अपनी ही शर्तों पर राज किया है राजा ने

Created on Saturday, 17 July 2021 18:17
Written by Baldev Shrama
कुछ संस्मरण
वीरभद्र सिंह प्रदेश की राजनीति का वह अध्याय रहे हैं जिसे पढ़े बिना प्रदेश का कोई भी आकलन संभव नहीं होगा। क्योंकि जिस व्यक्ति को 1962 में स्व. पंडित जवाहर लाल नेहरू लाये हों और 2021 तक लगातार सक्रिय राजनीति में रहा हो तथा इसी बीच केन्द्र में मन्त्री होने के अतिरिक्त छः बार मुख्यमन्त्री बना हो वह स्वतः ही अपने में एक पूरी किताब बन जाता है। राजनीति में इतना लम्बा सफर और वह भी एक ही पार्टी में रहकर जिसने तय किया हो उसे शब्दों में आंकना संभव नहीं होगा। इतने लम्बे सफर में स्वभाविक है कि सैंकड़ों उनके संपर्क में आये होंगे और हरेक के पास कहने -सुनाने के लिये अलग -अलग कथा होगी। इसीलिये तो प्रदेश के हर कोने में हर आंख उनके लिये नम है।
वीरभद्र सिंह वह राजनेता रहे हैं जिन्होंने अपनी ही शर्तो पर राजनीति की है। कोई व्यक्ति ऐसा तब कर पाता है जब उसने अपने लिये अपनी ही संहिता उकेर रखी हो। 1962 से 1977 तक वह लगातार सांसद रहे। 1977 के चुनावों से पहले केन्द्र में उपमन्त्री बने। लेकिन 1977 का लोकसभा चुनाव जनता पार्टी की लहर में मण्डी से गंगा सिंह ठाकुर से हार गये। केन्द्र से लेकर राज्यों तक सभी जगह जनता पार्टी की सरकारें बन गयी। 1980 में जनता पार्टी टूट गयी और उसी के साथ जनता पार्टी की सरकारें भी टूट गयीं। लोकसभा के लिये फिर चुनाव हुए और वीरभद्र फिर सांसद बन गये। हिमाचल में लगभग पूरी जनता पार्टी कांग्रेस में शामिल हो गयी और स्व. रामलाल ठाकुर मुख्यमन्त्री बन गये। केन्द्र में हिमाचल से विक्रम महाजन राज्य मन्त्री बन गये। वीरभद्र का चुनाव परिणाम आने से पहले ही विक्रम महाजन मन्त्री बन गये थे। हिमाचल में दलबदल से सरकार बनी थी। वीरभद्र सिंह सहित कांग्रेस जन इसका विरोध कर रहे थे। इस विरोध के लिये एक हस्ताक्षर अभियान चला जो नाहन से प्रैस में लीक हो गया। इस हस्ताक्षर अभियान के असफल होने पर वीरभद्र सिंह ने अकेले ही मोर्चा संभाला। वन माफिया के खिलाफ आवाज़ उठाई और एक लम्बा चौड़ा पत्र इस पर दाग दिया। यह पत्रा जब सार्वजनिक हुआ तो शिमला से लेकर दिल्ली तक हलचल हुई। इसी दौरान केन्द्र में स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा बगावत पर उतर चुके थे। वीरभद्र और बहुगुणा में एक-दो मुलाकाते भी रिपोर्ट हो गयी थी। कांग्रेस में टूटने के आसार बन रहे थे। इसी दौरान प्रदेश युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकताओं का एक प्रतिनिधि मण्डल स्व. इन्दिरा गांधी जी से मिला। इस प्रतिनिधिमण्डल में मेरे साथ महेन्द्र प्रताप राणा, प्रदीप चन्देल और कांगड़ा से सुमन शर्मा शामिल थे। इस प्रतिनिधि मण्डल से प्रदेश का फीडबैक लिया गया। नेतृत्व परिवर्तन की स्थिति मे नये नेता का नाम मांगा गया जिसमें सबने वीरभद्र का नाम सुझाया और कुछ समय बाद वीरभद्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री बन गये तथा रामलाल ठाकुर को राज्यपाल बनाकर भेज दिया। वीरभद्र सिंह की यह पहली लड़ाई थी जिसमें वह जीते।
