शिमला/शैल। मतदान के बाद कांग्रेस और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व जहां चुनाव परिणामों को लेकर अपने-अपने आंकलनों में जुटे हैं वहीं पर दोनों पार्टीयां अपने-अपने विद्रोहियों और भीतरघातियों के खिलाफ कारवाई भी करने जा रही है। क्योंकि दोनों पार्टीयों को इन विद्रोहीयों और भीरतघातियों से नुकसान पहुंचा है। दोनों पार्टीयों के आधा - आधा दर्जन विद्रोही अन्त तक बतौर आज़ाद उम्मीदवार चुनाव मैदान में बने रहे हैं। यह विद्रोही भले ही स्वयं न जीत पायेे लेकिन अधिकृत उम्मीदवारों को अवश्य नुकसान पंहुचा सकते हैं यह माना जा रहा है। जहां एक ही चुनाव क्षेत्र में दोनों दलों के विद्रोही बतौर आज़ाद उम्मीदवार मैदान में बनेे रहे हैं वहां किसी आजा़द को सफलता मिल सकती है इसकी संभावना भी बराबर है। यह विद्रोही कहां- कहां रहे हैं? इस सवाल की पड़ताल करने से पूर्व यह समझना बहुत आवश्यक है कि दोनों दलों में विद्रोह की स्थिति आयी ही क्यों।
सत्तारूढ़ कांग्रेस में मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह और संगठन प्रमुख सुक्खु के बीच जिस तरह का टकराव सत्ता संभालने के पहले ही दिन से शुरू हुआ था वह चुनावों तक बराबर बना रहा है। लेकिन चुनावों में जब कुछ वीरभद्र के विश्वस्त माने जाने वाले निर्दलीयों के रूप में चुनाव मैदान में समाने आ गयेे तब मुख्यमन्त्री पर अपरोक्ष में अंगूलियां उठना शुरू हो गयी। विद्रोहियों को आर्शीवाद देने और अधिकृत उम्मीदवारों को समर्थन न देने आक्षेप शिमला अर्बन और ठियोग विधानसभा क्षेत्रों में उस समय सामनेे आ गया जब एसआईडीसी के उपाध्यक्ष अतुल शर्मा को पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिये संगठन से निष्कासित किया गया। वीरभद्र ने इस निष्कासन का खुलेे रूप से विरोध करते हुऐ इसे अन्याय करार दिया है। इससेे यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि कुछ पार्टी विद्रोहियों को वीरभद्र का समर्थन हालिस है। माना जा रहा है कि चुनावों के परिणाम आने के बाद एक बार फिर संगठन और वीरभद्र में खुले टकराव की नौबत आयेगी।
इसी तरह अगर भाजपा के भीतर उभरे विद्रोह का आंकलन किया जाये तो इसके लिये प्रदेश के स्थानीय नेताओं के हितों के अघोषित टकराव के साथ ही हाईकमान की नीति को भी बराबर का जिम्मेदार माना जा रहा है। केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद जब कई राज्यों में भी पार्टीे की सरकारें बन गयी तो स्वभाविक रूप से कार्यकर्ताओं का मनोबल और बढ़ गया। इस मनोबल के बढ़नेे केे साथ ही उनकी अपनी महत्वकांक्षाए भी बढ़ी और वह उम्मीद करने लगे की सगंठन टिकटों के आवंटन में उन्हें भी तरजीह देगा। लेकिन जब टिकटों के लिये आवेदन किये जाने के पुराने चलन को नकार कर हाईकमान ने अपने ही सर्वे के आधार पर टिकट देने का फैसला लिया तो उससे स्थिति बदल गयी। लेकिन यह स्थिति उस समय और विकट हो गयी जब कांगे्रस से चुनावों के दौराने कुछ लोगों को पार्टी में शामिल करवाकर उनको टिकट थमा दिये गये। इसी के साथ यह जगजाहिर हो चुका था कि टिकट आंवटन में प्रदेश के बड़े नेताओं की राय को भी बड़ा अधिमान नही दिया गया है। फिर पार्टी बिना मुख्यमन्त्री का चेहरा घोषित किये चुनाव लडेगी इस फैसले को चुनाव के अन्तिम चरण में बदल दिया गया। धूमल को नेता घोषित किये जाने से पहले कार्यकर्ताओं और जनता में यह अप्रत्यक्ष प्रचार हो चुका था कि भाजपा में अगला मुख्यमन्त्री जेपी नड्डा होंगे। धूमल के घोषित होने केे साथ ही फिर पार्टी के भीतरी समीकरणों में बदलाव आया और इससे अपनी डफली अपने राग वाली स्थिति बन गयी।
इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि जब पार्टीयों का शीर्ष नेतृत्व अपने को ही सर्वेसर्वा मानकर अपनेे निर्णयों पर सार्वजनिक सहमति तैयार करने की बजाये उन्हे एक तानाशाह की तरह संगठन पर थोपनेे लग जाता है तब यह स्थितियां विद्रोह और भीतरघात की शक्ल लेकर सामनेे आती हैं फिर पार्टीयां जब ऐसे लोगों के खिलाफ निष्कासन के फैसले लेती है तो उन पर अन्त तक अमल नही कर पाती है। 2012 के चुनावों में भी दोनों पार्टियों ने ऐसे लोगों के खिलाफ निष्कासन की कारवाई को अंजाम दिया था। लेकिन इन चुनावों के आते -आते सबको फिर से शामिल कर लिया गया। भाजपा ने तो कांग्रेस से चुनावों में नेताओं को तोड़कर अपने टिकट थमाये हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि किसी भी दल को बहुमत नही मिल पाता है और निर्दलीयों के सहयोग से सरकार बनाने की नौबत आती है तो क्या दल उन्हे अपने में शामिल करने से परहेज करेंगे। उस समय सरकार बनाने के लिये यह विद्रोह और भीतरघात सब बीते वक्त की बात हो जायेगी और इन आजाद लोगों को मंत्री बनाया जायेगा। नगर निगम शिमला में सता के लिये अभी ही भाजपा यह सब कर चुकी है। इसलिये आज विद्रोह और भीतरघात के नाम पर कारवाई किये जाने का तब तक कोई अर्थ नही रह जाता है जब तक सता का लालच बना रहेगा।