विभाग और मन्त्री को नज़रअन्दाज करके मुख्यसचिव ने झारखण्ड से बुलाया डैपुटेशन पर एक अधिकारी

Created on Monday, 01 October 2018 08:54
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। सरकार में सरकारी कामकाज निपटाने के लिये वाकायदा रूलज़ ऑफ बिजनेस बने हुए हैं और यह सदन से भी पारित है। इन नियमों में सरकार की हर कर्मचारी एवम् अधिकारी की कार्य शक्तियां परिभाषित हैं। इन नियमों के अतिरिक्त हर विभाग में इस आश्य का एक स्टैण्डिंग आर्डर भी रहता है। इसमें स्पष्टतः परिभाषित रहता है कि विभाग से संबंधित किस विषय का निपटारा सचिव के ही स्तर पर हो जायेगा और किस विषय में मन्त्री के स्तर पर ही फैसला होगा तथा कौन सा विषय मुख्यमन्त्री या मन्त्री से जायेगा। इन शक्तियों का सामान्यत अतिक्रमण नही किया जाता है और अतिक्रमण को शक्तियों के दुरूपयोग और भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाती है।
फिर जब ऐसा अक्रिमण जब मुख्य सचिव के स्तर पर हो जाये तो उसे क्या कहा जायेगा। अभी कुछ दिन पहले सहकारिकता विभाग में एक महिला अधिकारी झारखण्ड सरकार से डैपुडेशन पर शिमला पंहुच गयी। शिमला पंहुच कर महिला अधिकारी ने विभाग में जाकर जब ज्वाईनिंग देने के लिये संपर्क किया तो विभाग हैरान हो गया कि यहां पर दूसरे राज्य से अधिकारी की सेवाएं लेने की आवश्यकता क्यों और कैस पड़ गयी। जब विभाग में इसकी पड़ताल की गयी तब पता चला कि विभाग की ओर से ऐसा कोई आग्रह झारखण्ड सरकार को गया ही नही है तो फिर यह महिला अधिकारी बतौर सहायक पंजियक झारखण्ड से पदमुक्त होकर शिमला कैसे आ गयी। पता करने पर यह सामने आया कि इस महिला का पति प्रदेश के पुलिस विभाग में बतौर डीआईजी कार्यरत है और उसने अपनी पत्नी को शिमला लाने के लिये मुख्य सचिव से आग्रह किया था। मुख्य सचिव ने इस आग्रह पर अपने ही स्तर पर झारखण्ड सरकार को पत्र भेज दिया जिसके परिणामस्वरूप वहां की सरकार ने इस महिला अधिकारी को पदमुक्त करके शिमला भेज दिया। अब इस महिला अधिकारी श्रीमति जलाल को विभाग में ज्वाईन करवाने को लेकर समस्या खड़ी हो गयी है।
सहकारिता विभाग में 2013 को जारी हुए स्टैण्डिंग आर्डर के मुताबिक विभाग से किसी को डैपूटेशन पर भेजने और विभाग में किसी को डैपुटेशन पर लेने का फैसला लेने के लिये केवल संबंधित मन्त्री ही अधिकृत हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि मुख्यसचिव ने विभाग और उसके मन्त्री को बाईपास करके अपने ही स्तर ऐसा फैसला कैसे ले लिया? क्या मुख्यसचिव की नजर में विभाग के मन्त्री की कोई अहमियत नही है। जबकि यही मुख्यसचिव जब वीरभद्र शासन में नज़रअन्दाज हुए थे तब कैट में यही याचिका लेकर गये थे कि कार्मिक विभाग का प्रस्ताव नियमों के विरू़़द्ध है। वैसे तो दिल्ली के ऐम्ज़ में रही तैनाती के दौरान भी इन पर अपने पद के दुरूपयोग का मामला अभी तक चल रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जो अधिकारी एक डैपुटेशन के मामले में उन शक्तियों का प्रयोग कर जाये जो नियमों में उसके पास है ही नही तो ऐसा अधिकारी अपनी शक्तियों का दुरूपयोग किस स्तर तक कर सकता है इसकी कल्पना करना भी भयावह लगता है। यह अधिकारी प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में सदस्य के खाली पद के लिये आवेदक है। यह भी चर्चा है कि प्रदेश में रेरा की स्थापना भी इन्ही को वहां समायोजित करने के लिये की जा रही है। जबकि एनजीटी के आदेश के मुताबिक अब प्रदेश में अढ़ाई मंजिल से अधिक निर्माण हो ही नही सकता है। इस परिदृश्य में प्रदेश में कोई भी बिल्डर कितना निवेश करने को तैयार होगा। वैसे जब इस स्तर का अधिकारी किसी विभाग के मन्त्री को नज़र अन्दाज कर जाये तो इससे मन्त्री और मुख्यमन्त्री के बीच भी संबंधों को लेकर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। वैसे जब चौधरी वीरभद्र शासन में नज़रअन्दाज होने से आहत होकर स्वयं स्टडीलीव पर चले गये थे तब इन्होने जाने से पहले वाकायदा सरकार को बांड भरकर दिया था। लेकिन जब छुट्टी स्थगित करके वापिस आ गये थे तब इस बांड की रिक्वरी के लिये कार्मिक विभाग ने जो कारवाई शुरू की थी वह अब तक लंबित चली आ रही है। बांड के मुताबिक इन्हें सरकार को करीब पांच लाख रूपये देने हैं। अब क्या जयराम बतौर मुख्यमन्त्री इस पांच लाख की रिकवरी को अन्जाम देते हैं या नही इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है।