शिमला/शैल। जयराम मन्त्रीमण्डल में अनिल शर्मा के त्यागपत्र और किशन कपूर के सांसद बन जाने के बाद मन्त्री के दो पद खाली हैं। लोकसभा चुनावों के दौरान मुख्यमन्त्री ने यह कहा था कि इन पदों को विधायकों की चुनावों में परफारमैन्स के आधार पर भरा जायेगा। अब लोकसभा चुनावों में भाजपा को प्रदेश के सभी 68 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली है। कांग्रेस एक भी विधानसभा क्षेत्र में जीत नही पायी है। लोकसभा चुनावों में मिली इस जीत के बाद मुख्यमन्त्री को यह फैसला लेना कठिन हो गया है कि वह किसे मन्त्री बनायें। इसीलिये उन्होंने यह कहा है कि इन पदों को भरने की जल्दी नहीं है। भाजपा को प्रदेश में लोकसभा चुनावों में पड़े कुल मतों का करीब 70ः मत हासिल हुआ है। इसमें कांग्रेस के समर्थकों ने भी भाजपा को वोट डाला है इसमें कोई शक नही है और यही दावा मुख्यमन्त्री ने किया भी है। मुख्यमन्त्री के दावे के परिदृश्य में यह देखना रोचक हो गया है कि मन्त्रीयों के पद कब तक खाली रखे जाते हैं।
इसी के साथ प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के भविष्य पर भी अस्थिरता की तलवार लटक गयी है। ट्रिब्यूनल में प्रशासनिक सदस्यों के दो पद जब से जयराम सरकार सत्ता में आयी है तभी से खाली चल आ रहे हैं। इन पदों को भरने के लिये तीन बार इन्हें विज्ञापित भी किया गया। दर्जनों अधिकारियों ने इसके लिये आवेदन किये। कई नाम कयासों में चलते रहे। अन्ततः मुख्य न्यायधीश की अध्यक्षता में चयन प्रक्रिया का अन्तिम चरण भी पूरा हो गया। इस प्रक्रिया में दो नामों मनीषा नन्दा और श्रीकान्त बाल्दी के चयन की संस्तुति भी सरकार को मिल गयी है। इस संस्तुति के बाद यह फाईल केन्द्र को जानी है लेकिन यह फाईल अभी तक केन्द्र को न जाकर मुख्यमन्त्री के अपने ही कार्यालय में अटकी हुई है। इसी बीच यह चर्चा भी बाहर आ गयी है कि संघ ट्रिब्यूनल को चलाये रखने के पक्ष में नही है। तर्क यह दिया जा रहा है कि जब भी किसी कर्मचारी के स्थानान्तरण के लिये कोई सिफारिश की जाती है तभी वह मामला ट्रिब्यूनल में पहुंच जाता है और वहां पर सिफारिश अर्थहीन हो जाती है। इसलिये जब ट्रिब्यूनल से वांच्छित लाभ ही नही मिल रहा है तब इसे चलाये रखने में क्या लाभ है। ट्रिब्यूनल के पदों को भरने के लिये जिस तरह से किसी न किसी कारण से समय आगे खींचा जाता रहा है और अब नामों की संस्तुति आने के बाद भी फाईल अब तक दिल्ली नही भेजी गयी है उससे स्पष्ट हो जाता है कि इसमें कर्मचारी हितों से हटकर कुछ है जिसके कारण सरकार कोई दो टूक फैसला नही ले पा रही है।
इसी तरह से प्रदेश के लोकायुक्त और चेरयमैन मानवाधिकार आयोग के पद भी एक लम्बे अरसे से खाली चले आ रहे हैं। मानवाधिकार आयोग में सदस्य का पद भरने के लिये वीरभद्र शासन के अन्तिम दिनों में कवायद चली थी। लेकिन यह कवायद पूरी नही हो सकी और परिणामस्वरूप आज यह दोनों शीर्ष संस्थान पूरी तरह खाली हैं। लोकायुक्त पद का सृजन शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने के लिये किया गया था। इस पद पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश या प्रदेश उच्च न्यायालय के कार्यरत या सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है। प्रदेश में आज तक जितने भी लोकायुक्त रहे हैं और उनके पास किस स्तर के राजनेताओं के खिलाफ शिकायतें आयी है तथा उन पर किस तरह की कारवाई हुई है इसका पता लोकायुक्त की वार्षिक रिपोर्टों से लग जाता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रदेश के लोकायुक्त के पास दो मुख्यमन्त्रीयों के खिलाफ शिकायतें आयी थी और इन पर हुई कारवाई लोकायुक्त कार्यालय का आकलन करने के लिये पर्याप्त है। लेकिन आज जयराम सरकार के अबतक के कार्यकाल में इन पदों को भरने की कोई कवायद ही सामने नही आयी है। वैसे तो सभी सरकारों का अबतक रिकार्ड यही रहा है कि बतौर विपक्ष सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ सौंपे अपने ही आरोपपत्रों पर स्वयं सत्ता में आने पर कभी कोई कारगर कारवाई सामने नही है। शायद जयराम सरकार भी इसमें कोई अपवाद नही बनना चाहती है इसलिये लोकायुक्त का पद भरने के लिये कोई कवायद ही शुरू नही की गयी है।