शिमला/जे पी भारद्वाज
चौपाल के निर्दलीय विधायक बलवीर वर्मा ने अब भाजपा का दामन थाम लिया है। वर्मा की ही तर्ज पर अन्य निर्दलीय विधायकों के भी भाजपा में शामिल होने की अटकलों का बाजार गर्म है। बल्कि कई कांग्रेस विधायकों के भी भाजपा में जाने की चर्चाएं है। इन सारी चर्चाओं का आधार भाजपा को उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में मिली भारी जीत को माना जा रहा है। क्योकि राजनीति में व्यक्तिगत स्वार्थ ही सारी चीजों पर भारी पड़ता है फिर इस पाला बदल की अटकलों का तत्कालीक कारण धर्मशाला को प्रदेश की दूसरी राजधानी बनाये जाने की अधिसूचना को माना जा रहा है। यह फैसला हो चुका है और इस पर जब भी देर सवरे अमल होगा तो निश्चित रूप से शिमला संसदीय क्षेत्रा के लोग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। ऐसे में इस क्षेत्र के राजनेताओं के लिये सरकार और कांग्रेस पार्टी से विद्रोह करने का यह एक बड़ा कारण बन जाता है। इस पाला बदल के कथित प्रयासों का भाजपा को कितना लाभ मिलेगा और पाला बदलने वालों का राजनीतिक भविष्य कितना सुरक्षित रहेगा इस पर अभी कुछ भी कहना ज्यादा सही नही होगा।
निर्दलीय विधायक को चुनाव जीतने के बाद छः महीने तक यह हक हासिल रहता है कि वह इस अवधि में किसी भी दल में शामिल हो सकता है। इस अवधि में उस पर दल बदल कानून लागू नहीं होता। लेकिन छःमास के बाद ऐसा करने पर दलबदल कानून के प्रावधान लागू हो जाते हैं। इसमें यदि वह स्वयं विधायक पद से त्यागपत्रा न दे तो स्पीकर उसके खिलाफ करवाई करके उसे अयोग्य घोषित कर सकता है। दलबदल कानून के इसी प्रावधान के तहत भाजपा ने अपने मुख्य सचेतक सुरेश भारद्वाज के माध्यम से निर्दलीय विधायकों के कांग्रेस का सहयोगी सदस्य बनने पर इनके खिलाफ करवाई करने की याचिका स्पीकर के पास दायर कर रखी है जोकि अभी तक लंबित चली आ रही है। ऐसे में विधायक वर्मा को या तो सदन से स्वयं त्याग पत्र देना पड़ता है या स्पीकर को कारवाई करनी पड़ती है। यदि वर्मा भाजपा की प्राथमिकता का फार्म न भरकर केवल सहयोगी सदस्य ही रहते हैं जैसे वह कांग्रेस के साथ थे तो उस स्थिति में भाजपा के लिये एक नैतिक संकट और विधानसभा अध्यक्ष में लिये वैधानिक संकट की स्थिति खड़ी हो जायेगी।
इस परिप्रेक्ष में एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा होता है कि इस समय भाजपा ऐसी राजनीतिक गतिविधियों को क्यों प्रोत्साहन दे रही है। क्योंकि यदि सारे निर्दलीय विधायक भी कांग्रेस से नाता तोड़ने की घोषणा कर देते हैं तो भी वीरभद्र सरकार पर संकट नही आता है क्योंकि उसके पास अपना बहुमत रहता है। कांग्रेस में यदि दो तिहाई विधायक पार्टी से टूटकर अपना अलग दल बना लेते हैं तभी उन पर दलबदल कानून लागू नही होगा अन्यथा दो चार के छोड़ने से भाजपा को कोई बड़ा लाभ नही मिलता और छोड़ने वालों पर कारवाई हो जायेगी। ऐसे में क्या भाजपा कोई बड़ा खेल खेलने का प्रयास कर रही है। क्या कांग्रेस के अन्दर इस समय वीरभद्र के खिलाफ कोई बड़ा विद्रोह प्रायोजित होने जा रहा है। क्योंकि कांग्रेस के अन्दर जिस तरह से कुछ नेताओं ने अभी से अगले मुख्यमन्त्री की दावेदारी पेश करनी शुरू कर दी है उससे भी इस तरह के ही संकेत उभर रहे हैं। कांग्रेस के विद्रोही एक लम्बे अरसे से नेतृत्व परिवर्तन के लिये अपरोक्ष में प्रयास करते रहे हैं। बल्कि इस दिशा में पिछले दिनों चण्डीगढ़ और फिर दिल्ली में भी बैठकें हो चुकी हैं। यह बैठकें निगरान ऐजैन्सीयों की भी निगाहों में रही हैं। जब यह बैठकें हुई थी उस दौरान पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने की संभावनाएं मानी जा रही थी और इन संभावनों के मुद्देनजर प्रदेश के कुछ बड़े कांग्रेस नेताओं की आप के नेतृत्व के साथ विस्तृत बातचीत भी हो गयी थी। यदि पंजाब में वास्तव में ही आम आदमी पार्टी आ जाती तो अब तक प्रदेश में काफी कुछ घट गया होता। इस परिदृश्य में आज यदि भाजपा एक निर्दलीय विधायक को अपने साथ ला रही है तो निश्चित तौर पर आने वाले समय में वह किसी बड़ी योजना को अजांम देने जा रही है।