शिमला/शैल। इन दिनों प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में वीरभद्र और कांग्रेस अध्यक्ष सुक्खु में चल रहा टकराव चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। वीरभद्र ने पिछले कुछ दिनों में संगठन को लेकर जिस तरह की टिप्पणीयां की हैं उससे यह टकराव अपने आप चर्चा का विषय बन गया है क्योंकि वीरभद्र ने संगठन की कार्यप्रणाली पर ऐसे सवाल उठा दिये है जिनका ताल्लुक सीधे हाईकमान से हो जाता है। वीरभद्र ने संगठन में नियुक्त सचिवों की न केवल संख्या पर बल्कि उनकी एक प्रकार से राजनीतिक योग्यता पर ही सवाल खड़े कर दियेहैं। सचिवो की नियुक्ति हाईकमान के निर्देशों और उसकी स्वीकृति से होती है यह वीरभद्र भी जानते हैं। लेकिन इसके बाद भी उनका ऐसे सवाल उठाना एक प्रकार से हाईकमान को भी चुनौती देने जैसा हो जाता है। वीरभद्र जैसा वरिष्ठ नेता ऐसा क्यों कर रहा है वह अपरोक्ष में हाईकमान से ही टकराव की स्थितियां क्यों पैदा कर रहा है। इसको लेकर यदि वीरभद्र के इस कार्यकाल का निष्पक्ष आंकलन किया जाये तो जो तस्वीर उभरती है इससे सब कुछ पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।
2012 के चुनावों में वीरभद्र ने कैसे पार्टी की कमान हासिल की थी इसे सब जानते हैं। उस समय यहां तक चर्चाएं उठी थी कि यदि वीरभद्र को नेतृत्व नहीं सौंपा गया तो वह शरद पवार का दामन थाम सकते हैं इसके लिये हर्ष महाजन की भूमिका को लेकर भी चर्चाएं उठी थी। इन चर्चाओं का परिणाम था कि चुनावों में नेतृत्व वीरभद्र को मिल गया। लेकिन जब चुनावों के बाद मुख्यमन्त्री के चयन का सवाल आया था उस समय पर्यवेक्षकों के सामने पूरा विधायक दल दो बराबर हिस्सों में बंटा मिला था। इसी कारण से सरकार के गठन के तुरन्त बाद वीरभद्र ने जब अपने समर्थकों की ताजपोशीयां शुरू की थी तो उस पर इस कदर एतराज उठे थे कि इन ताजपोशीयों पर विराम लगाना पड़ा था। बड़े अरसे बाद यह गतिरोध समाप्त हुआ था। लेकिन वीरभद्र ने जिस तरह से अपने सचिवालय में स्टाॅफ का चयन किया और सेवानिवृत अधिकारियों को अधिमान दिया उसका असर प्रशासन पर भी पड़ा। बल्कि मुख्यमन्त्री के अपने सचिवालय में ही दो धुव्र बन गये। क्योंकि सेवानिवृत अधिकारियों का प्रशासन पर जितना प्रत्यक्ष प्रभाव था उतनी उनकी अधिकारिक तौर पर जवाबदेही नही थी।
वीरभद्र के अपने ही सचिवालय में बने इन अलग-अलग ध्रुवों का परिणाम यह हुआ कि जिन मुद्दों को धूमल शासन के खिलाफ उछाल कर वीरभद्र सत्ता में आये थे उनमें से एक भी मुद्दे को आज तक प्रमाणित नही कर पाये हैं। धूमल के खिलाफ हिमाचल आॅन सेल का आरोप लगाकर कोई मामला चिहिन्त नही कर पाये हैं। मिन्हास को कबर से भी खेद कर लाने की धमकीयां देते थे वीरभद्र परन्तु परिणाम शून्य/अवैध फोन टेपिंग के खुद शिकार होने के वाबजूद इस मामले में कुछ नही कर पाये। एचपीसीए को लेकर जितने मामले उठाये उनका परिणाम यह रहा कि अपने ही सचिवालय के अधिकारी इसमें खाना 12 में अभियुक्त नामजद हैं। यह सारे वह मामले हैं जिन पर जनता को सरकार से कुछ प्रभावी कारवाई की उम्मीद थी। वीरभद्र के अपने ही दफ्तर से डीओ लैटर चोरी होने और उनके आधार पर ट्रांसफरें होने के मामलें में हुई जांच का अन्तिम परिणाम क्या रहा कोई नही जानता। युवा कांग्रेस के चुनावों में भी एक विज्ञापन जारी होने और उसकी पैमेन्ट के मामलें में दर्ज रिपोर्ट का क्या हुआ है कोई नही जानता। ऐसे कई प्रकरण हैं जिन्हें जनता नही भूली है। इन सवालों का जवाब केवल वीरभद्र को ही देना है। सरकार और वीरभद्र आज तक यह नही खोज पाये हैं कि ऐसी असफलता के क्या कारण रहे हैं।
यही नही आज स्वयं सीबीआई और ईडी में जिस कदर घिर गये हैं वहां पर अन्तिम परिणाम में नुकसान होना तय है। इन मामलों के लिये धूमल, अनुराग और जेटली को कोसने की बजाये अपने गिर्द ही नजर दौड़ाते और अपने सलाहकारों की सलाह का निष्पक्ष आंकलन करते तो शायद ऐसे हालात पैदा ही नही होते।आज सीबीआई और ईडी मामलों में आरोप लगने की स्टेज पहुंच रही है अदालत से भी ज्यादा वक्त मिलना संभव नही होगा।इनमे मामले दर्ज हुए को करीब एक वर्ष हो गया है और अब ट्रायल तक आने ही हैं। ऐसे में विपक्ष से ज्यादा कांग्रेस के भीतर से नेतृत्व परिवर्तन की आवाज उठेगी इस आवाज को संगठन के साथ टकराव लेकर दबाना कठिन होगा। इस परिदृश्य में वीरभद्र और संगठन आने वाले समय में क्या रास्ता अपनाते हैं यह देखने वाला होगा। क्या संगठन अपनी कीमत पर वीरभद्र की वकालत करने का रास्ता चुनता है या नही। क्योंकि वीरभद्र की वकालत से संगठन लम्बे समय के लिये सत्ता से बाहर हो जायेगा। दूसरी ओर क्या वीरभद्र संगठन के लिये पद त्यागते हैं या संगठन को पूरी तरह तहस नहस करने के लिये फिर वीरभद्र ब्रिगेड खड़ा करने की रणनीति अपनाते हैं।