क्या आरक्षण के किसी भी प्रावधान कोई बदलाव राज्य सरकार कर सकती है
क्या स्वर्ण मोर्चा की मांगों को संसद या सर्वोच्च न्यायालय तक ले जायेगी प्रदेश भाजपा
अन्य पिछड़े वर्गों का आरक्षण अभी भी 18% तक ही क्यों लटका है
जनजातीय क्षेत्रों के बजट में 3% की कटौती का प्रस्ताव क्यों
शिमला/शैल। जयराम सरकार को स्वर्ण मोर्चा के दबाव के आगे सामान्य वर्ग आयोग के गठन की अधिसूचना जारी करनी पड़ी है। स्वर्ण मोर्चा लंबे समय से इस आयोग के गठन की मांग कर रहा था। विधानसभा के पिछले सत्र में भी मोर्चा के लोगों ने सदन के बाहर प्रदर्शन किया था। उस समय कांग्रेस विधायक विक्रमादित्य सिंह ने भी इस मांग का समर्थन किया था। मुख्यमंत्री ने भी यह आश्वासन दिया था कि सरकार आयोग का गठन करेगी। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब आयोग के गठन के लिए सरकार वचनबद्ध थी तो फिर मोर्चा के लोगों का हरिद्वार तक की पदयात्रा, शिमला में एट्रोसिटी एक्ट की शव यात्रा और अंत में धर्मशाला में मोर्चा को उग्र आंदोलन तक ले जाने की राजनीतिक आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या यह आंदोलन प्रायोजित था? क्या इस आंदोलन और आयोग के गठन के पीछे कोई लंबी रणनीति है? यह सवाल इसलिए प्रसांगिक हैं क्योंकि ऐसे आयोग के गठन को किसी भी अधिनियम से बल नहीं मिलता है। इसे आयोग का गठन होने से किसी को लाभ नही मिल पायेगा। क्योंकि स्वर्ण मोर्चा की जो भी मांगे जातिगत आरक्षण हटाने को लेकर है उन पर कुछ भी कर पाना प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं। राज्य सरकार केवल केंद्र सरकार को इस तरह के आग्रह की सूचना और सिफारिश ही भेज सकती है। इस व्यवहारिक पक्ष को सामने रखते हुये सामान्य वर्ग आयोग के गठन से आने वाले दिनों में एक ऐसे राजनीतिक वातावरण की परिस्थितियां निर्मित हो जायेंगी जो सरकार और प्रदेश दोनों के ही हित में नहीं होंगी।
यह स्पष्ट है कि स्वर्ण मोर्चा की मुख्य मांग है कि जातिगत आरक्षण समाप्त करके सारा आरक्षण आर्थिक आधार पर किया जाये। पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता शांता कुमार ने भी एक बयान में मोर्चा की इस मांग का समर्थन करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे आंदोलन की आवश्यकता पर बल दिया है। शांता कुमार के इस बयान से यह संकेत उभरते हैं कि इस तरह के किसी आंदोलन की भूमिका तैयार की जा रही है। क्योंकि जातिगत आरक्षण देश की संसद द्वारा आयोगों काका कालेलकर 1953 और वी पी मंडल 1979 तथा विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा आरक्षण के आकार और आधार निर्धारित करने के लिए गठित 17 आयोगों की सिफारिशों के आधार पर लागू किया गया था। इसमें दोनों केंद्रीय आयोगों ने जाति को आरक्षण का आधार माना था। जबकि राज्य स्तर पर 17 में से चार कर्नाटक जम्मू-कश्मीर पश्चिम बंगाल और गुजरात ने आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार माना था। इस परिदृश्य में जब मंडल आयोग की सिफारिसें 1990 में लागू करने का फैसला वी पी सिंह सरकार ने किया तब देश में किस तरह का हिंसक विरोध हुआ था यह सब जानते हैं। इसी विरोध के परिणाम स्वरूप वी पी सिंह की सरकार गिर गई थी। इसके बाद पी बी नरसिंह राव सरकार आयी। इस सरकार ने 25 सितम्बर 1991 को उंची जातियों के आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबकों के लिए 10% अतिरिक्त आरक्षण देने का फैसला लिया। क्योंकि 1963 में ही सर्वोच्च न्यायालय बालाजी बनाम मैसूर राज्य में यह फैसला दे चुका था कि आरक्षण 50% से कम होना चाहिए। इस पर मंडल आयोग की सिफारिशों का मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। 