शिमला/शैल। 1980 में भाजपा के गठन के बाद प्रदेश में पहली बार अपने दम पर पार्टी का इतनी बड़ी जीत हासिल हुई है। क्योंकि 1990 में जनता दल के साथ गठबन्धन के कारण भाजपा को जीत मिली थी और शान्ता मुख्यमन्त्री बने थे। 1998 में सुखराम की हिमाचल विकास कांगे्रस के सहयोग से धूमल की सरकार बनी थी। 2007 में भाजपा अपने ही दम पर जीत गयी थी और सरकार बन गयी थी। लेकिन तब इतनी सीटें नही मिली थी। इस बार अपने ही दम पर 44 सीटें जीत कर एक बड़ी जीत दर्ज की है। इस जीत को सुनिश्चित करने के लिय ही भाजपा को अन्त में उस समय धूमल को नेता घोषित करना पड़ा जब यह आरोप लगना शुरू हुआ कि भाजपा ’’बिन दुल्हे की बारात’’ बनकर रह गयी है। धूमल को मतदान से केवल नौ दिन पहले नेता घोषित किया गया। स्वभाविक है कि नेता घोषित करने को लेकर पार्टी ने अपना स्टैण्ड बड़े फीड बैक और विचार विमर्श के बाद ही बदला होगा। नेता घोषित किये जाने के बाद पार्टी को 44 सीटों पर जीत हासिल हुई है लेकिन इसी जीत में मुख्यमन्त्री का चेहरा बने धूमल ही अपनी सीट पर हार गये। यही नही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सत्तपाल सत्ती चुनाव हार गये। पूर्व मन्त्री और विधायक रविन्द्र रवि, गुलाब सिंह ठाकुर, पार्टी प्रवक्ता विधायक रणधीर शर्मा तथा पूर्व संसाद कृपाल परमार भी चुनाव हार गये। यह सभी लोग धूमल के विश्वस्त माने जाते है और यह तय माना जा रहा था कि यदि यह लोग जीत जाते तो अब मन्त्री भी बनते। हारने वालों में इतना ही बड़ा एक नाम महेश्वर सिंह का भी शामिल है।
ऐसे में अब प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि भाजपा की इनती बड़ी जीत का श्रेय आखिर किसके नाम है क्या यह जीत मोदी लहर का परिणाम है? लेकिन मोदी लहर पर यह प्रश्न लग रहा है कि इस चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने प्रदेश के चार स्थानों पर जनसभाओं को सबोधित किया है और उनमें पांवटा साहिब के सुखराम चौधरी ही जीत हासिल कर पायेे है। बाकी के तीनों इन्दु गोस्वामी, कृपाल परमार और सत्तपाल सत्ती हार गये हैं। नगर निगम शिमला के चुनावों से कुछ ही दिन पहले मोदी की शिमला रैली हुई लेकिन इस रैली के बावजूद नगर निगम में भाजपा को अपने दम पर बहुमत नही मिल पाया था। इस परिपेक्ष्य में यदि यह माना जाये कि प्रदेश में मोदी लहर तो थी तभी 44 सीटों पर जीत मिली है लेकिन इस पर यह सवाल उठता है कि यदि लहर थी तो इतने बड़े नेता एक साथ ही क्यों हार गये? पिछले सदन में इन सबकी परफारमैन्स बहुत महत्वपूर्ण रही है। हर गंभीर मुद्दे पर सरकार को घेरने वालों में इनके नाम प्रमुख रहते थे। इसीलिये इन सब नेताओं का एक साथ हार जाना संगठन के लिये एक इतना बड़ा सवाल है कि इसे नज़र अन्दाज कर पाना आसान नही है। क्योंकि एक साल बाद ही पार्टी को लोकसभा चुनाव का सामना करना है और यदि वास्तव में ही यह नेता अपना-अपना जनाधार खो चुके हैं तो इनके स्थान पर अभी से नये चेहरों की तलाश करनी होगी।
धूमल की हार से पूरे प्रदेश के राजनीतिक समीकरण बदल गये हैं। पार्टी इस हार का आंकलन कैसे करती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस हार के साथ ही चुनाव के दौरान हुए भीतरघात के आरोपों की गंभीरता एकदम बढ़ जाती है क्योंकि अधिकांश क्षेत्रों से भीतरघात के आरोपों की गंभीरता एकदम बढ़ जाती है क्योंकि चर्चा उठ रही है कि धूमल का चुनाव क्षेत्रा भी एक सुनियोजित रणनीति के तहत ही बदला गया था। चर्चा है कि धूमल सुजानपुर से लड़ने को ज्यादा तैयार नही थे। सुजानपुर उनपर अन्तिम क्षणों में थोपा गया था। चर्चा तो यहां तक है कि दिल्ली में वीरभद्र सिंह की भाजपा के दो बड़े नेताओं से एक बैठक हुई थी और उस बैठक में धूमल और उनके निकटस्थों को हराने की पुख्ता योजना तैयार की गयी थी। इसी योजना के तहत कांग्रेस ने हमीरपुर में कमज़ोर उम्मीदवार दिया और बदले में भाजपा ने अर्की से विधायक गोबिन्द शर्मा का टिकट काटा। क्योंकि अब जिस तरह के परिणाम सामने आये हैं उससे यह माना जा रहा है कि वीरभद्र के मुकाबले में भाजपा से गोविन्द शर्मा ही होते तो शायद वीरभद्र की जीत भी आसान नहीं होती। ऐसे में जहां एक ओर इस तरह की संभावनाओं की अब चर्चा हो रही है वहीं पर यह सवाल और गंभीर हो रहा है कि धूमल और उनके निकटस्थ चुनाव कैसे हार गये?
अब जिस तरह से धूमल और उनके लोगों की हार सामने आयी है उससे इस दौरान सोशल मीडिया में आये ओपीनियन पोलज़ की ओर ध्यान जाना स्वभाविक है। क्योंकि सारे चैनल्ज़ के ओपीनियन पोल में भाजपा को इतनी सीटें नही दी जा रही थी जो बाद में इन चैनल्ज़ ने एग्जिट पोल में अपने ओपीनियन पोलज़ को स्वतः ही नकार दिया। आखिर ऐसा कैसे संभव हुआ इसका कोई सर्वस्वीकार्य उत्तर नही मिल रहा है। बल्कि अक्तूबर के अन्तिम सप्ताह में हुए एक ओपीनियन पोल में तो विधानसभा क्षेत्र वार यहां तक बता दिया गया कि कहां कितने मतों से हार जीत होगी। इस ओपीनियन पोल में कांग्रेस को 21 ही सीटें दी गयी थी। भाजपो को 41 सीटें दी गयी थी और छः सीटों पर ’’सर्वे उपलब्ध नहीे’’ कहा गया था। अब परिणाम आने पर केवल इतना ही अन्तर आया है कि भाजपा को 41 की बजाये 44 सीटें मिल गयी लेकिन कांग्रेस 21 पर ही बनी रही है। मतदान से पहले ही इस स्तर तक मतों की गिनती कैसे संभव हो सकती है यह एक सवाल बना हुआ है। सूत्रों के मुताबिक यह पोल संघ से जुडे़ लोगों द्वारा अन्जाम दिया गया है लेकिन इस पोल में भाजपा के धूमल सहित जो बडे़ नेता अब चुनाव हारे हैं उन्हे इस पोल में हारा हुआ नही दिखाया गया है। फिर यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि संघ का अपना ही सर्वेक्षण इस कदर कैसे असफल हो सकता है।
चर्चा में रहा ये ओपीनियन पोल