शिमला/शैल। इस समय हिमाचल में जिस तरह का राजनीतिक और प्रशासनिक स्थितियां बनती जा रही हैं उनके परिदृश्य में सरकार और सत्तारूढ़ कांग्रेस के साथ ही विपक्षी दल भाजपा भी बराबर सवालों के घेरे में आती जा रही है। यह बराबर आरोप लगता जा रहा है कि वर्तमान सुक्खू सरकार तभी तक सत्ता में बनी रहेगी जब तक उसे परदे के पीछे से भाजपा का सहयोग हासिल है। यह स्थितियां क्या है और कैसे निर्मित हुई तथा इसका प्रदेश पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर खुलकर चर्चा करना व सवाल उठाना आवश्यक हो गया है। सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2022 में सत्ता संभाली और फिर पहला काम प्रदेश को यह चेतावनी देने का किया कि राज्य के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी के बाद विधायकों के शपथ ग्रहण से पहले ही पूर्व मुख्यमंत्री को नेता प्रतिपक्ष की मान्यता दे दी। इस मान्यता का प्रभाव यह हुआ कि इस सरकार द्वारा पिछली सरकार के अंतिम छः माह में लिये फसलों को पलटने के कारण पहले बीस दिनों में ही जो रोष का वातावरण उभरा था उसको ठण्डे बस्ते में डालने के लिए उच्च न्यायालय में याचिका डालने का रूट ले लिया गया और पूरा मामला वहीं रूक कर रह गया। इसी के साथ सरकार ने व्यवस्था परिवर्तन का सूत्र पकड़कर प्रदेश की शीर्ष नौकरशाही को अपने-अपने पदों पर सुरक्षित रखते हुये भ्रष्टाचार के खिलाफ रस्म अदायगी का शिष्टाचार भी नहीं निभाया। इसका परिणाम हुआ कि भ्रष्टाचार तो अपनी जगह फलता फूलता रहा और उसके आरोप पत्र बम्बों की शक्ल में सार्वजनिक भी हुये। इन पत्र बम्बों के सार्वजनिक होने पर मीडिया के खिलाफ तो मामले दर्ज हो गये लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष ब्यानों/ प्रतिब्यानों की औपचारिकता से आगे नहीं बढ़े। आज तक दोनों पक्ष इस धर्म की अनुपालना पूरी ईमानदारी से निभाते आ रहे हैं। 2017 में जब सुक्खू के चुनाव शपथ पत्र को बसन्त सिंह ठाकुर ने चुनौती दी और मामला प्रदेश उच्च न्यायालय तक पहुंचा और उच्च न्यायालय ने इसकी जांच के आदेश दिये तब हमीरपुर भाजपा के सारे शीर्ष नेतृत्व ने इस पर पत्रकार वार्ता आयोजित कर उस समय तो अपना धर्म निभा दिया। लेकिन उसके बाद आज तक भाजपा इस सबसे संवेदनशील मुद्दे पर मौन साधकर बैठ गयी है। इसी मौन का परिणाम है कि मुख्यमंत्री को सदन में यह कहने का साहस हुआ कि ई.डी. की हिरासत में पहुंचे ज्ञान चन्द विधानसभा में मेरा समर्थक है तो लोकसभा में अनुराग ठाकुर का समर्थक है। स्मरणीय है कि 2017 में मुख्यमंत्री के जिस जमीन मुद्दे को हमीरपुर के भाजपा विधायकों और दूसरे पदाधिकारी ने पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से उठाया था आज उस मुद्दे पर यह लोग चुप हो गये हैं। जबकि पिछले वर्ष हमीरपुर और नादौन में ई.डी. तथा आयकर की छापेमारी से पूरा परिदृश्य ही बदल गया है। कुछ लोग ई.डी. की हिरासत में पहुंच गये हैं। इसी प्रकरण का शिकायतकर्ता युद्ध चन्द बैंस खुलकर सामने आ गया है। यह प्रकरण प्रदेश की राजनीति का केन्द्र बिंदु बन चुका है। लेकिन इसी केन्द्रीय मुद्दे पर भाजपा की कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही है।
