शिमला/शैल। हिमाचल सरकार के वरिष्ठ अधिकारी प्रधान सचिव प्रबोध सक्सेना पूर्व केन्द्रिय वित्त मन्त्री पी चिदम्बरम प्रकरण में इन दिनों सीबीसी के राडार पर चल रहे हैं। सीबीसी ने इनके खिलाफ मुकद्दमा चलाने के लिये वित्त मन्त्रालय के आर्थिक मामलों के प्रभाग को इस संद्धर्भ में अनुमति देने का आग्रह बीते 13 मई को भेजा है। स्मरणीय है कि सक्सेना 2-4-2008 से 31-7-2010 तक आर्थिक मंत्रालय में निदेशक थे। इसी अवधि में आई एन एक्स मीडिया प्रकरण घटा जिसमें इस मीडिया को 305 करोड़ का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जुटाने में दी गयी अनुमतियों में अनियमितताएं बरती जाने का आरोप है। इस प्रकरण में 15-5-2017 को सीबीआई ने एफआईआर दर्ज की थी। इसमें आई एन एक्स मीडिया, आईएन एक्स न्यूज, पीटर मुखर्जी, इन्द्राणी मुखर्जी और कार्ति चिदम्बरम के साथ वित्तमन्त्रालय के अधिकारियों को भी नामजद किया गया था। जब इस प्रकरण में जांच आगे बढ़ी तब इसमें मंत्रालय के चार अधिकारी सिन्धुश्री खुल्लर, अनुप के पुजारी, प्रबोध सक्सेना और रविन्द्र प्रसाद को दोषी पाया गया है। सीबीसी ने आर्थिक मन्त्रालय को इनके खिलाफ मुकद्दमा चलाने की अनुमति देने को कहा है।
सीबीसी जब किसी अधिकारी की सीबीआई जांच के आधार पर उस अधिकारी के खिलाफ मुकद्दमा चलाये जाने के पर्याप्त कारण मान लेता है तब संबद्ध मन्त्रालय को उस प्रकरण में मुकद्दमा चलाने की अनुमति देने का आग्रह भेजता है। इस आग्रह पर संबद्ध मन्त्रालय अपने तौर पर इसकी संतुष्टि करता है और यदि किसी कारण से मन्त्रालय और सीबीसी की राय में अन्तर आ जाये तब उस स्थिति में मामला कार्मिक विभाग को राय के लिये भेजा जाता है। आई एन एक्स प्रकरण आर्थिक मन्त्रालय से जुड़ा है। विदेशी निवेश की अनुमति देने वाला एफआई पी बी भी इसी मन्त्रालय का हिस्सा है। जिन अधिकारियों को इसमें दोषी माना गया है वह उस दौरान वहीं तैनात थे। ऐसे में इस प्रकरण में मुकद्दमा चलाने की अनुमति देना या न देना भारत सरकार के आर्थिक मन्त्रालय और कार्मिक मन्त्रालय के बीच का ही मामला है। अनुमति देने न देने का निर्णय भी सीबीसी से ऐसा आग्रह आने के तीन माह के भीतर करना होता है।
चिदम्बरम प्रकरण इस समय मोदी सरकार के लिये एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है क्योंकि यदि यह मामला सफल हो जाता है तो यह तब की कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रमाणिक तौर पर भ्रष्टता का प्रमाण पत्र बांट पायेगी। इस 305 करोड़ के विदेशी निवेश जुटाने के मामले में कार्ति चिदम्बरम को दस लाख दिये जाने का आरोप है लेकिन इस आरोप को प्रमाणित करने में इससे जुड़े अधिकारियों को दोषी प्रमाणित करना अनिवार्य हो जाता है। इसी कारण से इसमें इन अधिकारियों को नामजद करके इन्हें दोषी माना गया है। ऐसे में यदि एक भी अधिकारी के खिलाफ मुकद्दमा चलाने की अनुमति नहीं आती है तो पूरा प्रकरण असफल हो जाता है।
इस परिदृश्य में जब प्रबोध सक्सेना का मामला हिमाचल सरकार के पास अनुमति के लिये आ गया तब इसमें सवाल उठने शुरू हो गये हैं। सक्सेना इस समय प्रदेश के वरिष्ठ अधिकारी हैं और अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त अनिल खाची के छुट्टी पर जाने के बाद वित्त विभाग का कार्यभार भी उन्ही को दिया गया है। कायदे से यह मामला प्रदेश सरकार को केन्द्र को लौटा देना चाहिये था क्योंकि इसका प्रदेश सरकार के साथ कोई संबंध ही नही रहा है। लेकिन प्रदेश सरकार ने मामला लौटाने की बजाये इसमें अपनी टिप्पणीयां की हैं। सक्सेना के खिलाफ प्रदेश में कुछ नही है। वीरभद्र सरकार में भी वह महत्वपूर्ण अधिकारी रहे हैं। चिदम्बरम, वीरभद्र के वकील भी रहे हैं और सक्सेना के ससुर भी मोती लाल बोहरा का पर्सनल डाक्टर रहे हैं। इस पृष्ठभूमि को सामने रखते हुए सक्सेना का कांग्रेस नेतृत्व के प्रति झुकाव होना स्वभाविक है और बदले में कांग्रेस का भी परोक्ष/अपरोक्ष में उनकी सहायता करना बनता है। इसी कारण से यह माना जा रहा है कि केन्द्र से अनुमति का पत्र प्रदेश को भिजवाना और प्रदेश का उस पर टिप्पणी करना एक सुनिश्चित योजना के तहत हुआ है। हो सकता है कि इसी प्रक्रिया में तीन माह का समय निकल जाये और स्वतः ही यह सब कुछ खत्म हो जाये संभवतः इसी आश्य से उन्हें वित्त का कार्यभार सौंपा गया है।