अन्तः विरोधों में घिरती जयराम सरकार के लिये कठिन होती जा रही अगली राह

Created on Monday, 11 June 2018 13:30
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। 2019 में होनेे वाला लोकसभा चुनाव 2018 में भी हो सकता है इसके संकेत उभरते जा रहे हैं क्योंकि अभी हुए कुछ राज्यों के कुछ लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान में जैसे बड़े राज्यों में हुई हार से भाजपा बुरी तरह हिल गयी है। इस हार के बाद ही कुछ पूराने फैसलों पर पार्टी में पुनर्विचार हुआ है। इसमें अब 75 वर्ष से ऊपर के नेताओं को न केवल फिर से टिकट देकर चुनाव ही लड़ाया जायेगा बल्कि जीतने के बाद उन्हें मन्त्राी तक बना दिया जायेगा। इस फैसले का तो हिमाचल पर सीधा असर पड़ेगा क्योंकि पहले यह माना जा रहा था कि अब प्रेम कुमार धूमल और शान्ता कुमार चुनावी राजनीति से बाहर हो जायेंगे। लेकिन अब सबकुछ बदल गया है। लोकसभा चुनाव जीतना भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की एक तरह से व्यक्तिगत आवश्यकता बन गयी है। इसके कारण अब आम आदमी समझने लगा है। लोकसभा चुनावो में यदि पार्टी हार जाती है तो इस हार की जिम्मेदारी, मोदी, शाह और मोहन भागवत पर जायेगीं क्योंकि इन पिछले चार वर्षों में जिस तरह से वैचारिक कट्टरता को प्रचारित किया गया है उससे समाज का एक बड़ा वर्ग भाजपा के प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकल गया है। कर्नाटक चुनावों में यह सामने भी आ गया है जहां कांग्रेस को 38% और भाजपा को 36% वोट मिले हैं। भाजपा की धर्म आधारित विचारधारा का विरोध अब भाजपा के अन्दर से भी उठने लगा है। यूपी के कैराना मे हुई हार के बाद पार्टी के कुछ मन्त्रीयों औेर सांसदो ने इस पर सार्वजनिक रूप से बोलना शुरू कर दिया है बल्कि पिछले दिनों एनबीसी का एक सर्वे आया है जिसमें दिल्ली, जम्मू-कश्मीर हरियाणा, पंजाब, हिमाचल और उतराखण्ड में भाजपा को केवल छः से सात सीटें मिलती दिखायी है। बल्कि इस सर्वे के बाद तो हरियाणा में भी नेतृत्व के खिलाफ शेष के स्वर मुखर होने शुरू हुए हैं। 

इस परिदृश्य में हिमाचल का आकलन करते हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा को 2014 जैसी सफलता की दूर -दूर तक उम्मीद नही लगती क्योंकि जयराम सरकार स्वतः ही अन्तः विरोधों में घिरती जा रही है। इसके कई फैसले ऐसे आ गये है जिनसे आने वाले दिनों में लाभ मिलने की बजाये नुकसान होगा। सरकार ने आबकारी एवम् कराधान में पिछले वर्षों में सरकार का राजस्व कम कैसे हुआ है इसकी विजिलैन्स जांच करवाने का फैसला लिया है सिद्धांत रूप में यह फैसला स्वागत योग्य है। लेकिन इसमें सरकार के फैसले पर उस समय हैरानी होती है जब सरकार ने सारे नियमो /कानूनो को अंगूठा दिखाते हुए स्टडी लीव का लाभ दे दिया। यह फैसला एक व्यक्ति को अनुचित लाभ और सरकार को नुकसान पहुंचाने का है सीधे आपराधिक मामला बनता है। प्रदेश के सहकारी बैंको का 900 करोड़ से अधिक का कर्ज एनपीए के रूप में फंसा हुआ है। पांच माह में इस कर्ज को वापिस लेने के कोई ठोस कदम नही उठाये गये। उल्टा सरकार को मई में सीधे 700 करोड़ का कर्ज लेना पड़ा है और जून में राज्य विद्युत बोर्ड की कर्ज सीमा पांच हजार करोड़ से बढ़ाकर सात हजार करोड़ कर दी गयी। भ्रष्टाचार के खिलाफ भी यह सरकार अपनी विश्वसनीयता बनाने में सफल नही हो पायी है। इस मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में बीवरेज कारपोरेशन को भंग करके उसमें हुए राजस्व के नुकसान की विजिलैन्स जांच करवाने का फैसला लिया गया था। पांच माह में यह मामला विजिलैन्स में पहुंच जाता, ऐसा नही हो पाया है। क्योंकि जिन अधिकारियों पर इसकी गाज गिरेगी वही आज सरकार चला रहे हैं। अब सरकार ने विदेशों से मंगवाये गये सेब के पौधों में पाये गये वायरस के कारण हुए नुकसान की जांच करवाने का भी फैसला लिया है। यह जांच होनी चाहिये लेकिन क्या इसी विभाग में घटे करोड़ो के टिशू कल्चर घोटाले की जांच भी करवायेगी। इसी विभाग के अधिकारी डा. बवेजा के एक मामले में तो डीसी सोलन का पत्र ही बहुत कुछ खुलासा कर देता है क्या उसकी भी जांच सुनिश्चित की जायेगी। ऐसे कई विभागों के दर्जनों मामलें हैं जिनमें राजस्व का सीधा-सीधा नुकसान हुआ है। लेकिन सरकार तो उन अधिकारियों को पदोन्नत कर रही है जिन्हें अदालत ने भी दंडित करने के निर्देश दे रखे हैं। आने वाले दिनों में यह सब बड़े मुद्दे बनकर सामने आयेंगे और सरकार से जवाब मांगा जायेगा।
