अफसरशाही के भरोसे हुई जयराम सरकार

Created on Tuesday, 30 October 2018 05:53
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। क्या मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर पूरी तरह अफसरशाही के चक्रव्यूह में फंस चुके हैं? यह सवाल पिछले कुछ अरसे से सचिवालय के गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। कहा जा रहा है कि इस सरकार को अधिकारियों का एक ग्र्रुप विशेष ही चला रहा है। इन अधिकारियों की राय मुख्यमन्त्री के घोषित फैसलों पर भी भारी पड़ रही है। इस चर्चा को हवा देने के लिये सबसे पहला उदाहरण बीवरेज कॉरपोरेशन प्रकरण का दिया जा रहा है। धर्मशाला में जयराम मन्त्रीमण्डल की हुई पहली बैठक में बीवरेज प्रकरण पर जांच बिठाने का फैसला लिया गया था। लेकिन उस दिन मन्त्री परिषद के सामने जो ऐजैन्डा रखा गया था उसमें यह विषय ही नही था। कहते हैं कि बैठक खत्म होने के बाद एक अधिकारी ने मुख्यमन्त्री के सामने यह मामला रखा और इस पर जांच का फैसला करवा दिया। लेकिन इस फैसले पर विजिलैन्स अब तक कोई कारवाई नही कर पायी है। शायद अब उस अधिकारी की इसमें रूची नही रह गयी है।
इसके बाद जब दिव्य हिमाचल के शिमला स्थित ब्यूरो प्रमुख की अचानक मौत हो गयी थी तब मुख्यमन्त्री ने मृतक के परिवार को आश्वासन दिया था कि पत्रकार की विधवा को सरकार नौकरी देगी। इसके बारे में कई बार मुख्यमन्त्री इस संबंध में उनको मिलने गये पत्रकारों को भी यह कह चुके हैं कि यह नौकरी दी जायेगी। लेकिन ऐसा अभी तक हो नही सका है। क्योंकि अधिकारी ऐसा नही चाहते हैं और इसीलिये उनके निमय कानून मुख्यमन्त्री की सार्वजनिक घोषणा पर भारी पड़ रहे हैं। यही नही सरकार के निदेशक लोकसंपर्क ने प्रदेश के साप्ताहिक समाचार पत्रों के संपादकां से विभाग में एक बैठक भी की थी। इस बैठक में साप्ताहिक पत्रों की समस्याओं पर विस्तार से चर्चा हुई थी और कहा गया कि एक माह में इस पर अमल हो जायेगा। लेकिन अभी तक ऐसा हो नही पाया है। बल्कि सरकार ने सारे विभागों/निगमों/बोर्डों को पत्र लिखकर यह प्रतिबन्ध लगा दिया है कि उनके स्तर पर कोई विज्ञापन नही दिये जायेंगे। विज्ञापन देने का काम लोक संपर्क विभाग ही करेगा। विभाग कुछ गिने चुने दैनिक पत्रों को ही फीड कर रहे हैं। प्रदेश के साप्ताहिक पत्रों को विज्ञापनों से बाहिर ही कर दिया गया है। ऐसा इसलिये किया गया है ताकि जनता के सामने सरकार की सही तस्वीर रखने वालों को दबाव में लाया जा सके। राजनीति की जानकारी रखने वाला तो कोई ऐसा फैसला ले नही सकता। क्योंकि ऐसे फैसले घातक होते हैं। इस तरह का काम कोई अधिकारी ही कर सकता है। लेकिन यहां पर बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि मुख्यमन्त्री और उनका मीडिया सलाहकार इस संबंध में एकदम अप्रसांगिक हो गये हैं। अफसरशाही के खेल के आगे मौन हो गये हैं।
अफसरशाही कैसे राजनीतिक नेतृत्व पर भारी पड़ रही है इसका सबसे बड़ा प्रमाण दीपक सानन के स्टडीलीव प्रकरण में सामने आया है। सानन ने अपने प्रतिवेदन में स्वयं स्वीकारा है कि स्टडीलीव समाप्त होने के बाद तीन साल का सेवा काल शेष होना चाहिये लेकिन सानन ने ओपी यादव, विनित चौधरी और उपमा चौधरी को दी गयी स्टडीलीव का हवाला देते हुए उसी आधार पर उन्हें स्टडीलीव देने की मांग की। कार्मिक विभाग ने पूरे तर्को के साथ सानन के प्रतिवेदनां पर विस्तृत विचार करते हुए उनके आग्रह को अस्वीकार कर दिया। लेकिन सानन इस अस्वीकार के बाद भी बराबर सरकार को प्रतिवेदन भेजते रहे। अन्ततः यह मामला 1.2.18 को मुख्य सचिव द्वारा मुख्यमन्त्री को भेजा गया। जब यह मामला मुख्यमन्त्री के पास 6.2.18 को आया इस फाईल पर कार्मिक विभाग के सारे तर्क उपलब्ध थे। यही नही वीरभद्र सरकार ने किस आधार पर इसे अस्वीकार किया था यह भी फाईल पर था। बल्कि सानन ने अपने प्रतिवेदन में जिस तरह से चौधरी दम्पत्ति का जिक्र किया है उसी से स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें भी स्टडीलीव गलत दी गयी है। लेकिन मुख्यमन्त्री जयराम ने इस पर कोई भी सवाल उठाये बिना ही इस पर दस्तख्त कर दिये। जो मुख्य सचिव ने कहा उसी को यथास्थिति मान लिया। इन्ही प्रकरणों से अब यह चर्चा उठी है कि मुख्यमन्त्री ने सब कुछ अधिकारियों पर छोड़ दिया है। अफसरशाही को दी गयी इस छूट के परिणाम क्या होंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।