क्या तीसरे दल प्रदेश में स्थान बना पायेंगे

Created on Wednesday, 19 August 2020 08:09
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। क्या तीसरे राजनीतिक दल प्रदेश में अपने लिये कोई स्थान बना पायेंगे। यह सवाल इन दिनों फिर उठने लगा है क्योंकि आम आदमी पार्टी, हिमाचल स्वाभिमान पार्टी, हिमाचल जन क्रांति पार्टी और एक समय आम आदमी पार्टी की हिमाचल ईकाई के अध्यक्ष रह चुके पूर्व सांसद डा. राजन सुशांत ने भी घोषणा की है कि वह आने वाले नवरात्रों में एक राजनीतिक दल का गठन करेंगे। इस परिप्रेक्ष में यह आकलन करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि यह वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में क्या भाजपा और कांग्रेस के सत्ता छीनने में सफल हो पायेंगे? क्या सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर पायेंगे? या फिर कांग्रेस या भाजपा में से किसी एक दल को सत्ता से बाहर रखने में अपनी कारगर भूमिका निभायेंगे? इनमें से यदि किसी एक मकसद में भी यह लोग सफल हो जाते हैं तो इनके गठन को सार्थक माना जायेगा अन्यथा नहीं।
प्रदेश के गठन से लेकर अब तक राज्य की सत्ता पर कांग्रेस या भाजपा का ही कब्जा रहा है। यही नहीं है कि इससे पहले कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने के प्रयास न किये गये हों। यह भी नही है कि कांग्रेस या भाजपा के शासन में प्रदेश समस्याओं से मुक्त हो गया हो। लोकराज पार्टी से लेकर हिलोपा तक राजनीतिक विकल्प बनने के बहुत प्रयास हुए हैं। इन प्रयासों में मेजर विजय सिंह मनकोटिया, प. सुखराम और महेश्वर सिंह जैसे नाम विशेष उल्लेखनीय रहे हैं। लेकिन अन्त में आज सब शून्य होकर खड़े हैं। शून्य होने के सबके अपने अपने कारण रहे हैं लेकिन ऐसा भी नहीं रहा है कि प्रदेश की जनता ने इनके प्रयासों को पहले दिन ही नकार दिया हो। सबको विधानसभा के पटल तक पहुंचाया लेकिन वहां पहुंचने के बाद यह लोग जनता में अपने को प्रमाणित नही कर पाये। इसलिये आज जब कोई कांग्रेस या भाजपा का विकल्प होने का प्रयास करेगा तो उसे प्रदेश के पूर्व राजनीतिक इतिहास का ज्ञान रखना आवश्यक हो जाता है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प 1977 में जनता पार्टी तब बन पायी थी जब जन संघ सहित वाम दलों को छोड़ अन्य सभी दलों ने अपने को जनता पार्टी में विलय कर दिया था। 1977 में देश की जनता ने यह इतिहास रचा था जिसे 1980 में ही राजनीतिक नेतृत्व ने तोड़ कर रख दिया था। क्योंकि जनता पार्टी के प्रमुख घटक जनसंघ ने अपनी RSS की सदस्यता जारी रखी और इसी दोहरी सदस्यता के नाम पर जनता पार्टी की सरकार टूट गयी। जनसंघ का नया नाम भारतीय जनता पार्टी हो गया। 1980 के बाद 1989 में फिर प्रयास हुआ। भाजपा से अलग दलों ने जनता दल का गठन किया और एक बार फिर भाजपा जनता दल की सरकारें बन गयी लेकिन तब फिर आर एस एस का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आरक्षण के विरूद्ध आन्दोलन के रूप में सामने आया जो अन्त में राम मन्दिर आन्दोलन बना और इसमें चार राज्यों की सरकारें बलि चढ़ गयी। इस तरह जब जब कांग्रेस का विकल्प खड़ा करने के प्रयास हुए और उन प्रयासों का नेतृत्व आने वाले भाजपा के हाथ नहीं आया तब तब उन प्रयासों को विफल करने में भाजपा की भूमिका महत्वपूर्ण रही है क्योंकि इसका नियन्त्रण RSS के पास रहा। आज पहली बार है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भ्रष्टाचार को लेकर समय समय पर उछाले गये नोटों के परिणामस्वरूप भाजपा केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुई है कि उसे अब किसी भी अन्य  दल के सहारे की आवश्यकता नही रही है। जो भी व्यक्ति संघ का स्वयं सेवक रह चुका है वह भले ही किसी भी अन्य दल में क्यों न हो इसकी पहली निष्ठा संघ के प्रति ही रहती है।
