ट्रिब्यूनल के बन्द होने से और लम्बा होगा न्याय का इन्तजार

Created on Tuesday, 09 July 2019 09:48
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने अन्ततः प्रशासनिक ट्रिब्यूनल बन्द करने का फैसला ले लिया है। लेकिन यह फैसला लेने में सरकार को डेढ़ वर्ष का समय लग गया है। प्रशासनिक ट्रिब्यूनल को भाजपा सत्ता में आने पर बन्द कर देगी ऐसा कोई वायदा स्पष्ट रूप से विधानसभा चुनावों के लिये जारी किये गये घोषणा पत्र में भी नही किया गया था। फिर इस डेढ़ वर्ष के समय में ट्रिब्यूनल के खाली चले आ रहे दोनों प्रशासनिक सदस्यों के पदों को भरने के लिये प्रक्रिया भी जारी रही। इसके लिये तीन बार आवेदन आमन्त्रित किये गये। अन्त में चयन पैनल ने इसके लिये नामों का चयन करके नामों की सूची प्रदेश सरकार को अगली कारवाई के लिये भी भेज दी। नामों की संस्तुति की यह फाईल कई दिनों तक मुख्यमन्त्री के कार्यालय में रही और भारत सरकार को नही भेजी गयी। यह प्रक्रिया इतने लम्बे समय तक चलाये रखने से यही संदेश जाता रहा कि सरकार ट्रिब्यूनल को बन्द करने की कोई मंशा नही रखती है। इसमें पड़े खाली पदों को प्रशासनिक अधिकारियों में से ही भरा जाना था और ऐसे ही अधिकारियों ने इसके लिये आवेदन कर रखा था। आवेदकों में कुछ सेवानिवृत और कुछ सेवारत अधिकारी थे। जिन दो अधिकारियों का अन्त में चयन हुआ था उनमें एक मुख्यमंत्री के वर्तमान प्रधानसचिव अतिरिक्त मुख्यसचिव डाॅ. बाल्दी और दूसरे पूर्व प्रधान सचिव अतिरिक्त मुख्यसचिव मनीशा नन्दा थी। यह दोनों अधिकारी मुख्यमन्त्री के विश्वस्तों में गिने जाते हैं। इन अधिकारियों को भी यह पता नही चल सका कि सरकार ट्रिब्यूनल बन्द करने जा रही है। क्योंकि यदि यह पता होता तो शायद यह लोग आवदेक ही न बनते । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ट्रिब्यूनल बन्द करने का कारण प्रशासनिक नही बल्कि राजनीतिक रहा है।
जब जयराम सरकार ने सत्ता संभाली थी तभी प्रशासनिक सदस्यों के पद खाली थे। इन खाली पदों के कारण ट्रिब्यूनल का कार्य प्रभावित होता रहा क्योंकि नियमानुसार बेंचों का गठन संभव नही हो सका। सेवारत दोनांे सदस्य न्यायिक क्षेत्र से हैं इसलिये यह दोनों जो सिंगल बैठ कर काम निपटा सकते थे इन्होने उतना ही काम किया। ऐसे में यह कहना ज्यादा तर्कसंगत नही बनता कि ट्रिब्यूनल सरकार के खिलाफ ही फैसले दे रहा था और इससे मन्त्री और दूसरे नेता खुश नही थे। बल्कि इस तरह का पक्ष लेकर अपरोक्ष में सरकार पर ही यह आक्षेप आ जाता है कि सरकार फेयर न्याय प्रक्रिया पर विश्वास न रखकर राजनीति से प्रभावित होकर चलने वाली न्याय प्रणाली चाहती थी। क्योंकि ट्रिब्यूनल बन्द करने के फैसले का सरकार का जो तर्क सामने आया है उससे यह संदेश जनता में गया है और ऐसा संदेश जाना कालान्तर में सरकार की छवि के लिये घातक ही होगा।
ट्रिब्यूनल की कार्य प्रणाली पिछले डेढ़ वर्ष से प्रभावित होती चली आ रही है क्योंकि बैंचों का गठन न होने से फैसले हो नही पाये। अब ट्रिब्यूनल से फाईलें फिर उच्च न्यायालय को जायेगी। उच्च न्यायालय में पहले ही दशकों से मामले लंबित पड़े हैं। अब ट्रिब्यूनल का काम भी उच्च न्यायालय में आने से केसों के फैसलों के लिये और समय लगेगा। अब लोगों को अपने केसों के फैसलों के लिये और लम्बा इन्तजार करना पड़ेगा। राजस्व के मामलों में भी सरकार ने एफसी अपील का काम एक समय छः अधिकारियों में बांट दिया था। सबको दो-दो जिलों का काम सौंपा गया था। लेकिन व्यवहारिक रूप से जितने दिन यह व्यवस्था लागू रही उतना समय शायद ही लोगों को फैसले मिल पाये हांे। व्यवहारिक रूप से यह फैसला गलत था और अन्त में सरकार को यह फैसला वापिस लेना पड़ा है। इसी तरह अब ट्रिब्यूनल बन्द करने के फैसले से आगे चलकर आम आदमी को व्यवहारिक रूप से कोई लाभ नही होगा। ट्रिब्यूनल की स्थापना को बहुत समय लगा है और आज जो इसकी कार्यक्षमता प्रभावित हुई है उसके लिये केवल सरकार जिम्मेदार रही है क्योंकि खाली पदों को समय पर भरा नही गया। यह स्वभाविक है कि जब पद ही नही भरे जायेंगे तो विधिवत बैंचों का गठन नही हो पायेगा और बैंच गठित न हो पाने का अर्थ है कि फैसले नही हो पाये। ऐसे में ट्रिब्यूनल को बन्द करने से आम आदमी को फैसलों के लिये लम्बे इन्तजार में डाल दिया गया है और देरी से मिला न्याय तो अन्याय के ही बराबर होता है।