लोक सेवा आयोग में सरकार से राजभवन तक नहीं हो पाया अदालत के फैसलों का सम्मान

Created on Monday, 29 August 2022 02:50
Written by Shail Samachar

कांग्रेस के सवालों का नहीं आया जवाब

शिमला/शैल। इस समय हर बढ़ते पल के साथ प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियां भी बढ़ती जा रही है क्योंकि निकट भविष्य में विधानसभा के लिये चुनाव होने है। सरकार सत्तारूढ़ दल और विपक्ष का हर छोटा बड़ा फैसला राजनीति के आइने में देखा जा रहा है। ऐसा होना स्वभाविक भी है क्योंकि यही सब कुछ तो राजनीति है और इसी से एक दूसरे को घेरा जायेगा। इसी परिप्रेक्ष में जब सरकार ने लोक सेवा आयोग के लिये अध्यक्ष और तीन सदस्यों की नियुक्ति की अधिसूचना जारी की तथा दूसरे दिन सुबह 8.30 बजे राजभवन में इस आश्य का शपथ ग्रहण समारोह रख दिया गया तब इस पर इतनी खबरें नहीं छपी जितनी इस समारोह के रद्द होने पर छप गयी। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने समारोह स्थगित होने पर सरकार पर एक लम्बी प्रश्नावली दाग दी। इसका जवाब अभी तक नहीं आया है। स्वभाविक है कि चुनावों में भी यह सवाल पूछा जायेगा। उस समय यह सामने आया कि तब नियुक्त हुई अध्यक्ष डॉ.रचना गुप्ता ने किन्ही व्यक्तिगत कारणों से यह पद लेने से इन्कार कर दिया। तब यह भी सामने आया कि यह अधिसूचना जारी होने के बाद शपथ ग्रहण समारोह के तय समय से पहले ही हिमाचल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और प्रदेश के राज्यपाल के संज्ञान में 2013 का सुप्रीम कोर्ट तथा पर फरवरी 2020 का प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले ला दिये गये थे जिनमें इन नियुक्तियों के लिये प्रक्रिया तय करने तथा नियम बनाने के निर्देश दिये गये थे। तब लगा था कि अदालत के फैसले संज्ञान में आने के बाद सरकार से लेकर राजभवन तक अब इनकी अनुपालन सुनिश्चित करवायेगा।
लेकिन इसके करीब एक सप्ताह बाद जब फिर से अध्यक्ष और तीन सदस्यों की नियुक्तियों की नयी अधिसूचना जारी हुई तब उनको पढ़ने से यह तो स्पष्ट हो गया कि पहले की अधिसूचना को रद्द करके नये सिरे से यह नियुक्तियां की गयी हैैं। परन्तु पहली नियुक्ति रद्द होने की अधिसूचना मीडिया तक उपलब्ध नहीं करवाई गयी। न ही नयी अधिसूचना से यह सामने आया कि अब कोई प्रक्रिया और नियम अपनाये गये हैं। केवल इतना स्पष्ट होता है कि पहला फैसला लेने के तुरन्त बाद किसी स्तर किसी को यह लगा कि राजनीतिक तौर पर यह फैसला नुकसान देह होगा। इसलिये इसे वापस लिया जाये। परन्तु फैसला वापिस लेने की राय देने वाले यह भूल गये कि जो सवाल उछल चुके हैं वह बिना जवाब के शान्त नहीं होंगे। क्योंकि यह अपने में ही गले नहीं उतरता कि एक व्यक्ति के पास सदस्य के रूप में काम करने के लिये समय है और अध्यक्ष के लिये समय नहीं हो। यह कोई मानने को तैयार नहीं होगा कि इस नियुक्ति के लिये पूर्व सहमति नहीं रही होगी। यदि सरकार के सलाहकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को समझकर सरकार को राय देते तो सारी फजीयत से बचा जा सकता था। क्योंकि अदालत ने जब तक सरकार नियम प्रक्रिया नहीं बना लेती तब तक स्वयं एक प्रक्रिया सुझाई है जिसमें मुख्यमन्त्री विधानसभा स्पीकर और नेता प्रतिपक्ष सर्च कमेटी की जिम्मेदारी निभायेंगे। सलाहकारों की भूमिका से स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे हाथों में सत्ता ज्यादा देर तक सुरक्षित नहीं है। बल्कि जो हुआ है वह जानबूझकर एक व्यक्ति को नीचा दिखाने वाला बन जाता है।
ऐसे में यह सवाल अहम हो जाता है कि जब प्रशासन के पास नियुक्तियों को अदालती फैसले के परिदृश्य में लाकर सारी फजीयत से बचने का अवसर था तो ऐसा क्यों नहीं किया गया? अदालती फैसलों का भी सम्मान न करने का आरोप क्यों आने दिया गया? क्या इससे न चाहते हुए भी आम आदमी सरकार से परिवार तक हरेक पर क्यास लगाने के लिये बाध्य नहीं हो जाता है?