सुक्खु-वीरभद्र द्वन्द में फिर लगी कांग्रेस दाव पर

Created on Tuesday, 19 June 2018 11:36
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। पिछले दिनों कांग्रेस हाईकमान ने रजनी पाटिल को प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया है। इस नियुक्ति के बाद वीरभद्र सिंह ने फिर से प्रदेश अध्यक्ष सुक्खु को हटवाने की मुहिम छेड़ दी है। इस मुहिम की शुरूआत उन्होंने रजनी पाटिल के लिये प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में आयोजित की गयी पहली ही बैठक में गैर हाजिर रह कर की। इसके बाद अब प्रदेशभर में अपने समर्थकों की बैठकें करके सुक्खु के खिलाफ माहौल तैयार किया जा रहा है। इन बैठकों के पहले चरण में हमीरपुर, कांगड़ा, धर्मशाला और बिलासपुर में यह बैठकें की गयी है। इन बैठकों में पार्टी के भीतर बैठे वीरभद्र के वैचारिक विरोधियों को आमन्त्रित तक नहीं किया गया। एक प्रकार से वीरभद्र प्रदेश में समानान्तर कांग्रेस खड़ी करने की लाईन पर चल पड़े हैं। क्योंकि जिस तरह से वीरभद्र ने अपने समर्थकों की बैठकें करके हाईकमान को यह संदेश देने का प्रयास किया है कि हिमाचल में वीरभद्र ही कांग्रेस है। यदि इस दबाव के बाद भी हाईकमान सुक्खु को नहीं हटाती है तब वीरभद्र के पास पार्टी को दो फाड़ करने के अलावा कोई विकल्प शेष नही रह जाता है क्योंकि इस बार वह बहुत दूर निकल आये हैं। वीरभद्र की दबाव की राजनीति और रणनीति के आगे हाईकमान इस बार कितना झुकता है इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं। इसी दवाब की रणनीति के सहारे 1983 में वीरभद्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने थे। इसके बाद 1993 में जब सुखराम को हाईकमान का आर्शीवाद मिलने की बात तब वीरभद्र ने विधानसभा का घेराव करवाकर कुर्सी पर कब्जा किया।
इस तरह प्रदेश की राजनीति और वीरभद्र की रणनीति की जानकरी रखने वाले जानते हैं कि वीरभद्र ने जो हासिल किया है वह दवाब की राजनीति का ही परिणाम रहा है। वीरभद्र 1983 से लेकर अबतक करीब 22 वर्ष प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे हैं। लेकिन आज प्रदेश जिस स्थिति से गुज़र रहा है उसके लिये वीरभद्र बहुत हद तक जिम्मेदार रहे हैं क्योंकि जब वीरभद्र ने अप्रैल 1983 में प्रदेश संभाला था उस समय प्रदेश के पास 80 करोड़ सरप्लस था यह जानकारी 1998 में जब धूमल ने प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर श्वेत पत्र रखा था उसमें दर्ज है। आज प्रदेश का कर्ज पचास हज़ार करोड़ से ऊपर जा चुका है लेकिन यदि यह सवाल पूछा जाये कि इस कर्ज का निवेश कहां हुआ है तो शायद प्रशासन के पास कुछ बड़ा दिखाने लायक नही है। 1990 में जब शान्ता कुमार जेपी उद्योग को प्रदेश में लाये थे तब वीरभद्र ने पूरे प्रदेश में यह आन्दोनल खड़ा कर दिया था कि प्रदेश को नीजि क्षेत्रा को सौंपा जा रहा है। 1993 में सत्ता में आते ही शान्ता काल के बेनामी सौदों पर एसएस सिद्धु की अध्यक्षता में जांच बिठा दी थी परन्तु उसकी रिपोर्ट पर कोई कारवाई नही की थी। 1983 में जिस फारैस्ट माफिया के खिलाफ जिहाद छेड़कर सत्ता हासिल की थी आज उसका आलम यह है कि प्रदेश में वनभूमि पर हुए अवैध कब्जों को हटाने के लिये प्रदेश उच्च न्यायालय को कड़े आदेश जारी करने पड़े हैं। इन अवैध कब्जों में भी रोहडू का स्थान प्रदेश में पहले स्थान पर आता है। 