शिमला/शैल। जयराम सरकार ने धर्मशाला में अपनी पहली मन्त्रीपरिषद् की बैठक में बीवरेज कॉरपोरेशन के खिलाफ जांच करवाने का फैसला लिया था। लेकिन अब तक दस माह में जयराम की विजिलैन्स इस मामले पर कोई एफआईआर दर्ज नही कर पायी है। इस फैसले के बाद भाजपा द्वारा एक समय महामहिम राष्ट्रपति को वीरभद्र के खिलाफ सौंपे आरोप पत्र की बारी आयी। इस आरोप पत्रा को भी सीधे विजिलैन्स को भेजने की बजाये इस पर पहले संबंधित विभागों से रिपोर्ट मांगी गयी। इस आरोप पत्र के एक भी आरोप पर अब तक कोई मामला दर्ज नही हो पाया है। इसके बाद 2010-11 में भू-खरीद के लिये भू-सुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत दी गयी अनुमतियों में हुए घोटाले की जांच करवाने की बात आयी। इसमें विजिलैन्स ने उस मामले को पुनः से शुरू कर दिया जिसमें पहले खुद ही क्लोज़र रिपोर्ट डाल रखी थी। इस क्लोज़र रिपोर्ट को वापिस लेकर जांच शुरू की गयी। लेकिन जब यह सामने आया कि धारा 118के तहत अनुमति की स्वीकृति या अस्वीकृति केवल मुख्यमन्त्री ही दे सकता है और इस जांच को पूरा करने के लिये तत्कालीन मुख्यमन्त्रा के ब्यान लेना अनिवार्य होगा तब यह जांच भी अब एक मोड़ पर आकर रूक गयी है। अब अदानी के 280 करोड़ वापिस देने के एक समय लिये गये फैसले की जांच किये जाने की चर्चा उठ पड़ी है। यह जांच की चर्चा कहां तक पहुंचती है इसका खुलासा तो आने वाले दिनों में ही होगा। लेकिन इन दस माह में भ्र्रष्टाचार के खिलाफ उठाये गये यह कदम चर्चा का विषय बने हुए हैं और यह आकलन किया जा रहा है कि जयराम की नीयत क्या है? क्या वह सही में ही इन मामलों की जांच करना चाहती है या फिर वरिष्ठ अफसरशाही ने उसे अपने चक्रव्यूह में उलझा लिया है।
क्योंकि बीवरेज कॉरपोरेशन का मामला वीरभद्र सरकार के दौर का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इसमें करीब पचास करोड़ का घपला होने का आरोप भाजपा अपने ही आरोप पत्र मे लगा चुकी है। स्मरणीय है कि बीवरेज कॉरपोरेशन में किसी भी राजनीतिक व्यक्ति का सिवाय मन्त्री के सीधा दखल नही रहा है। इसमें यदि कोई घपला हुआ है तो वह इससे जुड़े अधिकारियों के स्तर पर ही हो सकता है। लेकिन इस कॉरपोरेशन मे जो अधिकारी उस समय जुड़े रहे हैं वह आज जयराम सरकार में भी महत्वपूर्ण भूमिकाओं में बैठे हुए हैं। ऐसे में स्पष्ट है कि यह लोग अपने ही खिलाफ कोई जांच कैसे होने देंगे।
इसी तरह भाजपा के आरोप पत्र पर जब संबंधित विभागों से पहले रिपोर्ट लेने का फैसला लिया गया और रिपोर्ट ली गयी तब यह स्पष्ट हो गया था कि इस आरोप पत्र का अंजाम भी पहले के आरोप पत्रों की तरह होगा। यह तय है कि जयराम की विजिलैन्स इसमें कोई मामला दर्ज नही कर पायेगी। जब यह आरोप पत्रा सौंपा गया था तब भाजपा ने विधानसभा पर इसकी सीबीआई से जांच करवाने की मांग की थी। ऐसे ही जब धारा 118 के तहत दी गयी अनुमतियों की जांच पर कदम उठाया तब जब यह सामने आया कि इसके लिये तो गुलाब सिंह और धूमल तक पहुंचना पड़ेगा तब इसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया है। इसी तर्ज पर अब अदानी के 280 करोड़ लौटाने के फैसले की