लोक सेवा आयोग को लेकर आये उच्च न्यायालय के निर्देशों की अनुपालना कब होगी ? उठने लगा है सवाल

Created on Monday, 04 July 2022 04:44
Written by Shail Samachar

सर्वाेच्च न्यायालय 2013 में ऐसे निर्देश पंजाब-हरियाणा के संद्धर्भ में दे चुका है
2018 में सदस्यों के दो पद सृजित करके एक ही क्यों भरा गया?
सरकार के इसी कार्यकाल में तीसरा अध्यक्ष नियुक्त करने की स्थिति क्यों बनी
आयोग में परीक्षाओं के परिणाम निकालने में पहले की अपेक्षा अब देरी क्यों हो रही है 

शिमला/शैल।  प्रदेश लोकसेवा आयोग इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है। चर्चा के मुद्दे हैं सरकार द्वारा आयोग के सदस्यों को पैन्शन देने का फैसला लेना। इसी के साथ आयोग के पूर्व अध्यक्ष रहे के. एस. तोमर की उच्च न्यायालय में याचिका जिसमें 300 और 250 पैन्शन देने के 1974 में किये गये प्रावधान को आज के संद्धर्भ में संवैधानिक पद के साथ क्रूर मजाक करार देते हुये इसे सम्मान करने का आग्रह। इन्हीं मुद्दों के साथ उच्च न्यायालय द्वारा जनवरी 2020 में सरकार को दिये गये निर्देशों की आज तक अनुपालना न हो पाना इन निर्देशों में उच्च न्यायालय ने लोक सेवा आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक निश्चित प्रक्रिया और नियम बनाने के निर्देश/उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है  The Court said that it hopes that the State of H.P. must step in and take urgent steps to frame memorandum of Procedure,administrative guidelines and parameters for the selection and appointment of the Chairperson and Members of the Commission, so that the possibility of arbitrary appointments is eliminated.

