क्या प्रदेश कांग्रेस संगठन में बड़ी सर्जरी कर पायेगी

Created on Monday, 17 June 2019 12:27
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस संगठन में बड़ी सर्जरी की जायेगी यह कहा है रजनी पाटिल ने। लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद संगठन के नेताओं से हार के कारणों की दो दिन समीक्षा करने के बाद पत्रकार वार्ता को संबोधित करते हुए। पाटिल प्रदेश कांग्रेस की प्रभारी हैं इस नाते हार के कारणों का जो भी आकलन वह हाईकमान के सामने रखेंगी उसकी एक अहमियत होगी। पाटिल के प्रभार संभालने के बाद फरवरी में प्रदेश अध्यक्ष बदला गया था। सुक्खु के स्थान पर राठौर को लाया गया। फरवरी में इस बदलाव के बाद मई में लोकसभा के चुनाव ही हो गये। सुक्खु विधायक थे लेकिन राठौर ने अभी तक चुनाव ही नही लड़ा है। ऐसे में पहला सवाल यही उठता है कि चुनाव घोषणा से एक माह पहले अध्यक्ष को बदलना कितना सही था और इसमें पाटिल की बतौर प्रभारी कितनी सहमति थी। क्योंकि वीरभद्र प्रदेश विधानसभा के चुनावों से भी बहुत पहले से सुक्खु को हटाने की मांग करते आ रहे थे। बल्कि एक समय तो सुक्खु -वीरभद्र टकराव यहां तक पहंुच गया था कि वीरभद्र के कुछ समर्थकों ने तो वीरभद्र बिग्रेड तक का गठन कर दिया था। इस बिग्रेड का पूरा ढांचा राजनीतिक दल की तर्ज पर ही तैयार किया गया था। बिग्रेड में जब संगठन के कई सक्रिय नेताओं की भागीदारी सामने आयी और उसका अधिकारिक संज्ञान लिया गया तब बिग्रेड को तो भंग कर दिया गया लेकिन उसी दौरान बिग्रेड के प्रमुख ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर दिया जो शायद अबतक लंबित है। इस पृष्ठभूमि से यह स्पष्ट हो जाता है कि सुक्खु -वीरभद्र टकराव की स्थिति कहां तक पहुंच चुकी थी। अब सुक्खु को हटाने के लिये वीरभद्र, मुकेश अग्निहोत्री, आशा कुमारी और आनन्द शर्मा ने जब लिखित में संयुक्त रूप से प्रस्ताव किया और राठौर की सिफारिश की तब सुक्खु को हटाया गया।
इस तरह से वीरभद्र के दवाब में चुनाव से पहले अध्यक्ष को बदल दिया गया। नये अध्यक्ष ने फिर से कार्यकारिणी का गठन किया और राज्य से लेकर ब्लाॅक स्तर तक इतनी लम्बी लाईने पदाधिकारियों की लगा दी कि यदि यह पदाधिकारी ही अपना-अपना बूथ संभाल लेते तो भी शायद इतनी फजीहत न होती। इसका सीधा सा अर्थ है कि जो नये पदाधिकारी बनाये गये थे उनमें से कुछ तो नये अध्यक्ष की अपनी पसन्द के रहे होंगे तो कुछ उन नेताओं की पसन्द के रहे होंगे जिन्होंने नये अध्यक्ष की सिफारिश की होगी। इस तरह आज जब संगठन में सर्जरी की बात की जा रही है तब क्या सबसे पहले इस पूरी कार्यकारिणी को भंग करके एक तदर्थ कमेटी का गठन करके ब्लाॅक से लेकर राज्य स्तर तक संगठन के चुनाव करवाना ज्यादा बेहतर होगा।
इसी के साथ एक अहम सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर कांग्रेस वर्तमान स्थिति तक पहुंची ही कैसे। इसके लिये यदि आपातकाल के बाद से लेकर अबतक प्रदेश में जो कुछ घटा है उस पर नजर दौड़ाई जाये तो स्थितियां बहुत साफ हो जाती हैं। 1980 में जब प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार टूटी थी तब यहां पर विधानसभा के चुनाव न होकर बड़े पैमाने पर दलबदल से कांग्रेस की सरकार बनी थी। उस समय वीरभद्र सिंह ने इस तरह से सरकार बनाये जाने का विरोध किया था। 1980 में शुरू किया गया वीरभद्र का यह विरोध 1983 में रंग लाया जब उन्होंने राष्ट्रपति चुनावों से पहले फाॅरैस्ट माफिया को लेकर एक खुला पत्र लिखा था। इस पत्र के कारण तब ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र को मुख्यमन्त्री बनाया गया। तब से लेकर अब तक कांग्रेस में मुख्यमन्त्री के लिये किसी दूसरे नेता का नाम नही आ पाया है जबकि इसी अवधि में भाजपा में जयराम तीसरे मुख्यमन्त्री सामने आ गये हैं। 1993 में जब पंडित सुखराम सशक्त दावेदार के रूप में उभरे थे तब वीरभद्र के पक्ष -विपक्ष के समर्थकों ने विधानसभा का उग्र घेराव करके प्रदेश प्रभारी शिन्दे को वीरभद्र के नाम की संस्तुति करनी पड़ी थी। 1993 के इस घटनाक्रम को राजनीतिक विश्लेष्कों ने राजनीतिक ब्लैकमेल की संज्ञा दी थी। 1980 से लेकर अबतक का प्रदेश कांग्रेस का यह इतिहास रहा है कि जब भी कोई पायेदार नेता  कांग्रेस का अध्यक्ष बना है वीरभद्र का उसी से विरोध रहा है। संभवतः इसी कारण से प्रदेश में एक बार भी कांग्रेस सरकार रिपीट नही कर सकी है। बल्कि हर चुनाव के बाद कांग्रेस में भीतरघात के आरोप लगे और इनका ज्यादा रूख वीरभद्र की ओर ही रहा है।
स्वच्छ प्रशासन के नाम पर भी स्थिति यह रही है कि जिस फारैस्ट माफिया के खिलाफ आवाज़ उठाकर वीरभद्र मुख्यमन्त्री बने थे उनके शासनकाल में यह अपराध सबसे अधिक बढ़े और वनभूमि पर अवैध कब्जे भी सबसे अधिक उन्ही के चुनावक्षेत्र रोहडू में सबसे अधिक रहे हैं यह सब प्रदेश उच्च न्यायालय के माध्यम से सामने आया है। स्वच्छ प्रशासन पर ऐसी ही टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय के राजकुमार राजेन्द्र सिंह बनाम एसजेवीएनएल मामले में 24 सितम्बर 2018 को आये फैसले में भी सामने आयी है। यह सब शायद इसलिये हुआ है कि वीरभद्र के साये तले कोई दूसरा नेता कांग्रेस में उभर ही नही पाया। वैसे कुछ लोगों का मानना तो यह है कि वीरभद्र की नीति यह रही है कि मैं नही तो फिर मेरा परिवार अन्यथा कोई नहीं। बहुत संभव है कि यही स्थिति कई अन्य राज्यों में भी हो। इसलिये आज जहां कांग्रेस खड़ी वहां सबसे पहले उसे अपने घर में ऐसे लोगों को चिन्हित करके उन्हे बाहर का रास्ता दिखाना होगा। आज ऐसे लोगों की खोज़ करनी होगी जो सत्ता से टकराने का साहस रखते हों। क्योंकि अब कांग्रेस की सत्ता में वापसी संघर्ष से ही संभव हो पायेगी।