जिस अध्यक्षा को संकट के लिए जिम्मेदार ठहराया गया उससे चुनाव लड़ने की उम्मीद कैसे की जा सकती है
मुख्यमंत्री के साथ शिमला आने के बाद भी कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने स्थिति का संज्ञान लेने का कोई संदेश क्यों नहीं दिया?
क्या हाईकमान अब भी मुख्यमंत्री के चश्मे से ही प्रदेश को देख रहा है?
शिमला/शैल। कांग्रेस के छः बागियों और तीन विधायकों द्वारा त्यागपत्र देने के बाद सभी नौ लोगों के भाजपा में विधिवत रूप से शामिल होने से प्रदेश की राजनीति का अस्थिरता की ओर एक कदम और आगे बढ़ गया है। निर्दलीय विधायक भाजपा में शामिल होने के बाद स्वत: ही दल बदल कानून के दायरे में 1985 में हुए संशोधन के बाद आ जाते हैं। फिर इन विधायकों ने भाजपा में शामिल होने से पहले अपनी विधायकी से त्यागपत्र दिये हैं। उनके त्यागपत्र देने पर कहीं से कोई ऐसा आरोप नहीं है कि ऐसा करने के लिए इन पर कोई दबाव था । ऐसे किसी आरोप के बिना इनके त्यागपत्रों को तुरंत प्रभाव से स्वीकार न करना इनको मनाने के रूप में देखा जा रहा है । भाजपा में विधिवत रूप से शामिल होने के बाद कांग्रेस के छः विधायकों की याचिका सर्वोच्चन्यालय में स्वत: ही अर्थहीन हो जाती है इसलिए इस याचिका को आने वाले दिनों में वापस ले लिया जायेगा । शैल के पाठक जानते हैं कि इस बारे में हमने बहुत पहले ही सारी स्थिति के बारे में पूरी स्पष्टता के साथ लिख दिया था। अब यह सवाल उठ रहा है कि इस सारे प्रकरण का अंतिम परिणाम क्या होगा।
अब तक जो घट चुका है उसके मुताबिक नौ विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने हैं। क्या इन उपचुनावों में कांग्रेस कोई सीट जीत पायगी? कांग्रेस यह उपचुनाव और लोकसभा चुनाव किसके चेहरे पर लड़ेगी? कांग्रेस अध्यक्षा सांसद प्रतिभा सिंह मंडी से चुनाव न लड़ने की बात कह चुकी हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस का कार्यकर्ता मानसिक रूप से चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं है । उनके इस कथन पर कांग्रेस विधायकों द्वारा अध्यक्षा को बदलने की मांग तक सामने आ गयी। इस पर यह सवाल उठ रहा है की क्या प्रतिभा सिंह के पास कोई और विकल्प था? इस बीच आनंद शर्मा का एक ब्यान आ गया है जिसे सीधे राहुल गांधीको ही चुनौती देना माना जा रहा है। ऐसे परिदृश्य में प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति का प्रश्नित होना माना जा रहा है क्योंकि आनंद शर्मा प्रदेश चुनाव समिति के सदस्य भी हैं।
इस वस्तु स्थिति में प्रदेश में यदि कांग्रेस की स्थिति को खंगाला जाये और अध्यक्षा की भूमिका से शुरुआत की जाये तो सबसे पहले यह सामने आता है की बतौर अध्यक्षा पार्टी कार्यकर्ताओं की अनदेखी होने का मुद्दा उन्होंने बार-बार मुख्यमंत्री से लेकर हाईकमान तक उठाया। क्या यह मुद्दा उठाना गलत था? शायद नहीं । लेकिन शिमला से लेकर दिल्ली तक उनकी बात नहीं सुनी गयी। फिर जब इस संकट के समय जब दिल्ली ने पर्यवेक्षक भेजें तो उनकी रिपोर्ट में हाली लॉज पर ही सारा दोष डालकर उनको हटाने के सिफारिश कर दी गयी। इस कथित रिपोर्ट