16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी बनाम भारत का सरकार में ऐतिहासिक फैसला आ गया और आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% निर्धारित कर दी गयी। 8 सितंबर 1993 को इस फैसले को लागू करने की अधिसूचना जारी हो गयी। जिसमें अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27%आरक्षण कर दिया गया। इसमें यह महत्वपूर्ण रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उंची जातियों के आर्थिक रूप से दुर्बल वर्गों और पिछड़ी जातियों के सम्पन लोगों के लिए आरक्षण को सामान्य करार दे दिया। इसके लिए संविधान की धारा 16(4) को आधार बनाया गया इसी में पिछड़ी जातियों के संपन्न लोगों को चिन्हित करने के लिए क्रीमी लेयर का मानक रखा गया। उस समय यह क्रीमी लेयर एक लाख आय रखी गयी थी जो अब मोदी सरकार ने बढ़ाकर आठ लाख कर दी है। यही नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने जब भी आरक्षण को लेकर कोई व्यवस्था देने का प्रयास किया है तो मोदी सरकार ने ऐसे हर प्रयास को संसद में निरस्त कर दिया है। आज भी हिमाचल प्रदेश में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए तय आरक्षण की 27 प्रतिशत सीमा का व्यवहारिक रूप से पालन नहीं हो रहा है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण अभी 18%से आगे नहीं बढ़ पाया है। अन्य क्षेत्रों में तो यह 10% से भी बहुत कम है। दूसरी ओर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए जो 9% बजट का प्रावधान रखा गया है उसमें से भी 3% काटकर उन जनजातियों को देने का फैसला लिया जा रहा है जो जनजातीय क्षेत्रों से बाहर रह रही हैं। जबकि इन्हीं वर्गों ने पिछले दिनों शिमला में आयोजित एक सम्मेलन यह आरोप लगाया है कि उनके लिए आवंटित बजट का 7% भी खर्च नहीं किया जा रहा है।
इस वस्तु स्थिति में सामान्य वर्ग आयोग स्वर्ण मोर्चा की मांगों पर अमल करने के लिए क्या कर पायेगा। क्योंकि आरक्षण के किसी भी प्रावधान को बदलने या उसमें कुछ जोड़ने घटाने का एक ही मंच है और वह संसद है। दूसरा मंच सर्वोच्च न्यायालय है लेकिन उसके फैसलों को बदलने का अधिकार संसद के पास रहता है। ऐसे में जब आने वाले दिनों में मोर्चा का नेतृत्व सरकार से यह पूछेगा कि उसकी मांगों का क्या हुआ तो सरकार क्या जवाब देगी। क्या सरकार मोर्चा की मांगे केंद्र सरकार को भेजेगी और अपने सांसदों के माध्यम से संसद में उठवायेगी? या सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटायेगी? यह सवाल चुनावी वर्ष में हर रोज उठाने के लिये मंच तो बन ही चुका है। इसी के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी उनके लिये तय आरक्षण कि 27 प्रतिशत सीमा की हर क्षेत्र में अनुपालन की मांग करेंगे। जनजातीय क्षेत्रों के बजट में 3% की कटौती के प्रस्ताव पर यहां के नेतृत्व की प्रतिक्रिया क्या रहेगी यह देखना भी दिलचस्प होगा। सरकार ने स्वर्ण मोर्चा के प्रदर्शन के दबाव में आयोग का गठन कर दिया पेंशन योजना के प्रदर्शन पर उनके लिये कमेटी का गठन कर दिया। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि अपनी मांग मनवाने के लिये सरकार को आंखे दिखाने का ही विकल्प शेष रह गया है।