शिमला/शैल। न्यू शिमला आवासीय हाऊसिंग कॉलोनी का प्रारूप जब सार्वजनिक प्रचारित एवम् प्रसारित किया था तब यहां पर ग्रीन एरिया, पार्क और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के लिये अलग से विशेष भूस्थल चिन्हित किये गये थे। क्योंकि यह कालोनी विशुद्ध रूप से आवासीय कालोनी घोषित की गयी थी। यह प्रदेश की दूसरी आवासीय कालोनी थी जो पूरी तरह सैल्फ फाईनसिंग से वित्त पोषित थी। इसी आधार और आशय से इसका विकास प्रारूप तैयार किया था। इसी कारण से इस कॉलोनी के लिये अधिगृहित भूमि के एक-एक ईंच हिस्से की कीमत इसके आबंटितों से ली गयी है जिसमें सड़क, सीवरेज, पेयजल, ग्रीन एरिया, पार्क तथा अन्य सार्वजनिक सुविधाएं शामिल हैं। इन सारी सुविधाओं की कीमत वसूलने के कारण ही 83.84 लाख में खरीदी गयी ज़मीन आबंटितों को 9.10 करोड़ में दी गयी है। कॉलोनी में पूरी सैल्फ फाईंनैंस होने के कारण यहां की हर सुविधा पर आबंटितों का मालिकाना हक हो जाता है। कॉलोनी विशुद्ध रूप से आवासीय होगी यही खरीददारों के लिये सबसे बड़ा आकर्षण था। क्योंकि इसमें व्यवसायिक दुनिया की हलचल और शोर शराबा नही होगा। एकदम शान्त वातावरण रहेगा इसलिये यह वरिष्ठ नागरिकों की पसन्द बना।
लेकिन जब यहां पर व्यवहारिक रूप से लोगों ने प्लॉट/ मकान खरीदने बनाने शुरू किये तब आगे चल कर यह सामने आने लगा कि जो भू-स्थल ग्रीन एरिया और पार्क आदि के लिये रखे गये थे वहां पर कई जगह भू उपयोग बदल कर उसे दूसरे उद्देश्यों के लिये प्रयुक्त कर लिया गया। इस तरह भू उपयोग बदले जाने से कॉलोनी का आवासीय चरित्र ही बदल गया। जब इसके लिये ज़मीन का अधिग्रहण 1986 में किया गया तब ऐजैन्सी साडा थी। साडा बाद में बदलकर नगर विकास प्राधिकरण बन गया। फिर नगर विकास प्राधिकरण का विलय हिमुडा में हो गया और अब हिमुडा से इसे शिमला नगर निगम को दे दिया गया है। यह सारी ऐजैन्सीयां कानून की नज़र से इस कॉलोनी की ट्रस्टी हैं मालिक नही। भू उपयोग बदले जाने के जितने भी मामले घटित हुए हैं वह सब इन्ही ऐजैन्सीयों ने किये। अब नगर निगम शिमला भी यहां पर ‘‘विकास के नाम से कई निर्माण कार्य करवा रही है इस तरह के कार्यो से जब यहां का आवासीय चरित्र बदलने लगा तब आबंटितां ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया और भू-उपयोग बदले जाने के मामले सामने आने लगे। इसका संज्ञान लेते हुए आबंटितों ने वाकायदा एक अपनी रैजिडैन्ट वैलफेयर सोसायटी का सैक्टर वाईज़ गठन कर लिया और फिर सारी ईकाईयों न मिलकर एक शीर्ष संस्था का गठन कर लिया है।
इसी दौरान इन मुद्दों पर 2012 में प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर हो गयी है। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान यहां पर चल रही विभिन्न व्यवसायिक गतिविधियों की ओर से उच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित हुआ। उच्च न्यायालय ने सबंद्ध प्रशासन से इस बारे में रिपोर्ट तलब की। प्रशासन ने जब इस संबंध में जांच शुरू की तो सैकड़ो ऐसे मामले सामने आये जहां पर प्रशासन से भू उपयोग बदलने की अनुमति लिये बिना ही व्यवसायिक गतिविधियां चल रही थी। इसका कड़ा संज्ञान लेकर ऐसे भवनों के बिजली, पानी के कनैक्शन तक काटे गये। भू उपयोग बदलकर ग्रीन एरिया को पार्कांं में बदलने और इसके लिये पेड़ों को काटे जाने के तथ्य जब उच्च न्यायालय के सामने आये थे तब उच्च न्यायालय ने यहां निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबन्ध के बाद भी यहां पर दो ब्लाक बनाकर बेच दिये गये। ग्रीन एरिया में रद्दोबदल कॉलोनी के सैक्टर 1,2,3 और 4 में सामने आये हैं। यह आरोप नगर शिमला पर लगे हैं जो याचिका में प्रतिवादी नम्बर 5 हैं। इन आरोपों का संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने यह रोक लगा दी थी कि अदालत की अनुमति के बिना यहां के खाली/ग्रीन और कामन एरिया में कोई भी निर्माण न किया जाये। लेकिन नगर निगम ने यहां पर अम्रूत योजना और मर्जड एरिया ग्रांट के नाम पर मिले धन से कई निर्माण कार्य शुरू करवा रखे हैं। इन सारे कार्यो को ठेकेदारों के माध्यम से करवाया जा रहा है। निगम ने इन कार्यों की बाकायदा सूचियां अदालत में दे रखी हैं। अब अदालत के आदेश से बन्द किये गये इन कार्यों को पुनः शुरू करवाने के लिये उच्च न्यायालय में गुहार लगा रखी है।
नगर निगम पर आरोप है कि उसने भू-उपयोग को बदला है निगम द्वारा कार्यों की सूची अदालत में रखना कानून की नज़र में इस आरोप को स्वतः ही स्वीकार करना बन जाता है यदि उच्च न्यायालय निगम को यह कार्य पूरे करने की अनुमति दे देता है तो इसका अर्थ यह होगा कि अदालत ने भी भू उपयोग बदलने की अपरोक्ष में अनुमति दे दी। दूसरी ओर याचिकाकर्ता का निगम पर आरोप है कि 1998 से लेकर आज तक निगम ने एक पेड़ तक यहां नही लगाया है। धन का दुरूपयोग किया जा रहा है। बल्कि अदालत के आदेशां की अनुपालना नही की जा रही है। जो निर्माण/विकास कार्य किये जा रहे हैं वह डवैल्पमैन्ट प्लान के अनुरूप नही बल्कि प्लान पारूप की धारा 26, 27 की अवेहलना के कारण दण्डनीय बन जाते हैं। उच्च न्यायालय में आज तक डवैल्पमैन्ट प्लान पेश नही किया गया है। ऐसे में यह और भी बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि जब प्लान ही नही है तो फिर निर्माण किस आधार पर हो रहा है। नगर निगम तो नियोजक की भूमिका में है न कि विकासिक की। फिर भू उपयोग को बदलना तो याचिकाकर्ता के अनुसार उच्च न्यायालय के भी अधिकार क्षेत्र में नही है फिर नगर निगम किसी अन्य ऐजैन्सी का तो सवाल ही पैदा नही होता। ऐसे में यदि नगर निगम भू उपयोग बदलने के लिये अधिकृत ही नही है तब तो उसके द्वारा किये गये कार्यो की सूची स्वतः ही अदालत के सामने रखना अन्ततः निगम प्रशासन के गले की फांस बन सकता है।