शिमला/बलदेव शर्मा
प्रदेश कांग्रेस ने 2012 के चुनावी घोषणा पत्र में बेरोजगार युवाओं से वायदा किया था कि सत्ता में आने पर वह उन्हें प्रतिमाह नियमित रूप से एक हजार रूपये का बेरोजगारी भत्ता प्रदान करेगी। इस वायदे से कार्यकाल के अन्तिम वर्ष में सरकार पलट गयी है। मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ने इस वायदे को अव्यवहारिक करार देते हुए इसे सिरे से खारिज कर दिया है। बेरोजगारी भत्ते के मुद्दे पर परिवहन मन्त्री जीएसबाली और मुख्यमन्त्री के बीच मन्त्रीमण्डल की बैठक में अच्छी खासी तकरार भी हो चुकी है। मन्त्रीमण्डल की इस बैठक के बाद मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह और परिवहन मन्त्री जीएसबाली अलग-अलग प्रदेश कांग्रेस की प्रभारी अंबिका सोनी से भेंट भी कर चुके हैं। बल्कि इस भेंट के बाद वीरभद्र सिंह ने बेरोजगारी भत्ते की मांग का विरोध और भी मुखर कर दिया है। कांगड़ा के जसूर में एक जनसभा को सबोंधित करते हुए बेरोजगारी भत्ते की अवधारणा को ही न्याय संगत मानने से इन्कार कर दिया है। दूसरी ओर अभी पंजाब विधानसभा चुनावों के लिये पूर्व प्रधानमन्त्री डा0 मनमोहन सिंह के हाथों दिल्ली में जो घोषणा पत्र जारी किया गया है उसमें बेरोजगारी भत्ता एक बहुत बड़ा वायदा बन कर सामने आया है। पंजाब के लिये चुनाव घोषणा पत्र डा0 मनमोहन सिंह के हाथों जारी किया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस घोषणा पत्र को कांग्रेस हाईकमान की स्वीकृति अवश्य रही होगी। क्योंकि कांग्रेस एक क्षेत्रीय संगठन नहीं बल्कि सबसे बड़ा राष्ट्रीय राजनीतिक दल है। डा0 मनमोहन सिंह लगातार दस वर्ष तक देश के प्रधानमन्त्री रह चुके हैं और एक जाने माने अर्थ शास्त्री भी हैं। फिर यह स्वाभाविक है कि कोई भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल किसी भी प्रदेश के चुनावी घोषणा पत्र में कोई भी चुनावी वायदा करते हुए यह अवश्य सुनिश्चित करेगा कि इस वायदे का राष्ट्रीय स्तर पर क्या असर पडेगा। प्रदेश कांग्रेस ने जब 2012 के चुनावों में बेरोजगारी भत्ते का वायदा किया था उस समय भी इसे हाईकमान की स्वीकृति रही है। इस परिदृश्य में आज चुनावी वर्ष में इस वायदे से मुख्यमन्त्री का पलटना राजनीतिक हल्कों में चर्चा का मुद्दा बना हुआ है।
आज प्रदेश में प्रतिवर्ष एक लाख से अधिक युवा बेरोजगारी की सुची में जुड़ रहे हैं। इन बेरोजगार युवाओं के लिये रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं हैं। सरकार के वर्ष 2015 -16 के आर्थिक सर्वेक्षण में दर्ज आंकड़ो को यदि सही माना जाये तो वर्ष 2001 में रैगुलर सरकारी कर्मचारियों की संख्या 1,39,882 थी जो कि 2015 में 1,82,049 है। जिसका अर्थ है कि 15 वर्षो में केवल करीब 42 हजार को ही रैगुलर नौकरी मिल पायी है। आर्थिक सर्वेक्षण के आकंडो के मुताबिक 2001 में पार्ट टाईम कर्मचारी थे 9,794 जो कि 2015 में 6,312 रह गये। 2001 में वर्क चार्ज 3100 थे और 2010 से शुन्य चल रहे हैं। दैनिक वेतन भोगी 2001 में 46,455 थे और 2015 में इनकी संख्या 11,552 है। इन आंकडो से स्पष्ट हो जाता है कि 15 वर्षो में कितने लोगों को सरकार में कितना रोजगार मिल पाया है। इन आंकड़ो में कान्ट्रैक्ट एडहाॅक और वालंटियर के आंकडे शामिल नही है। यह आंकडे़ आर्थिक सर्वेक्षण में दर्ज हैं और विधानसभा के पटल पर रखे जा चुके हैं। इन इन आंकड़ो से स्पष्ट हो जाता है कि इन 15 वर्षो में जो भी सरकारें प्रदेश में रही हंै और उन्होने युवाओं को रोजगार देने के जो भी दावे किये हैं वास्तव में वह कितने सही रहे होगें।
इन आंकडो के आईने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि रोजगार के क्षेत्रा में सरकारों की जो भी नियत और नीति रही है उसके निष्पक्ष आकलन तथा उसको बदलने की आवश्कता हैं क्योंकि आंकड़ो की इस हकीकत को ज्यादा देर तक छिपाकर रखना संभव नही होगा। क्योंकि जब से मतदान की आयु सीमा 18 वर्ष कर दी गई है तब से 18 से 35 वर्ष के आयुवर्ग के मतदाओं की संख्या सबसे अधिक हो गयी है। संभवतः इसी हकीकत को सामने रखकर युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने का वायदा किया जा रहा है। क्योंकि इस समय कौशल विकास प्रशिक्षण के नाम पर जो आंकडे़ सामने रखे जा रहे है यदि उन्हे सही भी मान लिया जाये तो भी इससे बेरोजगारी से निपटने के लिये कई दशक लग जायेंगे। ऐसे में चुनावी वर्ष में मुख्यमन्त्राी वीरभद्र सिंह का बेरोजगारी भत्ते पर लिया गया स्टैण्ड न केवल हिमाचल में ही पार्टी के लिये कठिनाई पैदा करेगा बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा कर देगा।