सुचारू शासन के नाम पर मुख्यमन्त्री के अपने ही चुनाव क्षेत्र में कई दिनो तक लोग एसडीएम कार्यालय के मुख्यालय को लेकर आन्दोलन करते रहे। मुख्यमन्त्री के तन्त्र और सलाहकारों ने इस आन्दोलन के पीछे धूमल का हाथ बता दिया और यह चर्चा इतनी बढ़ी कि धूमल को यह ब्यान देना पड़ा कि सरकार चाहे तो सीआईडी से इसकी जांच करवा ले। अब शिमला और प्रदेश के अन्य भागों में पेयजल संकट सामने आया। शिमला में उच्च न्यायालय से लेकर मुख्यमन्त्री और मुख्य सचिव को स्थिति का नियन्त्रण अपने हाथ में लेना पड़ा। यहां यह सवाल सवाल उठता है कि ऐसा कितने मामलांें में किया जायेगा और जो हुआ है उसका प्रशासन पर असर क्या हुआ है तथा इसका जनता में सन्देश क्या गया। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस पर मुख्य सचिव मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव और अतिरिक्त मुख्यसचिव पर्यटन को कुछ पत्रकारों को बुलाकर चर्चा करनी पड़ी है। इसके बाद मुख्यमन्त्री ने भी पत्रकारों के एक निश्चित ग्रुप से ही इस पर चर्चा की। यही नहीं अब जब पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने शिमला में एक पत्रकार वार्ता संबोधित की उसमें भी कुछ चुने हुए पत्रकारों को बुलाया गया। इससे भी यही संकेत गया है कि शीर्ष प्रशासन से लेकर मुख्यमन्त्री और भाजपा का संगठन भी पत्रकारों को विभाजित करने की नीति पर चलने लगा है। जिसका दूसरा अर्थ यह है कि अभी से कुछ पत्रकारों के तीखे सवालों का सामना करने से डर लगने लगा है। लेकिन यह भूल रहे हैं कि पत्रकार जनता को जवाबदेह होता है सरकार और प्रशासन के सीमित वर्ग को नही।
आज पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क से समर्थन की रणनीति अपनायी है और हिमाचल में सरकार और पार्टी इस संपर्क की सबसे बड़ी कडी पत्रकारों में विभाजन की रेखा खींचकर जब आगे बढ़ने का प्रयास करेगी तो इसके परिणाम कितने सुखद होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे ही अब तक के पांच माह के कार्यकाल में अपने होने का कोई बड़ा संदेश नही छोड़ पायी है। आज यदि कोई व्यक्ति कुछ मुद्दों पर जनहित के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा दे तो स्थितियां और गंभीर हो जायेंगी। शिमला में पानी के संकट के बाद नगर निगम में मेयर और डिप्टी मेयर के खिलाफ बगावत के स्वर उभरने लग पड़े है। जो अन्ततः संगठन की सेहत के लिये नुकसानदेह ही सिद्ध होंगे। पूर्व सांसद सुरेश चन्देल भी अपने तेवर जग जाहिर कर चुके हैं। सचेतकों को मन्त्री का दर्जा देने के विधेयक को राज्यपाल से स्वीकृति मिल चुकी है लेकिन यह नियुक्तियां अभी तक नही हो पायी है। निश्चित है कि जब इस विधेयक पर अमल किया जायेगा तो इसे उच्च न्यायालय मे चुनौती मिलेगी ही और वहां इस विधेयक को अनुमोदन मिलने की संभावना नही के बराबर है। सूत्रों की माने तो यह विधेयक लाये जाने से पूर्व हाईकमान से भी राय नहीं ली गयी है। इस तरह अब तक सरकार अपने ही फैसलों के अन्तः विरोध में कुछ अधिकारियों और अन्य सलाहकारों के चलते ऐसी घिर गयी है कि इससे सरकार का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। हाईकमान ऐजीन्सीयों के माध्यम से इस पर पूरी नजर बनाये हुए है। ऐजैन्सीयां शीघ्र ही यह रिपोर्ट देने वाली हैै कि प्रदेश से लोकसभा की कितनी सीटों पर इस बार जीत मिलने की संभावना है। यदि यह रिपोर्ट कोई ज्यादा सकारात्मक न हुई तो इसका असर कुछ भी हो सकता है। अवैध निर्माणों और अवैध कब्जों को लेकर केन्द्र के पास पंहुची रिपोर्ट सरकार के पक्ष में नही हैं। इसमें इस सरकार की भूमिका को लेकर भी कई गंभीर प्रश्न उठाये गये हैं। क्योंकि इनमें सरकार के कई अपने भी संलिप्त है। शीर्ष प्रशासन को इस रिपोर्ट की जानकारी है और इसी कारण से सरकार की छवि सुधारने को लेकर चर्चा की गयी है।