1993 से 1998 के बीच सरकारी विभागों और निगमों में हजारां लोगों को चिट्टां पर भर्ती करने का कीर्तिमान भी वीरभद्र सिंह के ही नाम है। यदि अभय शुक्ला और हर्ष गुप्ता कमेटीयों की रिपोर्ट पर धूमल ने कारवाई की होती तो आज प्रदेश की राजनीति का स्वरूप ही कुछ और होता। वीरभद्र के शासन मेंं ही प्रदेश के सहकारी बैंकों का एनपीए ही 900 करोड़ से ऊपर हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में आज प्रदेश के रोज़गार कार्यालयों में करीब एक लाख बीएड और एमएड बेरोज़गारों के तौर पर पंजीकृत हैं और दूसरी सरकारी और प्राईवेट स्कूलों में करीब नौ हज़ार ऐसे टीचर पढ़ा रहे हैं जिनके पास जेबीटी और बी एड की कोई डीग्री ही नहीं है। प्रदेश की इस स्थिति के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार वीरभद्र ही रहे हैं।
व्यक्तिगत तौर पर भी आय से अधिक संपति मामले में जिस तरह से अभी तक वीरभद्र घिरे हुए हैं वह सबके सामने है। ईडी ने जिस तरह से वीरभद्र के साथ सहअभियुक्त बने आनन्द चौहान और वक्का मुल्ला चन्द्र शेखर को गिरफ्तार कर लिया तथा मुख्य अभियुक्त वीरभद्र को छोड़ दिया। इसको लेकर जो चर्चाएं लोगों में चल रही हैं उस पर मोदी सरकार से लेकर वीरभद्र तक किसी के पास भी कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं है। क्योंकि कल तक इस मामले को लेकर जो आरोप पूरी भाजपा लगाती रही है वह आज इस पर जुबान खोलने की स्थिति में नही है लेकिन वीरभद्र भी इस स्थिति में नही है कि वह कह सकें कि मोदी की ऐजैन्सीयों ने उनके खिलाफ झूठा मामला बनाया था और आनन्द चौहान की गिरफ्तारी एकदम गलत थी। इस परिदृश्य में जब वीरभद्र की सुक्खु हटाओ मुहिम का आकलन किया जाये तो यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यह सब करने में उनकी नीयत क्या है। क्योंकि जब किसी पार्टी की सरकार बन जाती है तब संगठन के जिम्मे उस सरकार की नीतियों और उपलब्धियों का प्रचार प्रसार रहता है। सरकार संगठन पर हावी रहती है संगठन सरकार के आगे एक तरह से बौना पड़ जाता है कम से कम कांग्रेस में तो यही प्रथा रहती आयी है। वीरभद्र सरकार का पिछला कार्यकाल उपलब्धियों के नाम पर बिल्कुल नगण्य रहा है। इस काल में कोई बड़ी परियोजना बड़े निवेश के साथ प्रदेश में नही आ पायी है। आवश्यकता से अधिक ऐसे संस्थान खोल दिये गये जिनको चला पाना किसी के लिये भी संभव नही हो पायेगा। वित्त विभाग वीरभद्र के ईशारे पर नाचता रहा और केवल कर्ज जुटाने की ही जुगाड़ में लगा रहा। भारत सरकार के मार्च 2016 के पत्र की अनदेखी करके कर्ज उठाया जाता रहा। इसलिये यह कहना गलत होगा कि संगठन ने सरकार का साथ नही दिया। बल्कि जब वीरभद्र के लोगों ने वीरभद्र ब्र्रिगेड बनाकर समानान्तर संगठन खड़ा करने का प्रयास किया था उसी समय यह स्पष्ट हो गया था कि आने वाला समय प्रदेश में कांग्रेस के लिये नुकसानदेह होने जा रहा है और वैसा हुआ भी। क्योंकि वीरभद्र पूरी तरह से कुछ स्वार्थी लोगों से घिर गये थे। आज जब राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पुनः सशक्त होने के प्रयास कर रही है जिसका संदेश कर्नाटक और उसके बाद हुए उपचुनावों के परिणामों से सामने आ चुका है। ऐसे में वीरभद्र का अपने ही संगठन में कुछ लोगों के खिलाफ मोर्चा खोलना अप्रत्यक्षतः कांग्रेस को कमज़ोर करके भाजपा को ही लाभ पंहुचाने का प्रयास माना जा रहा है। क्योंकि सुक्खु का अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल पूरा हो चुका है उनका हटना तय है। वीरभद्र इसे जानते हैं फिर भी वीरभद्र का सुक्खु विरोध सुक्खु को हटाने से ज्यादा अपनी पंसद का अध्यक्ष बनाने का प्रयास ही माना जा रहा है।