जांच का मुद्दा है। सब जानते हैं कि अदानी के प्रधानमन्त्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमिताशाह के साथ घनिष्ठ संबंध है। इन्ही संबंधों के परिदृश्य में वीरभद्र शासन में यह पैसा लौटाने का फैसला लिया गया था जो किसी कारण से पूरा नही हो पाया। परन्तु अब जब जयराम सरकार यह पैसा लौटाने के फैसले की जांच करने की बात कर रही है तो उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार भी इस पैसे को आने वाले दिनों में चाहकर भी वापिस नही कर पायेगी। जबकि पिछले दिनों यह चर्चा चल पड़ी थी कि इस पैसे को यह सरकार वापिस कर देगी। अब यह जांच किये जाने का असर अदानी पर क्या पड़ता है। इसका पता आने वाले दिनों में ही चलेगा। लेकिन इन सारे फैसलों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन फैसलों पर कोई अमल नही हो पायेगा।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जयराम सरकार आखिर भ्रष्टाचार के फ्रन्ट पर कर क्या रही है। क्योंकि जंहा इन मसलों पर जांच की बात की जा रही है वहीं पर स्वयं ऐसे फैसले कर रही है जिनसे सीधे राजस्व का सरकार को नुकसान हो रहा है और दूसरों को नाजायज़ लाभ पंहुचाया जा रहा है। दीपक सानन को दिया गया स्टडीलीव लाभ सीधे भ्रष्टाचार में आता है। फिर धारा 118 के तहत अनुमति लेकर ज़मीन खरीद कर लिया गया टीडी लाभ भी भ्रष्टाचार में ही आता है। यही नही विनित चौधरी से भी बांड की रिकवरी नकारना भी भ्रष्टचार है। सहकारी बैंको में हुई भर्तियों के मामले में सरकार की ओर से पूरे दस्तावेजों के साथ विजिलैन्स को मामला दर्ज करने की शिकायत गयी थी लेकिन इस पर भी विजिलैन्स ने अब तक मामला दर्ज नही किया है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार शिकायत मिलने के एक सप्ताह के भीतर मामला दर्ज हो जाना चाहिये।
अब सर्वोच्च न्यायालय ने राजेन्द्र सिंह बनाम सतलुज जलविद्युत निगम में 24.9.18 को दिये फैसले में राजेन्द्र सिंह और उनके वारिसों के आचरण को फ्राड करार दिया है। स्पष्ट है कि जब अदालत ने इस आचरण को फ्राड कहा है तब यह सरकार की जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इस पर मामला दर्ज करके फ्राड में शामिल सबको चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई करे। इस फैसले में तो तीन माह के भीतर 12ः ब्याज सहित सारे पैसे की रिकवरी करने के भी आदेश अदालत ने कर रखें हैं और इसकी रिपोर्ट तलब की है। लेकिन जयराम की टीम के लोगों को इस फैसले की जानकरी तक नही है। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि भ्रष्टाचार को लेकर जयराम की नीयत और नीति क्या है। क्योंकि जिन मुद्दों पर जयराम हाथ डाल चुके हैं उनकी जांच वीरभद्र, प्रेम कुमार धमूल और मोदी-शाह के खास अदानी तक पहुंचना अनिवार्य है। ऐसे में क्या जयराम ने इन सबको साधने के लिये इस तरह रणनीति अपनाई है या फिर अफसरशाही ने अपनी चाल चलकर जयराम को इन सबके साथ इक्टठे भिड़ा दिया है। इस वस्तुस्थिति में इन मुद्दों का किसी निर्णायक अंजाम तक पहुंच पाना संभव नही लग रहा है और यही जयराम की परीक्षा भी सिद्ध होने जा रही है।