क्या प्रशासन निगम हाऊस को गुमराह कर रहा है या पार्षद प्रशासन पर दबाव डाल रहे है उच्च न्यायालय के आदेशों से उठी चर्चा

Created on Tuesday, 07 January 2020 09:13
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला की संपदा शाखा के अधीक्षक की पदोन्नति पर प्रदेश उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। यह रोक इसलिये लगाई गयी क्योंकि इसी अधीक्षक एवम कुछ अन्य के खिलाफ अदालत ने एक जांच के आदेश दिये हैं। स्वभाविक है कि यदि इस जांच में यह अधीक्षक दोषी पाये जाते हैं तो उनके खिलाफ दण्डात्मक कारवाई होगी क्योंकि संवद्ध मामला भ्रष्टाचार के साथ ही निगम की कार्य प्रणाली पर भी गंभीर सवाल उठता है। इस मामले की जांच से यह सामने आयेगा कि यह भ्रष्टाचार संपदा शाखा के लोगों की ही मिली भगत से हो गया या इसमें कुछ बड़ों की भी भागीदारी रही है। खलिणी की पार्किंग से जुड़े इस मामले की जांच रिपोर्ट अभी आनी है। लेकिन यह जांच रिपोर्ट आने से पहले ही अधीक्षक को पदोन्नति देना और इसके लिये मामले को निगम के हाऊस की बैठक में ले जाना तथा हाऊस द्वारा इस पदोन्नति को सुनिश्चित बनाने के लिये संवद्ध नियमों में भी कुछ बदलाव करने की संस्तुति कर देना अपने में कई गंभीर सवाल खड़े कर जाता है।
निगम के हाऊस में पदोन्नति के ऐसे मामलों को ले जाना जहां संवद्ध व्यक्ति के खिलाफ अदालत ने ही जांच करने के आदेश दिये हांे यह सवाल उठाता है कि क्या प्रशासन पर इनके लिये हाऊस के ही कुछ पार्षदों का दवाब था या प्रशासन हाऊस की मुहर लगवाकर पदोन्नति को अंजाम देना चाहता था। अदालत द्वारा किसी के खिलाफ कोई जांच के आदेश देना या किसी मामले में फैसला देना ऐसे विषय होते हैं शायद उन पर हाऊस का कोई अधिकार क्षेत्र नही रह जाता है। ऐसे मामलों में राज्य की विधानसभा या संसद तक भी दखल नही देती है। जनप्रतिनिधियों का काम तो जनता से जुड़े विकास कार्यों को आगे बढ़ाना प्रशासन द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार को रोकना या प्रशासन द्वारा किसी के साथ की जा रही ज्यादती को रोकना और संवद्ध व्यक्ति को न्याय दिलाने से होता है। क्योंकि अदालती मामलों को अदालती प्रक्रिया से ही निपटाया जाता है। यदि अदालत का जांच आदेश देना सही नही था तो उसे अदालती प्रक्रिया के तहत चुनौती दी जा सकती थी लेकिन इस तरह अदालती आदेश को अंगूठा दिखाकर संवद्ध व्यक्ति को लाभ देने का प्रयास करना तो एक तरह से अदालत की अवमानना करना ही हो जाता है।
नगर निगम में अदालत के फैसलों को दर किनार करते हुए लोगों को उत्पीड़ित करना एक सामान्य प्रथा बनता जा रहा है। एक मामले में नगर निगम अपनी ही अदालत के नवम्बर 2016 में आये फैसले पर आज तक अमल नही कर रहा है। संवद्ध व्यक्ति को मानसिक परेशानी पहंुचाने के लिये निगम के हाऊस का कवर लिया जा रहा है और हाऊस भी फैसले पर एक कमेटी का गठन कर देता है जबकि कानूनन ऐसा नही किया जा सकता। क्योंकि अदालत के फैसले की अपील तो की जा सकती है लेकिन उस पर अपनी कमेटी नही बिठाई जा सकती है। लेकिन मेयर यह कमेटी बिठाती है और इसके पार्षद सदस्य अदालत के फैसले को नजरअन्दाज करके संवद्ध व्यक्ति को परेशान करने के लिये अपना अलग फरमान जारी कर देते हैं। ऐसे कई मामले हैं जहां यह देखने में आया है कि निगम के पार्षद/मेयर कानून की जानकारी न रखते हुए किसी को पदोन्नति का तोहफा तो फिर किसी को मानसिक प्रताड़ना का शिकार बना रहे हैं। क्योंकि तीन वर्षों तक अदालत के फैसले पर किसी न किसी बहाने अमल नही किया जायेगा तो इससे बड़ी प्रताड़ना और क्या हो सकती है।
जहां निगम प्रशासन और हाऊस इस तरह से कानून/अदालत को अंगूठा दिखाने के कारनामे कर रहा है वहीं पर निगम में हुए करोड़ों के घपले पर आंखे मूंदे बैठा है। निगम के आन्तरिक आडिट के मुताबिक वर्ष 2015-16 से निगम में 15,90,43,190/- रूपये का घपला हुआ है जिस पर आज तक निगम के हाऊस ने कोई संज्ञान नही लिया है। बल्कि इसी आडिट रिपोर्ट के मुताबिक 31-12-16 को 48,27,62,231/- के विभिन्न अनुदान बिना खर्चे पड़े थे। इससे निगम और उसका प्रबन्धन विकास के प्रति कितना प्रतिबद्ध है इसका पता चलता है। आडिट रिपोर्ट में साफ कहा गया है।