इस परिदृश्य में आज जब केन्द्र की सत्ता पर भाजपा का कब्जा चल रहा है तो इसी कब्जे को राज्यों तक ले जाने की दिशा में राज्यों में सरकारें गिराने की रणनीति पर अमल किया जा रहा है। इस समय जिस तरह का आर्थिक परिदृश्य देश में निर्मित हो गया है उससे राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता एक अनिवार्यता बनती जा रही है। क्योंकि हर राज्य पर कर्ज का बोझ उसके संसाधनों से कहीं अधिक बढ़ चुका है और दुर्भाग्य से केन्द्र भी इसी स्थिति में पहुंच चुका है। आने वाले समय में कर्जदारों के निर्देशों की अनुपालना करने के अतिरिक्त राज्यों से लेकर केन्द्र तक के पास और कोई विकल्प नहीं रह जायेगा। आज हिमाचल का ही कर्ज साठ हजार करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका है जोकि शायद राज्य के जीडीपी के 50% से अधिक है। इस बढ़ते कर्ज को कैसे रोका जाये और कर्ज के बिना राज्य की आवश्यकताओं को कैसे पूरा किया जाये यह आने वाले दिनों के केन्द्रीय मुद्दे होने जा रहे हैं। लेकिन आज राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों नेतृत्व इस सवाल पर आंखें बन्द करके बैठे हैं। ऐसे में जब भी कोई व्यक्ति राजनीतिक विकल्प के मकसद से राजनीतिक संगठन खड़ा करने का प्रयास करेगा उसे इस सवालों पर पूरी ईमानदारी से चिन्तन करके इस संबंध में एक समझ बनाकर उसे सार्वजनिक बहस का विषय बनाना होगा। राज्य के संसाधनों का पूरा विश्लेषण अपने पास रखना होगा और उन संसाधनों को कैसे आगे बढ़ाया जाये इसकी एक पूरी कार्य योजना तैयार रखनी होगी। राज्य की वर्तमान समस्याओं की जानकारी के साथ उनके लिये जिम्मेदार राजनीतिक नेतृत्व को पूरे प्रमाणिक साक्ष्यों के साथ चिन्हित करके पूरी बेबाकी से जनता के सामने रखना होगा। जब तक कोई ऐसा नही करेगा तब तक जनता उसे कतई गंभीरता से नही लेगी क्योंकि आज 1989 जैसे ही प्रयास करने की आवश्यकता होगी। क्योंकि आज जो राजनीतिक वातावरण बना हुआ है उसे भेदने के लिये 1977 और 1989 जैसे ही प्रयास करने की आवश्यकता होगी क्योंकि आज जो सत्तापक्ष है उसके हर राजनीतिक कार्य के पिछे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ऐसी विचार शक्ति क्रियाशील है कि उससे सारे आर्थिक सवाल गौण होकर रह गये हैं जबकि हर आदमी पर इनका सीधा प्रभाव पड़ रहा है। इसलिये आज स्थिति यह चयन करने पर पहुंच गयी है कि प्राथमिकता आर्थिक सवालों को दी जाये या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को। प्रदेश में दस्तक देने को तैयार हो रहे इन तीसरे राजनीतिक दलों को स्थान बनाने के लिये इस चयन के टैस्ट से गुजरना होगा।
 लेकिन इसमें व्यवहारिक स्थिति यह है कि इस समय आम आदमी पार्टी की प्रदेश ईकाई की कमान एक ऐसे व्यक्ति के पास है जो अपनी व्यवसायिक व्यस्तताओं के कारण ज्यादा समय प्रदेश से बाहर रहता है। इस बाहर रहने के कारण प्रदेश ईकाई के अन्य सदस्यों में आपसी तालमेल की स्थिति यह है कि अभी से उनके संबंधों के आडियो वायरल होने लग पडे हैं। अभी तक प्रदेश ईकाई जनता को यह नही बता पायी है कि उसका विरोध विपक्ष में बैठी कांग्रेस से है या सत्ता पक्ष में बैठी भाजपा से है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार के सहारे राज्यों में ईकाईयों का गठन करके उसे राजनीतिक विकल्प के स्तर  तक ले जाना ईकाई के वर्तमान नेतृत्व के तहत संभव नही है। फिर दिल्ली की जो राजनीतिक और आर्थिक स्थितियां है वैसी देश के अन्य राज्यों की नही है। प्रदेश की आम आदमी पार्टी से जुड़े अधिकांश लोगों की निष्ठायें पहले संघ भाजपा के साथ हैं उसके बाद आम आदमी पार्टी के साथ।  
इसी  तरह की स्थिति स्वाभिमान पार्टी और जनक्रान्ति पार्टी की है यह लोग अभी तक स्पष्ट नही हो पाये हैं कि उनका पहला विरोध संघ/भाजपा से है या कांग्रेस से। डा. सुशान्त तो भाजपा से प्रदेश में मन्त्री और केन्द्र में सांसद रह चुके हैं। संघ से प्रशिक्षित भी हैं ऐसे में उन्हे भी कांग्रेस को कोसना आसान है भाजपा संघ को नहीं। इसलिये उन्होने कर्मचारियों के उस पैन्शन को उठाया जो उनके सांसद रहते घटा और तब वह उस पर चुप रहे। आज भी उन्होंने यह नही बताया कि इसके लिये वह केन्द्र को कितना दोषी मानते हैं। ऐसे में जब तक यह लोग अपनी सोच में स्पष्ट नही हो जाते हैं तब तक इनके राजनीतिक प्रयासों का कोई लाभ नही होगा।