को मीडिया में खूब उछाला गया। ऐसे में यह स्वाभाविक सवाल उठाता है कि एक तरफ तो सारे संकट के लिए हाली लॉज को जिम्मेदार ठहराकर उनको हटाने की बात की जाये और इसके साथ उनसे चुनाव लड़ने की उम्मीद की जाये तो यह दोनों परस्पर विरोधी बातें एक साथ कैसे संभव हो सकती हैं? क्या इससे उन्हें चुनाव में हरवाने की योजना के रूप में देखा जा सकता है ? इसी क्रम में यदि इस संकट को सुलझाने के प्रयासों पर नजर डालें तो यह सामने आता है की राज्यसभा में क्रॉसवोटिंग के बाद इन बागियों के खिलाफ जनाक्रोश उभारने का प्रयास किया गया। इनके क्षेत्रों में प्रदर्शनों और उनके होर्डिंग्ज को काला करने तोड़ने फोड़ने की रणनीति अपनाई गयी ? लेकिन क्या सही में कहीं भी जनाक्रोश उभर पाया? जिस ढंग का यह जनाक्रोश बाहर आया उससे स्पष्ट हो गया कि यह प्रायोजित है और स्थायी नहीं बन पायेगा आज यह कथित जनाक्रोश स्वत: ही शांत हो गया है । फिर इन बागियों के खिलाफ प्रशासनिक और पुलिस तंत्र को प्रयोग करने का प्रयास किया गया। इनके व्यावसायिक परिसरों पर छापेमारी की गयी । इनके समर्थकों को तंग करने की कारवाई शुरू हुई। लेकिन किसी भी कारवाई का कोई परिणाम सामने नहीं आ पाया। यहां तक बालूगंज की एफआईआर तक कारवाई गयी जिसमें यह लोग शामिल तक नहीं हुये। अंत में मुख्यमंत्री चंडीगढ़ से शिमला तक सड़क मार्ग से कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के साथ आये। इससे यह संदेश तो चला गया की मुख्यमंत्री के हाईकमान के साथ अच्छे रिश्ते है।
यह उम्मीद बनी थी कि कांग्रेस महासचिव प्रदेश की स्थिति का कोई कड़ा संज्ञान लेकर कुछ कदम अवश्य उठायेंगी ।लेकिन व्यवहार में कुछ ऐसा नहीं हुआ। इससे यही संदेश गया कि अब भी हाईकमान प्रदेश को मुख्यमंत्री के चश्मे से देख रहा है। इससे मुख्यमंत्री को पार्टी और सरकार के डूबने तक बचाये रखने का संदेश तो गया लेकिन सरकार और संगठन को बचाने के प्रयासों का कोई संदेश नहीं गया। ऐसे में कार्यकर्ता अंततः किसके चेहरे पर चुनावों में उतरेगा? जिस नेतृत्व के कारण सरकार कुछ दोनों की मेहमान होने के कगार पर पहुंच चुकी हो उसका कार्यकर्ता कितने आत्मबल के साथ चुनाव में उत्तर पाएगा यह सवाल बड़ा होता जा रहा है। राजनीति में स्वार्थ सर्वोपरि हो जाता है यह एक स्थापित सत्य है और ऐसे में कांग्रेस के कुछ और लोग जी भाजपा में चले जाएं तो कोई हैरानी नहीं होगी। क्योंकि सरकार बचाने के अभी भी कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं । यह फैल चुका है की कुछ अधिकारी और राजनेता ईडी के राडार पर चल रहे हैं। कुछ लोगों ने अपने खिलाफ साक्ष्य नष्ट करने के प्रयास किए हैं । ऐसे वातावरण में कोई सरकार कितने दिन सुरक्षित रह सकती है यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है । इस समय बागियों के खिलाफ जो कारवाई प्रशासनिक और पुलिस तंत्र के माध्यम से करने का प्रयास सरकार कर चुकी है अब उस सब को उसी भाषा में यह लोग लौटाने का प्रयास करेंगे यह स्वाभाविक है । इसलिए आने वाले दिनों में व्यक्तिगत स्तर के आरोप लगाने का दौर शुरू होगा यह तय है।