चिदम्बरम पर ब्यान के बाद प्रबोध सक्सेना को लेकर बढ़ी मुख्यमन्त्री की दुविधा

Created on Monday, 26 August 2019 11:04
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। पूर्व केन्द्रिय वित्तमंत्री पी चिदम्बरम की गिरफ्तारी को लेकर पूरे देश में एक मुद्दा खड़ा हो गया है कि इस मामले में कानूनी प्रक्रियाओं और औपचारिकताओं की अवहेलना हुई है। कांग्रेस इसमें आक्रामक होती जा रही है। इसी आक्रामकता के चलते कांग्रेस विधायक दल ने यह मुद्दा प्रदेश विधानसभा में भी उठाया। इस पर सदन में पक्ष और विपक्ष दोनों की ओर से काफी नारेबाजी हुई और अन्त में कांग्रेस ने वाकआऊट करके अपना रोष जताया। सत्तापक्ष की ओर से मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस गिरफ्तारी को जायज ठहराने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय का वह फैसला सदन में पढ़ा जिसमें चिदम्बरम की अग्रिम जमानत की याचिका को खारिज किया गया था। चिदम्बरम की गिरफ्तारी का सारा प्रकरण तीन याचिकाओं के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। इसलिये अदालत का फैसला आने तक इसमें कुछ भी कहना उचित नही है।
लेकिन इस प्रकरण ने हिमाचल सरकार के लिये एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है। क्योंकि चिदम्बरम के आईएन एक्स मीडिया मामले में प्रदेश सरकार के वित्त सचिव प्रबोध सक्सेना भी एक दोषी नामज़द है। सक्सेना 2-4-2008 से 31-7-2010 तक भारत सरकार के वित्तमन्त्रालय के विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड में निदेशक थे और इसी दौरान यह प्रकरण घटा था। इसमें 15-5-2017 को सी बी आई ने एफआईआर दर्ज की थी। इसमें यह लोग दोषी नामज़द किये गये थे। The CBI, EOU-IV/EO-II Branch, New Delhi had registered RC No. 220 2017 E0011 under Section 120-B read with 420 IPC and Section 8 and 13 (2) read with 13 (1) (d) of Prevention of Corruption Act, 1988, against (1) M/s INX Media (P) Ltd. (2) M/s. INX INX News (P) Ltd. (3) Sh. Karti P. Chidambaram, (4) M//S Chess Management Service (P) Ltd., (5) M/s. Advantage Strategic Consulting (P) Ltd., (6) Unknown Officers/officials of Ministry of Finance and (7) other unknown persons. वित्त मन्त्रालय के प्रबोध सक्सेना के अतिरिक्त सिन्धु श्री खुल्लर, अनुप के पुजारी और रविन्द्र प्रसाद के खिलाफ सीबीसी ने मुकद्दमा चलाने की अनुमति मांगी हुई है। अभी चिदम्बरम की गिरफ्तारी के बाद जब यह मामला ट्रायल कोर्ट के सामने जमानत /रिमांड के लिये आया तो वहां पर चिदम्बरम के वकील ने अधिकारियों की भूमिका को लेकर यह कहा He Submitted that the FIPB approval was given by six officers of the Level of  Secretary to Govt. of India but no action has been taken against them. He further submitted that it is a  case of documentary evidence. As per the allegation, a payment was allegedly made to the accused in the year 2007- 2008 but the FIR has been registered in the year 2017. He submitted that the argument of the Learned Solicitor General that accused was evasive in his interrogation on 06-06.2018, can not be accepted. The accused cannot be expected to given answers to the question put in interrogation as per the liking of the Investgating Agency. He submitted that it is a matter of personal Liberty of a citizen of India which has to be protected by the court. He submittied that the facts stated in para no. 2 of the application do not relate to the accused. He submitted that in para no. 3, there is an allegation of payment being made to the accused but he was not asked anything about the alleged payment on 06-06-2018.

