शिमला/शैल। पूर्व मन्त्री और जुब्बल कोटखाई के विधायक नेरन्द्र बरागटा को पिछले दिनों भाजपा विधायक दल का मुख्य सचेतक नियुक्त किया गया है और उन्होने यह ग्रहण भी कर लिया है। इस पद ग्रहण के बाद उन्होने अपने समर्थकों की एक रैली आयोजित करके मुख्यमन्त्री जयराम का धन्यवाद भी किया है। जयराम सरकार ने बजट सत्रा के दौरान एक विधेयक लाकर मुख्य सचेतक और उप मुख्य सचेतक को मन्त्री के ही समकक्ष वेतन भत्तेेेे एवम् अन्य सुविधाएं दे दी हैं। बरागटा को सचिवालय में कार्यालय भी दे दिया गया है। अब धन्यवाद मिलने के बाद जयराम ने बरागटा को सरकार के जनमंच कार्यक्रम सचिवालय स्तर पर कोआरडिनेटर भी लगा दिया है। सरकार में सचेतक मुख्य सचेतक या उप मुख्य सचेतक के नाम से कोई पद सृजित नही है। संविधान में मुख्यमन्त्री से लेकर उपमुख्यमन्त्री तक के पद परिभाषित है। इन पदों के अधिकार और कर्तव्य भी परिभाषित हैं लेकिन सचेतक की सरकार में कोई भूमिका नही है। सरकार में उसका न ही कोई अधिकार है और न ही कोई कर्तव्य। सचेतक केवल एक पार्टी के विधायक दल का पदाधिकारी है। इसलिये वेतन भत्तों का जो विधेयक पारित किया है उसमें सचेतक के अधिकारों और कर्तव्यों का भी कोई उल्लेख नही है। इस तरह मुख्य सचेतक को अपने विधायक दल का कर्तव्य निभाने के लिये सरकार की ओर से मन्त्री के बराबर वेतन भत्ते एवम् अन्य सुविधायें दिया जाना एक चर्चा का विषय बनकर उभरा है। अब सरकार ने जो जन मंच का कार्यक्रम शुरू किया है वह भी सरकार में कोई अलग से विभाग नही है। इस कार्यक्रम के तहत भी जो शिकायतें आयेंगी और जिनका मौके पर ही निपटारा नही हो पायेगा उनका सचिवालय स्तर पर समन्यव करेंगे। लेकिन इनमें भी अपने स्तर पर वह कोई योगदान नही कर सकेंगे। यह काम एक मन्त्री स्तर के व्यक्ति की बजाये सचिवालय का साधारण सहायक भी कर सकता था। इस तरह बरागटा को सचिवालय में कार्यालय देने को जायज ठहराने का प्रयास किया गया है। क्योंकि समन्वयक के लिये कोई अलग से वेतन भते नही हैं और इस नाते वह लाभ के पद की परिभाषा के दायरे से बाहर रह सकेगा। लेकिन बतौर मुख्य सचेतक या समन्वयक संविधान के तहत कोई गोपनीयता की शपथ तो ली नही है। जबकि जन मंच के समन्वय के तौर पर उनके पास कई विभागों से जुड़े दस्तावेज आयेंगे और तब यह सवाल उठेगा कि जिस व्यक्ति का पद संविधान में परिभाषित नहीं है न ही जिसने संविधान के तहत गोपनीयता की कोई शपथ ली है उसके पास कोई भी सरकारी दस्तावेज किस अधिकार से आ सकते हैं यह सवाल देर सवेर उठेंगे ही। जैसे कि राज्यपाल के सलाहकार के पद को लेकर सवाल उठाया और तब उस पद का नाम बदल कर मीडिया सलाहकार करना पड़ा था।
बरागटा एक भले और कर्मठ व्यक्ति हैं बतौर मंत्री उनका योग्दान सराहनीय रहा है। लेकिन इस बार जब वह मंत्री नहीं बन पाए और सचेतक बनने के लिए भी उन्हें काफी प्रयास करने पड़े है। और यह सब कुछ करने के बाद भी यह आंशका बराबर बना रहेगी कि यदि इस विधेयक को उच्च न्यायालय में चुनौती मिली तो इससे नुकसान भी हो सकता है। मुख्य सचेतक और समन्वयक बनने से यह संदेश आम आदमी में जाता है कि पार्टी के भीतर सब कुछ ठीक नही चल रहा था। कभी भी कोई भी बड़ा विस्फोट घट सकता है। इस तरह के प्रयासों से उस संभावना को कन्ट्रोल करने की कवायद की गई है। लेकिन मंत्री और सचेतक के बीच जो पद प्रतिष्ठा का अन्तराल है क्या उसकी टीस ऐसे प्रयासों से कम हो पायेगी- शायद नही। क्योंकि जिन लोगों को मंत्री रह चुकने के बाद अब इन पदों पर अपना आत्म सम्मान दांव पर लगाना पड़ा है वह हर समय इस ताक में रहेंगे कि कब उनको कुछ और करने का मौका मिले। विधानसभा के पिछले सत्र में धवाला ने जिस तर्ज और मुद्रा में सरकार से कई कुछ असहज सवाल पूछे थे। इसी का परिणाम है कि वह योजना के उपाध्यक्ष बन पाये हैं। यह पद मुख्य सचेतक से हर तरह से बेहतर है क्योंकि इसको लेकर शायद कोई संवैधानिक सवाल न उठें।