इसके बाद 1993 में फिर वीरभद्र सिंह को मुख्यमन्त्री बनने के लिये लड़ना पड़ा। पंडित सुखराम दूसरे दावेदार थे। केन्द्र का समर्थन भी पंडित सुखराम के साथ था। वीरभद्र सिंह को दिल्ली बुलाया गया लेकिन वह अपने समर्थकों के साथ परवाणु से आगे नहीं गये। केन्द्र ने सुशील कुमार शिंदे को पर्यवेक्षक भेजा। विधानसभा परिसर में बैठक रखी गयी। इस बैठक में पंडित सुखराम और उनके समर्थक नहीं आये और चण्डीगढ़ बैठे रहे। यहां पर वीरभद्र समर्थकों ने विधानसभा परिसर का घेराव कर दिया। वीरभद्र सिंह को नेता घोषित करने की मांग उठ गयी। पूरी स्थिति तनावपूर्ण हो गयी थी। शिन्दे ने सी आई डी आफिस से फोन करके दिल्ली को सारी स्थिति से अवगत करवाया और अन्ततः वीरभद्र सिंह को नेता घोषित कर दिया गया। राज्यपाल के यहां अकेले वीरभद्र सिंह की शपथ हुई और इस तरह दूसरी बार मुख्यमन्त्री की लड़ाई जितने में सफल हुए।
जिस भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर वीरभद्र पहली बार मुख्यमन्त्री बने थे उस भ्रष्टाचार के खिलाफ 31 अक्तूबर 1997 को एक रिवार्ड स्कीम अधिसूचित की गयी। इस स्कीम में यह कहा गया कि इसमें आयी हर शिकायत की एक माह के भीतर प्रारम्भिक जांच की जायेगी। इस स्कीम के तहत मैंने ही 21 नवम्बर 1997 को कुछ शिकायतें दायर कर दी जिनमें एक शिकायत राज कुमार राजेन्द्र सिंह जो वीरभद्र के भाई थे उनके खिलाफ थी। इस पर किसी ने जांच का साहस नहीं किया। 1998 में सरकार बदल गयी परन्तु धूमल सरकार ने भी कुछ नहीं किया। अन्ततः मुझे उच्च न्यायालय में जाना पड़ा। इसी दौरान सागर कत्था मामला सामने आया। यह मामला भी शैल में छपा। कुछ समय बाद वीरभद्र सिंह ने मेरे खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर दिया। दो वर्ष बाद स्वतः इस मामले को वापिस भी ले लिया। लेकिन यह सब होने के बावजूद एक समय वीरभद्र सिंह ने मुझे अपने आवास होली लॉज बुलाकर कांग्रेस पार्टी का प्रवक्ता बनने का आग्रह किया। इस आग्रह के विक्रमादित्य और कुछ दूसरे लोग गवाह हैं। जिस विषय पर मैंने रिवार्ड स्कीम में शिकायत की थी और प्रदेश उच्च न्यायालय में स्वयं इस मामले की पैरवी की थी उस पर सितम्बर 2018 में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ चुका है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी मेरी बात को स्वीकार किया है। इस फैसले पर जयराम सरकार अमल नहीं कर रही है।
इस प्रसंग से पाठक यह स्वीकारेंगे कि वीरभद्र कितने बड़े थे। वह अपनी गलती को स्वीकारने का साहस रखते थे। वह योग्यता के पारखी थे और उसे अपने साथ रखने का प्रयास करते थे। आज पूरा हिमाचल इसीलिये शोक में है क्योंकि वह लोगों के दिलों पर राज करते थे। वह सही मायनों मे राजा थे। इन्ही यादों के साथ उन्हें शत् शत् नमन।