शिमला/शैल। प्रदेश में चार उपचुनाव होने है। तीन विधानसभा के लिये और एक लोकसभा के लिये। इन्हें टाला नही जा सकता है क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून में ऐसा कोई प्रावधान नही है कि उपचुनावों को एक वर्ष से भी अधिक समय के लिये टाला जा सके । विधान सभा के लिये जब पहला स्थान रिक्त हुआ था तब विधान सभा का कार्यकाल करीब दो वर्ष का शेष था। जब तीसरा स्थान खाली हुआ तब कार्यकाल करीब डेढ़ वर्ष का शेष बचा था। लोक सभा की सीट खाली होने पर तो लोकसभा का कार्यकाल करीब तीन वर्ष बाकी था। इसी कानूनी परिदृश्य में यह चुनाव टालने का एक ही रास्ता शेष रह जाता है कि फरवरी में विधानसभा भंग करके इसके लिये आम चुनाव करवाने की घोषणा कर दी जाये। उस स्थिति में भी लोकसभा के लिये तो विधान सभा के साथ ही उपचुनाव करवाना ही पडे़गा। कानून की इस स्थिति की जानकारी प्रशासन के शीर्ष स्थानों पर बैठे अधिकारियों को होना अनिवार्य है। मुख्यमन्त्री और कानून मन्त्री को भी यह ज्ञान होना ही चाहिये। कानून की इस जानकारी के परिदृश्य में राजनीतिक समझ की यह मांग हो जाती है कि उपचुनाव जल्द से जल्द करवा लिये जायें। क्योंकि पहले दो नगर निगम और फिर विश्वविद्यालय मे चुनाव हार जाने से यह संकेत स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है।
लेकिन इस व्यवहारिक स्थिति के बावजूद सरकार ने यह उपचुनाव टालने का आग्रह केन्द्रीय चुनाव आयोग का भेजा गया। इस आग्रह पर चुनाव टाल भी दिये गये। इसके लिये वाकायदा प्रदेश के मुख्यसचिव, स्वास्थ्य सचिव, डी जी पी और मुख्यनिर्वाचन अधिकारी से राय ली गई। कोरोना ,त्योहार और मौसम का आधार बनाकर उपचुनाव टालने की पुख्ता जमीन तैयार का दी गई। चुनाव आयोग ने इन अधिकारियों से उक्त फीडबैक मिलने का जिक्र करते हुये राज्य सरकार की सिफारिश मान कर उपचुनाव टालने का आदेश जारी कर दिया लेकिन जब कुछ समाचार पत्रों में कानून की स्थिति का खुलासा सामने आया तब केन्द्र से लेकर राज्य तक हड़कंप मच गया। सुत्रों के अनुसार राष्ट्रीय अध्यक्ष तक ने इस पर अपनी नाराजगी जाहिर की है। बल्कि सूत्रों का तो यह भी दावा है कि कानून मन्त्री सुरेश भारद्वाज केन्द्र की नाराजगी को ही शान्त करने दिल्ली प्रवास पर हैं। अब चार अक्तूबर को चुनाव आयोग की बैठक में इन चुनावो के लिये तारीखो की घोषणा होने की संभावना जताई जा रही हैं यदि उप चुनाव करवाने का फैसला लिया जाता है तो 15 नवम्बर तक यह चुनाव होने की संभावना है।
इस संभावित फैसले से यह सवाल जबाव मांगेंगे कि जिस कोरोना के कारण चुनाव टालने का फैसला लिया था उसी कोरोना की अक्तूबर- नवम्बर में तीसरी लहर आने की चेतावनी दी गई है। यह कहा गया है कि इससे 60000 लोग प्रभावित होंगे। इसी के साथ यह भी सामने आया है कि मुख्यमन्त्री के अपने गृह जिला मण्डी में स्कूली छात्रों और अध्यापकों में यह संक्रमण बढ़ गया है। स्वस्थ्य मन्त्री के अपने चुनाव क्षेत्र में भी बच्चो के संक्रमित होने के समाचार आ चुके हैं। इस तरह के समाचार आने के बाद भी सरकार ने स्कूल खोलने का फैसला लिया हैं। इस परिदृश्य मे अभिभावक बच्चो ं को स्कूल भेजने का जोखिम उठाने को तैयार हो जायेगे। क्या जनता मे इस फैसले से कोरोना को लेकर और भ्रम की स्थिति नही बनेगी? कोरोना के अतिरिक्त चुनाव टालने का दूसरा आधार त्योहारी सीजन को बनाया गया था। यह त्योहारी सीजन तो अब भी वैसा ही बना हुआ है। यदि त्योहारी सीजन में उपचुनावों की तारीखें आती है तो चुनाव प्रचार के दौरान चुनावी रैलियां कैसे हो पायेंगी? यह दूसरा बड़ा सवाल होगा यदि पिछली बार चुनाव टालने का फैसला न लिया जाता तो यह चुनाव इसी माह संपन्न हो जाते और सरकार सारे सवालों से बच जाती। कानूनी प्रावधानों की परवाह न करने का परिणाम यह है कि आज सरकार चुनावों को लेकर सौ कोडे़ भी और सौ प्याज भी खाने के मुकाम पर पहुंच चुकी है। क्योंकि कर्माचारियों को छः प्रतिश्त मंहगाई भत्ता देने का फैसला लेने के बाद बड़े अधिकारियो को ग्यारह प्रतिशत देने का फैसला लेना भी सरकार की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठाने वाला सिद्ध हुआ हैं। कर्मचारियों में इस पर रोष पनपने के बाद इस फैसले को भी वापिस लेना पडा हैं। जो सरकार इस तरह के फैसले लेगी उसे जनता कितना समर्थन देने को तैयार होगी इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि सरकार कोरोना को नकार कर उपचुनाव करवाने का फैसला लेती है या जनता की सुरक्षा के मद्देनजर फरवरी में आम चुनाव करवाने का फैसला करती है। इसमें सरकार सत्ता छोड़ कर चुनावों मे जाने का जोखिम नही लेना चाहती है।