शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश के मज़दूर संगठनों इंटक, एटक और एटक ने एक संयुक्त मंच बनाकर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में पिछले दिनों श्रम कानूनों में हुए संशोधनों और कई जगह मज़दूरों को वेतन भुगतान न हो पाने के लिये कड़ा रोष व्यक्त किया गया है। यदि सरकार इन संशोधनों को वापिस नही लेती है तो मज़दूर वर्ग राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े आन्दोलन के लिये भी तैयार हो रहा है। स्मरणीय है कि कोरोना के कारण सारे देश में लागू की गयी तालाबन्दी के कारण सबसे ज्यादा मज़दूर वर्ग ही प्रभावित हुआ है। आज जिस तरह से यह मज़दूर सैंकड़ों मील की पैदल यात्रा करके अपने घरों को वापिस आ रहे हैं उससे देया की जो तस्वीर सामने आ रही है वह बहुत ही भयावह है। इनके वापिस आने से जो सवाल खड़े हुए हैं उनमें सबसे पहले यही आता है कि आज जिस देश में बुलेट ट्रेन, और सैन्ट्रल बिस्टा जैसे लाखों/हजारों करोड़ के कार्यक्रम देश की प्रगति के नाम खड़े की जा रहे हो, जिस देश के प्रधानमन्त्री की विदेश यात्राओं पर देश 66 अरब खर्च कर सकता हो क्या उस देश में आज भी करोड़ों लोग सैंकडों मील पैदल चलने को विवश हैं। देश का कोई भी बड़ा महानगर कोई भी प्रदेश ऐसा नही है जिसके यहां से मज़दूरों ने पलायन न किया हो। कोई भी सरकार ऐसी नही है जिसने पहले ही दिन अपने स्तर पर अपने खर्च के साथ इन मज़दूरों को उनके घर/गांव तक छोड़ने का प्रबन्ध किया हो। यही नही इससे भी बड़ी त्रासदी तो यह सामने आयी कि इसी दौरान सारी सरकारों ने श्रम कानूनों में संशोधन कर डाले। आठ घन्टे की बजाय बारह घन्टे काम लेने का प्रावधान कर दिया।
तालाबन्दी में करोड़ो लोगों ने अपना रोज़गार खोया है। इसको लेकर अज़ीम प्रेमजी विश्व विद्यालय ने एक अध्ययन किया है। इसके मुताबिक कुल 67% लोगों ने रोज़गार खोया है जिसमें शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 80% हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में 57% लोग रोज़गार से बाहर हुए है। 5% वेतन भोगियों को या तो कम वेतन मिला है या मिला ही नही है। 49% परिवारों के पास एक सप्ताह का आवश्यक सामान खरीदने के लिये भी उनके पास पर्याप्त पैसे नही है यह सर्वे आंध्र प्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, झारखण्ड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िसा, राजस्थान, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में किया गया है। इससे स्थिति का पता चलता है कि ज़मीनी हकीकत क्या है। ऐसे में चुपचाप श्रम कानूनों में बदलाव कर देना और इस बदलाव को जायज़ ठहराने के लिये उद्योगों की परिभाषा को बदल देना नीयत और नीति को लेकर बहुत कुछ ब्यान कर देता है। प्रधानमन्त्री ने जो राहत पैकेज घोषित किया है उसमें इस मज़दूर का कहीं कोई जिक्र नही है। जबकि इस समय इसे तत्काल यह आवश्यकता है कि वह किसी भी तरह अपने घर अपनों के बीच पहुंच जाये। यह पैदल इसलिये निकल पड़ा है क्योंकि इसे कोई रेलगाड़ी या बस नही मिली है। ऊपर से इसके पास जाने के लिये कोई पैसा भी नहीं है। इसे तत्काल नकदी की आवश्यकता थी। परन्तु इसे नकदी की बजाये पांच किलो अनाज और एक किलो चना देने की बात की गयी है। यह राहत देने वाले यह नही सोच पाये हैं कि रास्ते में चलते हुए यह मज़दूर इस गेंहू/चना को पकाने का कैसे प्रबन्ध कर पायेगा। मनरेगा में तो काम तब कर पायेगा जब वह काम तक पहुंचेगा। आज की आवश्यकता तो उसे घर पहुंचाने में सहायता करने की है जो नही की गयी है।
इस मजदूर की मज़बूरी को ब्यान करते हुए जो जनहित याचिकायें शीर्ष अदालत में पहुंची हैं उन पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी सुनवायी नही की है। ऐसे में जहां यह जिनके लिये काम करता था उन्होने इसे सहारा नही दिया। सरकार के लिये भी यह प्राथमिकता में नही आया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसकी सुनने से इन्कार कर दिया है। इस परिदृश्य में श्रम कानूनों में संशोधन किया जाना स्पष्ट संदेश देता है कि कल इसे बारह घन्टे काम करने के लिये तैयार रहना होगा। इसके बच्चों को भी बाल मज़दूरी के लिये बाध्य होना होगा। ऐसे में यदि इसने इस आसन शोषण को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया तो क्या होगा। इसका आकलन कोई भी आसानी से लगा सकता है।
मज़दूर संगठनों का मुख्यमंत्री को पत्र
माननीय मुख्यमंत्री,
हिमाचल प्रदेश सरकार,