क्या अवैध निर्माणों पर शिमला में भी कसौली ही दोहराया जायेगा

Created on Monday, 23 July 2018 12:25
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। एनजीटी ने 16 नवम्बर 2017 को योगेन्द्र मोहन सेन गुप्ता और शिला मलहोत्रा मामलों में दिये फैसलों में स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि We hereby prohibit new construction of any kind, i.e. residential, institutional and commercial to be permitted henceforth in any part of the Core and Green/Forest area as defined under the various Notifications issued under the Interim Development Plan as well, by the State Government. इसी फैसले में यह भी कहा है किWherever unauthorised structures, for which no plans were submitted for approval or NOC for development and such areas falls beyond   the Core and Green/Forest area the same shall not be regularised or compounded. However, where plans have been submitted and the construction work with deviation has been completed prior to this judgement and the authorities consider it appropriate to regularise such structure beyond the sanctioned plan, in that event the same shall         not be compounded or regularised without payment of environmental compensation at  the rate of Rs. 5,000/- per sq. ft. in case of exclusive              self occupied residential construction and Rs. 10,000/- per sq. ft. in commercial or residential-cum-commercial buildings. The amount so received should be utilised for sustainable development and for providing of facilities in the city of Shimla, as directed under this judgement. नजीटी ने ऐसे 29 निर्देश जारी किये हैं। भविष्य के लिये इस संद्धर्भ में दो कमेटीयां गठित करने के भी निर्देश जारी किये है।
एनजीटी का यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय के 12 दिसम्बर 1996़ के फैसले और संविधान की धारा 48A और 51A (G) की पृष्ठिभूमि में आया जहां पर्यावरण की सुरक्षा के लिये सरकार और आम नागरिक दोनों के ही कुछ कर्तव्य हैं जिन्हे निभाने के लिये सभी बुरी तरह असफल रहे हैं क्योंकि यह कर्तव्य संविधान की धारा 19(एफ) को हटाकर 44वें संविधान संशोधन के बाद जोड़ी गयी धारा 300 ए के परिदृश्य में और भी गंभीर हो जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के दिसम्बर 1996 के फैसले के बाद सरकार ने वर्ष 2000 में अगस्त और दिसम्बर मे दो अधिसूचनाएं जारी की थी। इनमें नये निर्माणां पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इनमें स्पष्ट कहा गया था कि  All  Private  as      well as Government constructions are totally banned within the core area of Shimla Planning Area. Only reconstruction on old lines shall be permitted in this area with the prior approval of the State Government. इसमें कोर एरिया को परिभाषित किया गया था। सरकार की अधिसूचनाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के 1996 के फैसले की पृष्ठिभूमि में एनजीटी ने भी मई 2014 में अपनी मुहर लगाते हुए कहा कि In the meanwhile, we restrain all the Respondents and particularly the Municipal Corporation of Shimla and the Government State of Himachal Pradesh from raising or permitting any construction in the areas covered under the Notification dated 07th December, 2000.