उच्च न्यायालय ने यह निर्देश इसलिए दिये कि जो याचिका अदालत में आयी थी उसमें मीरा वालिया की नियुक्ति को अवैध करार देने के आग्रह के साथ ही एक तय प्रक्रिया और नियम बनाये जाने की गुहार लगाई गयी थी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सर्वाेच्च न्यायालय ने भी 2013 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय से अपील में शीर्ष अदालत के पास पहुंचे एक मामले में दिये गये थे। सर्वाेच्च न्यायालय के इन निर्देशों पर शायद इसीलिये अमल नहीं किया गया कि इसे पंजाब हरियाणा का ही मामला मान लिया गया। लेकिन अब जब प्रदेश उच्च न्यायालय से भी ऐसे ही निर्देश आ चुके हैं तब भी प्रदेश सरकार द्वारा उसकी अनुपालना न किया जाना जयराम सरकार की नीयत और नीति दोनों पर ही कई गंभीर सवाल खड़े कर देता है। स्मरणीय है कि जबसे प्रदेश लोकसेवा आयोग का संविधान की धारा 315 के तहत गठन हुआ है तब से लेकर आज तक इसमें सेना के लै.जनरल से लेकर प्रदेश के मुख्य सचिव डीजीपी और पत्रकार तक अध्यक्ष रह चुके हैं। सदस्यों के नाम पर भी आई.ए.एस. अधिकारियों से लेकर इंजीनियर वकील विभागों के उप निदेशक और पत्रकार तक इसके सदस्य रह चुके हैं। ऐसा इसीलिये हुआ है क्योंकि आज तक सदस्य और अध्यक्ष की नियुक्ति के लिये कोई निश्चित प्रक्रिया और नियम ही नहीं बन पाये हैं। शायद पूरे देश में ऐसा ही है इसलिये जब पंजाब हरियाणा का मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंचा था तब ऐसी ही छः याचिकाएं शीर्ष अदालत के पास लंबित थी। सर्वाेच्च न्यायालय ने तब इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए यह कहा था कि लोकसेवा आयोग राज्य की शीर्ष प्रशासनिक सेवाओं के लिये उम्मीदवारों का चयन करते हैं परंतु उनके अपने ही चयन के लिये कोई प्रक्रिया और नियम न होना खेद का विषय है। जबकि इनकी नियुक्ति तो राज्यपाल करता है परंतु इनको हटाने का अधिकार राष्ट्रपति के पास है। पर उसके लिये भी इनके खिलाफ आयी शिकायत की जांच सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा की जायेगी। सर्वाेच्च न्यायालय की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति उन्हें हटा सकता है। या विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित करके ऐसा कर सकती है। इसलिये इनकी नियुक्ति के लिये भी नियम और प्रक्रिया होना आवश्यक है। सर्वाेच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि सदस्य बनने के लिये सरकार के वित आयुक्त जितनी योग्यता होनी चाहिये। प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देशों को ही आगे बढ़ाते हुये जनवरी 2020 में जयराम सरकार को निर्देश दिये थे कि वह तुरन्त प्रभाव से यह नियम बनाये जो आज तक नहीं बने हैं। यहां यह भी समरणीय है कि जयराम सरकार ने जब सत्ता संभाली थी तब लोकसेवा आयोग में सदस्यों के दो पद सृजित किये गये परंतु उनमें से भरा एक ही। बल्कि आज तक यह पद भरा नहीं गया है। यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब दूसरा पद भरना ही नहीं था तो उसको सृजित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? जयराम सरकार के कार्यकाल में शायद अध्यक्ष की नियुक्ति भी थोड़े-थोड़े समय के लिये ही होती रही है। इसमें भी यह सवाल उठते रहे हैं कि क्या सरकार को ऐसा व्यक्ति ही नहीं मिलता रहा जो पूरे छः वर्ष के लिये अध्यक्ष रह पाता। इसमें भी सरकार की नीयत पर सवाल उठते रहे हैं। क्योंकि सरकार का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही फिर अध्यक्ष की नियुक्ति की जायेगी। एक कार्यकाल में तीन बार अध्यक्ष की नियुक्ति किया जाना एक तरह से संस्थान की प्रतिष्ठा को भी सवालों में लाकर खड़ा कर देता है। क्योंकि इससे संस्थान की कार्य संस्कृति प्रभावित हुई है। आज आयोग द्वारा ली जा रही परीक्षाओं के परिणाम निकालने में इतना समय लगाया जा रहा है जो पूर्व में नहीं लगता था। आज छः माह से लेकर एक वर्ष तक परिणाम नहीं आ रहे हैं। चर्चा है कि एच.पी.सी.एल. में ए.ई. की परीक्षा को करीब एक वर्ष हो रहा है और परिणाम नहीं आया है। एच.ए.एस. के परिणाम में ही शायद माह का समय लग गया है। आम आदमी पर इस देरी का क्या असर पड़ेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा इसीलिए हो रहा है कि सरकार उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद नियम बनाने को तैयार नहीं है। शायद अगले अध्यक्ष की नियुक्ति के बाद ही इस बारे में विचार किया जायेगा। जिस ढंग से पैन्शन का फैसला लिया गया है उससे स्पष्ट हो गया है कि मुख्यमंत्री को सलाह नहीं मिल रही है। क्योंकि पैन्शन का फैसला तो आयोग के गठन के साथ ही ले लिया गया था। 1974 के 300 रूपये की आज क्या कीमत होगी यह कोई भी अनुमान लगा सकता है। फिर ब्रिगेडियर एल.एस.ठाकुर को अदालत पैन्शन का लाभ दे ही चुकी है। इसी के आधार पर डॉ. मानसिंह, प्रदीप चौहान, मोहन चौहान अदालत गये थे। उच्च न्यायालय ने इन के हक में फैसला दिया था। सरकार जिस की अपील में सर्वाेच्च न्यायालय गयी हुई है। शीर्ष अदालत में मामला अभी तक लंबित है। ऐसे में क्या अभी 1974 के प्रावधान को जनता के सामने रखे बिना पैन्शन का फैसला लिया जाना चाहिये था। आज आर्थिक संकट के दौर में सारी स्थिति जनता में स्पष्ट किये बिना फैसला लेना सही ठहराया जा सकता है क्या यह मुख्यमंत्री के सलाहकारों पर प्रशन नहीं है।