शिमला/शैल। पूर्व मंत्री और पांच बार विधायक रह चुके डॉ. राजीव बिन्दल का पुनः प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनना राजनीतिक हलकों में एक बड़ा संकेत और संदेश माना जा रहा है। क्योंकि बिन्दल धूमल मंत्रिमण्डल में मंत्री थे लेकिन जयराम सरकार में मंत्री की जगह विधानसभा अध्यक्ष बनाये गये। परन्तु यह अध्यक्षी भी ज्यादा देर नहीं चली और विपिन परमार के लिये इसे छोड़कर पार्टी की अध्यक्षता संभालनी पड़ी। यह पार्टी अध्यक्षता भी ज्यादा देर टिक नहीं पायी। इसी परिदृश्य में विधानसभा के चुनाव हो गये और बिन्दल हार गये। इस हार को यह मान लिया गया कि अब बिन्दल सक्रिय राजनीति से बाहर हो गये हैं। जब उन्हें शिमला नगर निगम के चुनावों में भी कोई बड़ी भूमिका नहीं मिली तो राजनीतिक सक्रियता से बाहर होने के सन्देश पर एक तरह से मोहर ही लग गयी। ऐसे में इसी नगर निगम के चुनाव में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया जाना अपने में ही कई अर्थ रखता है। इन अर्थों तक पहुंचने के लिये विधानसभा चुनावों से लेकर अब तक जो कुछ प्रदेश की राजनीति में घटा है उस पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है।
विधानसभा चुनावों में प्रदेश भाजपा के पास सबसे बड़ा हथियार डबल इंजन की सरकार होना था। इसी डबल इंजन के सहारे भाजपा ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में सत्ता में वापसी की थी। इस डबल इंजन का संदेश पुख्ता करने के लिये प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने प्रदेश चुनाव रैलियों के लिये पूरा समय दिया। लेकिन अनुराग के हमीरपुर और बिन्दल के गृह जिला सोलन में भाजपा का खाता भी नहीं खुल पाया। यदि जयराम की मण्डी ने दस में से नौ सीटें भाजपा को न दी होती तो शायद कांग्रेस का आंकड़ा पच्चास पहुंच जाता। भाजपा हाईकमान के लिये यह हार अप्रत्याशित थी क्योंकि हिमाचल राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा का गृह राज्य था। प्रदेश भाजपा अपनी हार के कारणों पर खुलकर चर्चा तक नहीं कर पायी है। प्रदेश भाजपा कि इस स्थिति को सामने रखकर हाईकमान ने अपने स्तर पर हार के कारण तलाशने का काम किया और भीतरी गुटबाजी को इसका कारण माना जो कि नगर निगम शिमला के टिकट आवंटन में भी खुलकर सामने आ गया है।
यही नहीं प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद जिस तरह से पूर्व सरकार के छः माह के फैसले बदलने के नाम पर करीब नौ सौ संस्थान बन्द किये गये। उस पर भाजपा ने बिना कोई समय गंवाये पूरी आक्रामकता अपनाई। प्रदेश के कोने-कोने तक इस मुद्दे को ले गये। उच्च न्यायालय में याचिका तक दायर हो गयी। लेकिन जब सुक्खू सरकार ने मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति की तो भाजपा की आक्रामकता की धार काफी कुन्द हो गयी। उधर सुक्खू सरकार वायदे के बावजूद प्रदेश की आर्थिकी पर श्वेत पत्र नहीं ला पायी। आक्रामकता की धार कुन्द होने से यह संदेश चला गया कि इन हथियारों से नगर निगम शिमला के चुनाव में कोई सफलता मिल पाना कठिन होगा। जबकि कर्नाटक चुनावों से पहले नगर निगम शिमला के चुनाव हो रहे हैं और कर्नाटक चुनावों में भाजपा के कई बड़े चेहरे पार्टी छोड़ कांग्रेस में जा चुके हैं। भाजपा के लिये राष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश घातक है। इसलिये कांग्रेस कमजोर, सक्षम नहीं है यह सन्देश देने के लिये किसी कांग्रेस शासित राज्य में कांग्रेस को छोटी-बड़ी चुनावी हार पहुंचाना आवश्यक है। इसके लिये शिमला नगर निगम के चुनावों से बेहतर और कोई अवसर हो नहीं सकता। इसलिये नगर निगम चुनावों में हाईकमान ने उत्तर प्रदेश के विधायक और पूर्व मंत्री को चुनाव प्रभारी बनाकर भेजा। चुनावों के बीच प्रदेश अध्यक्ष और संगठन मंत्री बदल दिये। यह फेरबदल करके यह सन्देश देने का प्रयास किया गया है कि भाजपा हाईकमान प्रदेश की हर घटना पर अपने तरीके से नजर रख रही है।
इस परिदृश्य में यह देखना रोचक होगा कि डॉ. बिन्दल इतने अल्प समय में भाजपा की आक्रामकता को कैसे धार दे पाते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में अभी चार माह के अल्प समय में ही जो कुछ घट गया है उसी पर सरकार को घेरा जा सकता है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर जनता को श्रीलंका जैसे हालात होने की चेतावनी देने वाली सरकार जब पहले बजट सत्र में ही श्वेत पत्र न ला पाये तो उसके वित्तीय फ्रन्ट पर उठाये गये सारे आरोप बेमानी हो जाते हैं। क्योंकि आर्थिकी पर श्वेत पत्र की प्रसंगिकता केवल पहले बजट सत्र में होती है। क्योंकि अगले सत्रों में तो इस मुद्दे पर सरकार के अपने ऊपर सवाल आने शुरू हो जायेंगे। माना जा रहा है कि यदि डॉ. बिन्दल आक्रामकता को धार दे पाये तो सरकार के लिये यह चुनाव भी बहुत आसान नहीं रहेगा।