राजीव बिन्दल मामले की वापसी के बाद भ्रष्टाचार पर सरकार की नीयत और नीति सवालो मेें

Created on Tuesday, 29 January 2019 09:46
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। विधानसभा अध्यक्ष राजीव बिन्दल जब 1999 में नगर परिषद सोलन के चेयरमैन थे तब वहां पर कुछ कर्मचारियों की भर्ती हुई थी। इन भर्तीयों में नियमों कानूनों की अनदेखी और भ्रष्टाचार के आरोप उस समय लगे जब बिन्दल प्रदेश विधानसभा में चुनकर आ गये। बिन्दल के खिलाफ जब यह मामला बना था प्रदेश में वीरभद्र सरकार थी। उसके बाद 2007 में धूमल की सरकार आयी। इस सरकार में भी यह मामला अन्तिम अंजाम तक नही पहुंचा। धूमल सरकार में भी मामला वापिस लेने का प्रयास किया गया और इसके लिये विधानसभा अध्यक्ष ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए

मामला चलाने की अनुमति नही दी। इसके बाद फिर वीरभद्र की सरकार आयी। इस सरकार के दौरान जब विधानसभा अध्यक्ष द्वारा अनुमति न दिये जाने का मामला अदालत के समक्ष आया तब अदालत ने विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को अस्वीकार कर दिया। इस अस्वीकार के बाद अदालत की कारवाई जारी रही लेकिन मामले में फैसला नही आ पाया। केवल अभियोजन पक्ष की गवाहियां वाला पक्ष ही पूरा हो पाया था। इसी दौरान फिर सरकार बदल गयी। जयराम ठाकुर के नेतृत्व मे भाजपा की सरकार बन गयी और फिर इस मामले को वापिस लेने के लिये प्रक्रिया शुरू हो गयी। इस मामले की अदालत मे पैरवी कर रहे सरकारी वकीलों की राय भी इसे वापिस लेने को लेकर अलग -अलग थी। जयराम सरकार ने दो बार इसमें तबादले के नाम पर वकील बदले। इस प्रकरण में बिन्दल के साथ दो दर्जन अन्य लोग भी आरोपी थे। जब बिन्दल का मामला वापिस लेने के लिये अदालत में आग्रह गया तब इन अन्य अभियुक्तों का संद्धर्भ भी उठा। अन्ततः सरकार को इन लोगों का मामला वापिस लेने के लिये भी अदालत से आग्रह करना पड़ा और फिर बिन्दल सहित सभी के खिलाफ मामला वापिस हो गया।
सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार के मामले वापिस लिये जाने के बड़े सख्त दिशा-निर्देश सरकार से लेकर अदालत तक को जारी कर रखे हैं। इसमें यहां तक कहा गया है कि यदि कोई मामला अदालत में जाकर असफल हो जाता है और उसमें नामजद अभियुक्त छूट जाता है तो ऐसे मामलों में यह देखा जाये कि मामलों में सरकारी वकील की पैरवी में कमी रही है या फिर जांच ऐजैन्सी की जांच में कमी के कारण अभियुक्त छूटा है। इसमें जिसकी भी कमी के कारण मामला असफल हुआ हो उसके खिलाफ विभागीय कारवाई किये जाने के निर्देश हैं। इसीलिये अदालत में गये हुए मामले को वापिस लेने की जिम्मेदारी पैरवी कर रहे वकील की ही रहती है। इसमें सरकारी वकील को ही अदालत से यह आग्रह करना पड़ता है कि मामले का अदालत में सफल होना संभव नही होगा। इसमे स्पष्ट कहा गया है कि सरकारी वकील शुद्ध रूप से अपने विवेक से काम करे न कि सरकार के दबाव में। यही नही मामले की सुनवाई कर रही अदालत को भी यह हक हासिल रहता है कि वह सरकारी वकील के आग्रह को अस्वीकार कर सकता है। इस मामले में अब सरकारी वकील ने अदालत से यह आग्रह किया है कि जब नगर परिषद सोलन में यह भर्तीयां हुई थी तब भर्तीयों के लिये वहां पर कोई ठोस नियम ही नही थे। अदालत ने इस आग्रह को स्वीकारते हुए मामला वापिस लेने की अनुमति दे दी।
ऐसे में यह सवाल उठते है कि जब विजिलैन्स ने यह मामला दर्ज किया था क्या तब उन्होंने यह नही देखा कि इसमें किन नियमों की अनदेखी हुई? फिर जब विजिलैन्स जांच पूरी कर लेने के बाद चालान तैयार करती है तब उस चालान का निरीक्षण अभियोजन पक्ष करता है। क्या तब भी किसी के सामने नियम ही न होने का तथ्य सामने नही आया? फिर जब अदालत में यह चालान दायर हो गया तब इसका संज्ञान लेकर आरोप तय होते हैं और उस समय भी बचाव पक्ष अपनी दलीले रखता है। क्या तब भी किसी के सामने इतना बड़ा तथ्य नही आया? फिर आरोप तय होने के बाद अभियोजन पक्ष अपनी गवाहियां अदालत में पेश करता है। हर गवाह से बचाव पक्ष का वकील जिरह करता है क्या तब भी यह सामने नही आया कि यह तो मामला बनता ही नही है? इस मामले में तो विजिलैन्स अपना पूरा पक्ष रख चुकी थी। अब बचाव पक्ष चल रहा था। ऐसे में इस मामले में हर स्टेज पर इस गलती को पकड़ने का अवसर था जो नही पकड़ी गयी। यह गलती न पकड़े जाने के कारण इसमें नामजद रहे अभियुक्तों को करीब दो दशकों तक तो मानसिक यातना से गुजरना पड़ा है। ऐसे मे क्या अब सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार सरकारी वकील और विजिलैन्स के खिलाफ कारवाई करेगी? सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के संज्ञान लेते हुए अदालत स्वयं भी यह कारवाई कर सकती है क्योंकि उसका इतना वक्त बर्बाद हुआ है। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण होगा कि यदि सरकार कोई कारवाई नही करती है तो सीधे उसकी नीयत और नीति पर सवाल उठेंगे। वैसे तो विपक्ष की भी इसमें परख हो जायेगी कि वह भ्रष्टाचार के मामलो पर क्या रूख अपनाता है क्योंकि उसने भी अभी सरकार के खिलाफ आरोप पत्र राज्यपाल को सौंपा है।