मुख्यमंत्री के व्यवस्था परिवर्तन के सूत्र ने प्रदेश को कर्ज के ऐसे चक्रव्यूह में लाकर खड़ा कर दिया है जिससे आने वाला भविष्य भी प्रश्नित होता जा रहा है। जिस तरह से हर सेवा और उपभोक्ता वस्तु के शुल्क बढ़ाये जा रहे हैं। उसी अनुपात में प्रदेश के आम आदमी की क्रय शक्ति नहीं बढ़ी है। बिजली राज्य का तमगा लेकर उद्योगों को बुलाने वाले राज्य में आज प्रदेश का आम उपभोक्ता बिजली के बिल अदा करने में असमर्थता के कगार पर पहुंच गया है। लेकिन विपक्ष यह सवाल नहीं उठा पा रहा है कि आम आदमी पर इतना कर्जभार लादने के बाद भी सरकार का कर्ज लेना कम नहीं हो रहा है। यह कर्ज कहां निवेशित हो रहा है इस पर कोई सवाल क्यों नहीं उठाया जा रहा है। जो अधिकारी पिछली सरकार में सर्वे सर्वा और इन्ही मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने उनके खिलाफ सदन में आरोप लगाये थे। आज वही अधिकारी इस सरकार में मुख्य सलाहकार की भूमिका में है। यह आम चर्चा है कि ऐसे ही अधिकारी वर्तमान और पूर्व सरकार में सबसे बड़े संपर्क सूत्र की भूमिका निभा रहे हैं। इसलिये सारा विरोध रस्म अदायगी की भूमिका से आगे नहीं बढ़ रहा है। एक ओर भाजपा सांसद हर्ष महाजन दावा कर रहे हैं कि जब चाहे तब सरकार गिरा सकते हैं। लेकिन सरकार से तीखे सवाल पूछने का साहस नहीं कर रहे हैं। इस समय प्रदेश बेरोजगारी में देश में छठे स्थान पर पहुंच चुका है। आठ लाख पंजीकृत बेरोजगार हैं। इस स्थिति में जिस तरह से विधानसभा में हुई नियुक्तियों का पूरा प्रकरण सारे दस्तावेजी परमाणों के साथ सामने आया है और उस पर जिस तरह की प्रतिक्रिया विधानसभा सचिवालय की ओर से सामने आयी है उससे एक बहुत ही गंभीर स्थिति पैदा हो गयी है। इस पर विपक्ष किस तरह से आगे बढ़ता है यह देखना रोचक होगा। क्योंकि यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर आठ लाख बेरोजगारों का भविष्य और विश्वास टिका हुआ है।
इस परिदृश्य में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि विपक्ष जनहित के मुद्दों पर ब्यानबाजी के रश्मि विरोध से हटकर किसी जनआन्दोलन का रास्ता अपनाता है या नहीं। यही स्थिति इस समय प्रदेश के मीडिया की है क्योंकि आज सरकार ने मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त पत्रकारों की लकीर खींचकर सचिवालय में प्रवेश की अनुमति देने का फैसला लिया है उससे यह सवाल उठने लगा है कि क्या पत्रकार सरकार के प्रवक्ता होने की भूमिका छोड़कर आम आदमी के पक्ष में सरकार से तीखे सवाल पूछने का साहस दिखा पाते हैं या नहीं। इस सरकार के कार्यकाल में जिस तरह से सरकार ने मानहानि का रूट छोड़कर सीधे अपराधिक मामले दर्ज करने की नीति अपनायी है उससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार उससे पूछे जाने वाले तीखे सवालों से डरने लगी है। पत्रकारों को अपने बेवाक लेखन से आगे बढ़ना होगा। पत्रकारों में इस तरह के वर्ग भेद पैदा करके कोई भी सरकार ज्यादा समय तक अपने ऊपर ईमानदारी का चोला पहन कर जनता को गुमराह नहीं कर सकती। इस तरह कुल मिलाकर जो परिस्थितियां बन गयी है उनमें सत्ता पक्ष तो कटघरे में आता ही है लेकिन विपक्ष भी अपनी तटस्थता के कारण बराबर सवालों में आता है।