्वोच्च न्यायालय में सरकार को यह स्टैण्ड क्यों लेना पड़ा। जबकि कसौली का मामला अवैध निर्माणों को लेकर है। अवैध निर्माण और अवैध कब्जे एकदम अलग-अलग मामलें हैं।
स्मरणीय है कि कसौली के अवैध निर्माणों के प्रकरण में एनजीटी ने राज्य सरकार के कुछ अधिकारियों को नामतः चिन्हित करते हुए प्रदेश के मुख्य सचिव को उन लोगों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश दे रखे हैं। एनजीटी के इन निर्देशों पर सर्वोच्च न्यायालय की मुहर भी लग चुकी है। इस संद्धर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का अन्तिम फैसला आ चुका है। जिस पर अमल करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नही है। अदालत ने तो यहां तक निर्देश दिये हैं कि अवैध निर्माणों के लिये जिम्मेदार रहे अधिकारी/कर्मचारी यदि सेवानिवृत भी हो गये हैं तो भी उन्हे चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई की जाये। इसी बारे में शीर्ष अदालत ने रिपोर्ट तलब की थी जो कि नही सौंपी गयी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार प्रताड़ना की कीमत पर भी कुछ लोगो को बचाने का प्रयास कर रही है। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह सब मुख्यमन्त्रा की जानकारी और सहमति के साथ हो रहा है या फिर अधिकारी अपने ही स्तर पर खेल खेलकर मुख्यमन्त्री के लिये संकट खड़ा कर रहे हैं। क्योंकि अभिनव मुखर्जी तो दिल्ली में ही प्रैक्टिस करते रहे हैं। शिमला में कब क्या घटा है उसकी जानकारी उनको अपने स्तर पर होना संभव नही हो सकता। ऐसे में यह स्वभाविक है कि उन्हें 2002 की याचिका की जानकारी शिमला से ही दी गयी है। इसलिये इसमें यह सवाल उठना भी स्वभाविक है कि शिमला बैठे हुए व्यक्ति को तो यह जानकारी थी ही कि सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा मामला हिमाचल उच्च न्यायालय में आयी 2002 की याचिका से बिल्कुल भिन्न है फिर 2002 की याचिका से आगे निकलकर अवैध कब्जों पर तो प्रदेश उच्च न्यायालय सेना तक को इसमें लगा चुका है। इसलिये यह माना जा रहा है कि 2002 की यिचका का सद्धर्भ सर्वोच्च न्यायालय में किसी निहित राजनीतिक मंशा से ही उठाया गया है। क्योंकि इस पर सर्वोच्च न्यायालय की नाराज़गी एक स्वभाविक परिणाम थी और वह सामने भी आ गयी।