इसी के साथ भाजपा का अपना आरोपपत्र जो विजिलैन्स के पास जांच के लिये लंबित पड़ा है क्या सरकार उस पर कारवाई कर पायेगी ? क्या अपने आरोपों की जांच को अपने ही कार्याकाल में फैसले के अंजाम तक पहुंचा पायेगी? यह सारे सवाल एकदम नये सिरे से उठने शुरू हो गये हैं। क्योंकि भ्रष्टाचर के उन्ही आरोपों को आगे बढ़ाया जाता है जिनमें किसी के साथ स्कोर सैटल करना हो। अन्यथा हर आरोप को राजनीति से प्रेरित करार देकर उसको दबाने का प्रयास किया जाता है। ऐसे मामलों में सबसे बड़ी जिम्मेदारी जांच ऐजैन्सीयों और फिर अदालत में इन मामलों की पैरवी करने वाले वकीलों की रहती है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय ने इन वकीलों के लिये स्पष्ट निर्देश जारी किये हैं बिन्दल का माला सरकारी वकील के आग्रह पर तब वापिस हुआ है जब वकील ने इस मामले के सफल होने पर सन्देह जताया है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत यह मामला जांच का बनता है कि कमजोर मामला क्यों बनाया गया शीर्ष अदालत ने साफ कहा है कि Every acquittal has to be viewed seriouesly. फिर एक बार स्व. थिंड का मामला वापिस लेने के लिये सरकार के वकील के खिलाफ लम्बे समय तक सरकार में कारवाई चली है। इसी परिदृष्य में आज एक बार फिर वैसे ही हालात सामने हैं। 

पिछले 13 सितम्बर को सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायधीश, दीपक मिश्रा और जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़ की पीठ का फैसला आया है। इसमें 321 पर विस्तार से चर्चा करने के बाद अदालत ने यह कहा है कि 

We are compelled to recapitulate that there are frivolous litigations but that does not mean that there are no innocent sufferers who eagerly wait for justice to be done. That apart, certain criminal offences destroy the social fabric. Every citizen gets involved in a way to respond to it; and that is why the power is conferred on the Public Prosecutor and the real duty is cast on him/her. He/she has to act with responsibility. He/she is not to be totally guided by the instructions of the Government but is required to assist the Court; and the Court is duty bound to see the precedents and pass appropriate orders.
In the case at hand, as the aforestated exercise has not been done, we are compelled to set aside the order passed by the High Court and that of the learned Chief Judicial Magistrate and remit the matter to the file of the Chief Judicial Magistrate to reconsider the application in accordance with law and we so direct.
The appeal is, accordingly, allowed.