अदालत में आये इन संद्धर्भों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस मामले में चिदम्बरम को दोषी ठहराने के लिये पहले इन संवद्ध अधिकारियों को दोषी ठहराना होगा। क्योंकि इनकी संस्तुति का अनुमोदन मन्त्री के स्तर पर हुआ है। मामले का गुण दोष के आधार पर नियमों की परिधी में रहते हुए आकलन करना संवद्ध अधिकारियों की जिम्मेदारी है। केन्द्र के वित्त सचिव ने भी एक ब्यान में साफ कहा है कि कोई भी मामला सचिव के पास लाये जाने से पहले विभाग के निदेशक और उप सचिव के स्तर पर जांचा जाता है। इस स्तर  के अधिकारी यह सुनिश्चित करते हैं कि इसमें विषय से संबंधित सारे दस्तावेज सही और प्रमाणिक है तथा मामला नियमों के दायर में आता है तथा उसमें कुछ भी गलत नही है। वित्त सचिव के मुताबिक इन अधिकारियों के माध्यम से 30 मामले उनके पास आये थे जिन्हें एकदम नियमों के अनुसार सही कहा गया था और इन अधिकारियों की स्पष्ट संस्तुति के आधार पर ही स्वीकृति दी गयी थी। वित्त सचिव के इस ब्यान के बाद प्रबोध सक्सेना की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है क्योंकि वह विदेशी निवेश संवर्द्धन के निदेशक थे लेकिन इस मामले में सरकार के आचरण से यह संकेत उभर रहा है कि सरकार अधिकारियों को बचाने का प्रयास कर रही है। प्रबोध सक्सेना के खिलाफ इस मामले में सीबीसी ने वित्त मन्त्रालय से मुकद्दमा चलाने की अनुमति मांगी। कायदे से यह अनुमति देने पर वहीं फैसला हो जाना चाहिये था। लेकिन केन्द्र के वित्त मन्त्रालय से यह वहां कार्मिक मन्त्रालय में पहुंच गया और वहां से हिमाचल सरकार के पास पहुंच गया। यहां पर भी कायदे से यह मामला बिना किसी टिप्पणी के वापिस भेज दिया जाना चाहिये था लेकिन यहां पर सक्सेना के पक्ष में टिप्पणीयां की गयी। यह कहा गया कि यहां पर उनके खिलाफ कोई मामला नही है। इस तरह इस मामले में तीन माह से ज्यादा का समय अनुमति देने/न देने की संस्तुति करने में लग गया है। नियमों के मुताबिक ऐसी अनुमति के मामले का फैसला तीन माह के भीतर लिया जाना होता है जो इसमें नही हुआ है। इसका पूरे मामले पर अन्त में प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
इस पूरे परिदृश्य में यह सवाल उठ रहा है कि क्या अधिकारियों ने इस बारे में मुख्यमन्त्री को सही जानकारी ही नही दी या फिर मुख्यमंत्री इसकी गंभीरता को ही नही समझ पाये है। क्योंकि इस मामले मे यह केन्द्रिय बिन्दु होगा कि जब प्रकरण से जुड़े संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ ही कोई कारवाई नही की गयी है तो फिर सीधे मंत्री के खिलाफ कारवाई कैसे? फिर इसमें तो अधिकारियों को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि जब अदालत ने चिदम्बरम को ही अग्रिम जमानत नही दी है तो इससे जुड़े अधिकारियों को कैसे मिल जायेगी? अब यदि संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ तुरन्त कारवाई नही होती है तो इससे सरकार पर राजनीतिक बदले की भावना से काम करने का आरोप लगना स्वभाविक है।
इस परिदृश्य में यह और सवाल खड़ा हो जाता है कि अब जब मुख्यमन्त्री के सामने यह मामला पूरी स्पष्टता के साथ आ गया है तो वह प्रबोध सक्सेना को लेकर क्या फैसला लेते हैं। क्योंकि इस समय बतौर वित्त सचिव वह सरकार में बहुत ही संवेदनशील पद पर बैठे हैं। उधर यह भी माना जा रहा है कि पीएमओ इस मामले की सीधे माॅनिटरिंग कर रहा है।