प्रदेश में कानून और व्यवस्था नही अराजकता का आलम है-उच्च न्यायालय

Created on Monday, 14 October 2019 13:32
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल।  प्रदेश उच्च न्यायालय की जस्टिस त्रिलोक चौहान की एकल पीठ ने तीन अक्तूबर को पारित एक आदेश में प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था पर रोष व्यक्त करते हुए कहा है कि यहां पर कानून और व्यवस्था का स्थान अराजकता ने ले लिया है। जस्टिस चौहान ने कहा है कि This case reflects a sordid state of affairs that is existing in the State of Himachal Pradesh with regard to implementation of the orders passed by the Courts that have attained finality right up to the Hon’ble Supreme Court. जो मामला अदालत के सामने था उसमें याचिकाकर्ता ने ट्रिब्यूनल में एक मामला दायर किया था जो ट्रिब्यूनल के बन्द होने पर उच्च न्यायालय में आ गया और उच्च न्यायालय में CWP (T) No. 11484/2008 के रूप में दर्ज हो गया। उच्च न्यायालय ने इस पर 21.3.2012 को यह फैसला दे दिया।
“Consequently, the petition is allowed to the limited extent that the petitioner shall be entitled to salary of Clerk w.e.f. 1st December, 1997 to 28th February, 2004. The difference between the salary received by the petitioner and salary payable to the Clerk shall also be paid to him latest by 31st July, 2012, failing which the State shall be liable to pay interest at the rate of 9% per annum right from the year 1997 till date.” प्रदेश सरकार ने उच्च न्यायालय के इस फैसले को एल पी ए 516 of 2012 के रूप में चुनौती दे दी ओर यह एल पी ए 26.11.2013 को खारिज हो गयी। फिर सरकार ने इसमें एस एल पी दायर करके सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी। सर्वोच्च न्यायालय में भी 13.5.2015 को यह एस एल पी खारिज हो गयी और इस तरह मामले का अन्त हो गया। लेकिन 2015 में इसमें सर्वोच्च न्यायालय से आये अन्तिम फैसले के बाद भी इस पर अमल नही हो पाया है। अब इस पर अमल करवाने के लिये याचिकाकर्ता को अलग से एक और याचिका दायर करनी पड़ी है। इस पर उच्च न्यायालय ने कहा है कि There can be no doubt that in case aggrieved the State is well within its right to assail the judgments passed by the Courts. But, once the lis has attained finality right up to the Hon’ble Supreme Court, then, I see no reason why the State should not graciously implement the same, rather than driving the beneficiary of such judgment to another round of litigation by resorting to filing either an execution petition or by filing contempt petition.उच्च न्यायालय ने अदालती आदेशों के प्रति प्रशासन के इस तरह के रूख पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि The perception of “the law” as Mr. Bumble (in Oliver Twist-Charles Dickens) said “the law is a ass- a idiot” will be cemented if those entrusted and duty bound to obey the orders, fail to comply with the same. This will lead to complete anarchy and result in complete break down of law and order.
इसी के साथ खण्डपीठ ने इस आदेश की प्रति मुख्य सचिव को भी भेजने के निर्देश दिये है और कहा है कि Let a copy of this order be sent to the Chief Secretary to the Government of Himachal Pradesh for onwards circulation to all the concerned, so that the litigants are not compelled and forced to resort to another round of litigation.
उच्च न्यायालय के इन निर्देशों पर मुख्य सचिव के यहां से आगे प्रशासन में कोई निर्देश जा पाये है या नही इसकी कोई पुष्टि नही हो पायी है। लेकिन उच्च न्यायालय की इस तलख टिप्पणी के बाद यह सवाल अवश्य खड़ा हो जाता है कि प्रशासन अदालती फैसलों को लेकर इतना गैर जिम्मेदार कैसे हो गया है। क्योंकि ऐसे कई मामले है जहां पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों की आदेशों के अनुसार अनुपालना नही हो पायी है। इसमें सबसे ताजा उदाहरण राजकुमार राजेन्द्र सिंह बनाम एस जे वी एन एल मामला है। इसमें सितम्बर 2018 में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया था। फैसले के अनुसार इस पर तीन माह में अमल किया जाना था। इसमें सरकार ने राजकुमार राजेन्द्र सिंह परिवार से 12% ब्याज सहित करोड़ों रूपयों की तीन माह में वसूली करनी थी। लेकिन इस पर आज तक अमल नही हो सका है जबकि यह मामला मुख्यमन्त्री और उनके प्रधान सचिव दोनों के ही संज्ञान में है।
इसी तरह नगर निगम शिमला में भी कई मामले ऐसे हैं जिनमें निगम अपनी ही अदालत के फैसलों पर वर्षो तक अमल न करके लोगों को परेशान होने के लिये बाध्य कर रहा है। न्यू शिमला में मुख्य सड़क पर बने एक मन्दिर को वहां से हटाने के आदेश स्वयं निगम की ही अदालत ने पारित किये थे। इन पर अमल करने के लिये अपने ही तीन कर्मचारियों /अधिकारियों की जिम्मेदारी लगाई थी लेकिन इस फैसले को भी दो वर्ष से अधिक का समय हो गया परन्तु अमल नही हो पाया है। जबकि निगम की ही जमीन पर अवैध रूप से बने मन्दिर के लिये इसके ही संवद्ध अधिकारियों के खिलाफ कारवाई की जानी चाहिये थी।
यही नही हिमाचल सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टाॅलरैन्स का दावा करते हुए 31 अक्तूबर 1997 को एक रिवार्ड स्कीम अधिसूचित की थी। इस स्कीम के तहत आयी शिकायतों पर एक माह के भीतर ही प्रारम्भिक जांच किये जाने का प्रावधान रखा गया है। 1997 में अधिसूचित की गयी स्कीम आज तक चालू है लेकिन इस स्कीम के तहत दायर हुई एक भी शिकायत की प्रावधानों के अनुसार विजिलैन्स जांच नही कर पायी है। बल्कि भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर तो आलम यह है कि सार्वजनिक दिखावे के लिये तुरन्त जांच करने के ब्यान दे दिये जाते हैं परन्तु जांच होती नही है उसकी कोई रिपोर्ट पब्लिक में रखी नही जाती है। अभी पर्यटन की संपत्तियों के विनिवेश के मामले में आदेशित जांच इसका ताजा उदाहरण है। हाईड्रो काॅलेज बिलासुपर के निर्माण में न्यूनतम दर 92 करोड़ की निविदा को नजर अन्दाज करके 100 करोड़ की दर वाले को काम देकर टैण्डर में ही आठ करोड़ की चपत लग गयी। लेकिन सरकार इसमें कारवाई का साहस नही कर पा रही है। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं और इन्ही सबके कारण आज अदालत को भी यह मानना पड़ा है कि प्रशासन में अराजकता फैल चुकी है।