इसी दौरान विभिन्न सरकारी विभागों और कुछ प्राईवेट लोगों ने इन अधिसूचनाओं में कुछ ढील देने का आग्रह करते हुए नये निर्माणों की अनुमतियां मांगी। लेकिन नगर निगम ने यह अनुमतियां इन विभागों को नही दी। कुछ प्राईवेट लोगों ने तो उच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया। लेकिन उच्च न्यायालय ने यह मामले एनजीटी को सौंप दिये। एनजीटी ने अपने इसी फैसले में इन आवेदनो/याचिकाओं का भी निपटारा किया है। एनजीटी ने किसी को भी अनुमति नही दी है। इन लोगों को अपने मामले इस फैसले में दिये गये निर्देशों की अनुपालना में बनाई जाने वाली निगरानी कमेटी के समक्ष रखने को कहा है। निगरानी कमेटी इन पर इस फैसले में दिये गये निर्देशों के अनुसार विचार करके अपनी सिफारिश करेंगी और फिर एनजीटी इन पर फैसला लेगा। लेकिन जहां नगर निगम के विभिन्न सरकारी विभागां को अनुमति नही दी बल्कि एक आवेदन तो जस्टिस आरएफ नरीमन का आया है और उन्हे भी अनुमति नही मिली है। वहीं पर इसी दौरान 5143 मामले अवैध निर्माणों के घट गये जिनमें से 180 मामले तो ऐसे हैं जिन्होने कभी अनुमति मांगी ही नही। यह आंकड़ा एनजीटी के फैसले में दर्ज है। ऐसे में सवाल उठता है कि इतनी बड़ी मात्रा में इतना अवैध निर्माण या उसकी जानकारी के बिना ही इसे अंजाम दिया गया है। वस्तुस्थिति जो भी रही हो यह अपने में ही एक बड़ा कांड हो जाता है। एनजीटी के फैसले के अनुसार यह 1801 अवैध निर्माण देर सवेर तोडे़ ही जाने है। बल्कि इन्ही कारणों से एनजीटी के फैसले को पहले ट्रिब्यूनल में ही रिव्यू डालकर चुनौती दी गयी। लेकिन एनजीटी ने इस रिव्यू को अस्वीकार कर दिया है। इस अस्वीकार के बाद अब सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने की बात की जा रही है। यदि एनजीटी के 165 पन्नों के फैसलें को ध्यान से देखा जाये तो यह सारा मामला ही सर्वोच्च न्यायालय के दिसम्बर 1996 के फैसले का ही विस्तारित रूप है। क्योंकि 1996 के फैसले के बाद ही 2000 में सरकार ने स्वयं अधिसूचनाएं जारी करके निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगाया और स्वयं ही अवैधताओं पर आंखे बन्द कर ली। एनजीटी में जब यह मामला आया तब फिर अदालत ने इस पर अधिकारियों की एक कमेटी गठित करे रिपोर्ट तलब की। इस कमेटी के पहले अध्यक्ष प्रधान सचिव आरडी धीमान थे जिन्हें कमेटी के सदस्यों के साथ ही मतभेद हो जाने के कारण हटा दिया गया था। फिर इसके अध्यक्ष अतिरिक्त मुख्य सचिव तरूण कपूर बनाये गये थे। इस कमेटी ने 24 मई 2017 को 20 पन्नो की रिपोर्ट सौपी है। यह रिपोर्ट भी बहुत सारे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययनों पर आधारित है।
इस सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि एनजीटी का फैसला सर्वोच्च न्यायालय सरकार की अपनी अधिसूचनाओं और फिरअधिकारियों की विस्तृत रिपोर्ट पर ही आधारित है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि एनजीटी ने तो सरकार को ही स्मरण कराया है कि शिमला को बचाये रखने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और अपनी ही अधिसूचनाओं पर अमल करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नही बचा है। अवैधताओं पर आंखे मूंदने की दोषी कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही सरकारें एक बराबर रही है। 5103 अवैध निर्माणों का जो आंकड़ा एनजीटी के सामने आया है उसमें यह भी साफ कहा गया है कि यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा हो सकता है एनजीटी ने टूटीकण्डी, संजौली, न्यू शिमला, जाखू, रिज, लक्कड़ बाजार और राम नगर आदि कई क्षेत्रों का तो विशेष रूप से उल्लेख किया है। लेकिन इन क्षेत्रों में आज भी ऐसे निर्माण जारी हैं जो फैसले के मानकों पर सही नही उतरते हैं। मालरोड़ और गंज क्षेत्र में भी ऐसे निर्माण सामने चल रहे हैं। जिन्हें फैसले के परिदृश्य में कतई अनुमति नही दी जा सकती। ऐसे निर्माणों को बीच में ही रोक देने के लिये फैसले के अनुरूप प्रशासन अधिकृत है भले ही उनके प्लान को अनुमति प्राप्त रही हो। प्रशासन फैसले पर अमल करने की बजाये राजनीतिक दबाव में अपील में जाने की नीति पर चल रहा है। इससे कुछ दिनां का समय तो अवश्य मिल सकता है लेकिन यह तय है कि सर्वोच्च न्यायालय इन अवैधताओं को अनुमति नही देगा। यह अवैध निर्माण अन्ततः गिराने ही पडेंगे।