शिमला/शैल। महेश्वर सिंह हिमाचल लोक हित पार्टी के भाजपा में विलय से एक बार फिर प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के विकल्प की संभावनाओं की हत्या हुई यह मानना है उन लोगों का जो विकल्प की तलाश में है। प्रदेश में एक लम्बे अरसे से कांग्रेस और भाजपा का ही शासन चला आ रहा है। इस शासन की विशेषता यह रही है कि दोनों ने विपक्ष में बैठकर सत्तापक्ष के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के गंभीर आरोप पत्र राजभवन को सौंपे हैं लेकिन सता में आने पर उनकी जांच का जोखिम न उठाया है। दोनों ने इस धर्म का ईमानदारी से पालन किया है। भ्रष्टाचार पोषण की इस संस्कृति का प्रदेश पर यह असर पडा है कि सरकार का कर्ज भार हर वर्ष लगातार बढ़ा है और इसी अनुपात में हर बार बेरोजगारों का आंकडा बढ़ा है। बढ़ता कर्ज और बढ़ती बेरोजगारी सत्ता में बैठे इन मामनीयों के अतिरिक्त हर व्यक्ति के लिये गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बना हुआ हैं। इसलिये आम आदमी आज ईमानीदारी से कांग्रेस और भाजपा का विेकल्प चाहता है।
प्रदेश में कई बार विकल्प के प्रयास हुए हैं इनमें 1989-90 में जनता दल ने 17 सीटों पर चुनाव लड़कर 11 पर जीत हासिल की थी। स्व. ठाकुर राम लाल स्व. रणजीत सिंह के अतिरिक्त विजय सिंह मनकोटिया और श्यामा शर्मा जैसे लोगों के हाथ में इसका नेतृत्व था। लेकिन भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था जिसमें भाजपा को अपनी ही 46 सीटें मिल गयी थी और शान्ता कुमार ने जनता दल को सत्ता में भागीदार नहीं बनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि जनता दल भी विकल्प बनने से पहले ही समाप्त हो गया। उसके बाद पंडित सुखराम ने कांग्रेस से निष्कासित होकर हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन किया। हिविंका ने 1998 के चुनाव में पांच सीटों पर जीत हासिल की। पांचों विधायक धूमल की सरकार में मन्त्री बन गये और आगे चलकर आधी हिविंका भाजपा में और आधी कांग्रेस में शामिल हो गयी। हिविंका के बाद विजय सिंह मनकोटिया ने बसपा के हाथी का दामन थामा। मायावति के पूरे सहयोग के वाबजूद यह हाथी पहाड़ पर नहीं चड़ पाया और मनकोटिया फिर कांग्रेस में वापिस चले गये।
मनकोटिया के बाद महेश्वर ने भाजपा के भीतर विरोध और विद्रोह के स्वर मुखरित किये। धूमल के खिलाफ गडकरी को अरोप पत्र सौपें और अन्त में भाजपा से बाहर निकलकर हिमाचल लोक हित पार्टी बनाकर चुनाव लडा। हिलोपा को चुनाव में समाप्त भारत पार्टी के सुदेश अग्रवाल ने तो वित्तिय सहयोग भी बहुत दिया था। हिलोपा के चुनाव लड़ने पर अमेरीकी दूतावास तक ने रूची ली थी और उसके लोग तो हिलोपा के शिमला स्थिति मुख्यालय भी पहुंचे थे। इस सहयोग से ही यह सकेंत उभरे थे कि हिलोपा प्रदेश में एक विकल्प के रूप में अवश्य अपनी पहचान बनायेगी। आज हिलोपा के विलय से इस उम्मीद की निश्चित तौर पर हत्या हुई है। बल्कि एक समय तो यह उम्मीद भी बन्ध गयी थी कि हिलोपा और आम आदमी पार्टी प्रदेश में एक होकर एक कारगर विकल्प बन पायेंगे लेकिन आम आदमी पार्टी को तो प्रदेश में दो वर्ष बाद अपनी ईकाई तक भंग करनी पड गयी है। जून में ईकाई भंग करने के बाद केजरीवाल ने प्रदेश में दिल्ली से एक छः सदस्यों की टीम राजनीतिक स्थितियों का आकलन करने के लिये भेजी थी लेकिन यह टीम तो भंग ईकाई से भी ज्यादा अप्रभावी सिद्ध हुई है। क्योंकि यह टीम अभी तक कोई आकलन ही सामने नही ला पायी हैं।
ऐसे में राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि प्रदेश में विकल्प के प्रयास सफल क्यों नही हो पा रहे हैं। इस सवाल की गंभीरता से पडताल करने के बाद यह सामने आता है कि विकल्प का प्रयास करने वाले मुख्यरूप से वही लोग रहे हैं जिन्होने कभी न कभी भाजपा या कांग्रेस में सत्ता का सुख भोगा हुआ था। सत्ता का हिस्सा रह चुके लोग सत्ता के खिलाफ कभी भी ईमानदारी से आक्रामक नही हो पाते हैं। जबकि सता का विकल्प बनने के लिये सता पक्ष और उसके दावेदारों के खिलाफ खुलकर आक्रमक होना एक अनिवार्यता है। लेकिन विकल्प होने का दम भरने वाला कोई भी नेता ऐसी आक्रमकता नही निभा पाया है और इसलिये उसकी विश्वसनीयता नही बन पायी है। आज जिस ढंग से आम आदमी पार्टी प्रदेश में काम कर रही है उसमें भी आक्रमकता कहीं देखने को नही मिल रही है। दो वर्षों से आप प्रदेश में काम करते हुए आम आदमी को यह नही समझा पायी है कि प्रदेश में विकल्प क्यों चाहिये? कांग्रेस और भाजपा ने प्रदेश का अहित क्या किया है? उस अहित का समाधान क्या है? जब तक इन प्रश्नो पर कोई खुलकर प्रदेश की जनता के सामने पूरी निष्पक्षता के साथ स्थिति को नही रखेगा तब तक विकल्प का कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता है।