31 साल में पहुंची भाजपा नगर निगम की सत्ता तक

Created on Tuesday, 20 June 2017 13:48
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला की सत्ता पर काबिज होने के लिये स्पष्ट बहुमत का 18 पार्षदों का आंकड़ा भाजपा अपने दम पर हालिस नही कर पायी है। सत्ता के लिये वह निर्दलीय पार्षदों पर आश्रित है। तीन निर्देलीय पार्षदों में से कितनों का समर्थन उसे मिल पाता है यह आने वाला समय ही बतायेगा। भाजपा पहली बार निगम में सत्ता के इतने निकट पहुुंची है। इन चुनावों के बाद विधानसभा के चुनाव आयेंगे इस नाते इन चुनावों का राजनीतिक महत्व और भी बढ़ जाता है। संभवतः इसी महत्व को भांपते हुए इन चुनावों से पहले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की शिमला में रैली आयोजित की गयी थी। मोदी की रैली के बाद अमित शाह और कई दूसरे बडे नेता भी किसी न किसी बहाने शिमला आये। स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा तो निगम चुनाव के प्रचार में भी आये। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने इस चुनाव को पूरी गंभीरता से लेते हुए इसमें अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। मीडिया को अपने साथ रखने के लिये इसके कुछ लोगों को पालमपुर और दिल्ली ले जाकर केन्द्रिय नेतृत्व से भंेट करवाई गयी। भाजपा की यह रणनीति विधानसभा में 60 का आंकड़ा पाने के घोषित दावे के परिदृश्य में थी लेकिन इतने सघन प्रचार के बावजूद भाजपा का 34 में से 17 सीटों पर आकर रूक जाना यह इंगित करता है कि अब मोदी लहर संभवतः पहले जैसी नही रही है। यदि लहर होती तो भाजपा का आंकड़ा 30 तक पहुंचता। भाजपा की इतनी सफलता के लिये भी कांग्रेस में वीरभद्र -सुक्खु द्वन्द जिम्मेदार है यदि द्वन्द न होता तो सत्ता फिर कांग्रेस के पास जा सकती थी।
इस चुनाव में भाजपा को उन वार्डों में असफलता का मुह देखना पड़ा है जो पूरी तरह व्यापारी वर्ग के प्रभुत्व वाले थे। इन वार्डों में भाजपा की हार का अर्थ है कि अब यह वर्ग पार्टी के हाथ से निकलता जा रहा है। इस वर्ग में जीएसटी को लेकर रोष व्याप्त हो गया है जो आने वाले समय में बढ़ सकता है। इसी के साथ इस चुनाव में यह भी सामने आया है कि जिन वार्डों में जगत प्रकाश नड्डा प्रचार के लिये गये थे वहां पर भी पार्टी को सफलता नही मिली है। जबकि नड्डा को प्रदेश का अगला नेता प्रचारित किया जा रहा है। ऐेसे में इस असफलता का एक ही अर्थ है कि या तो नड्डा को प्रदेश के कार्यकर्ताओं का पूरा सहयोग नही है या फिर जनता में उनकी स्वीकार्यता नही बन पा रही है। इस चुनाव के प्रचार में पार्टी के नेताओं ने वीरभद्र के खिलाफ चल रहे मामलों का भी जिक्र तक नहीं उठाया जबकि चुनाव से पहले तक मुख्यमन्त्री से त्यागपत्र की मांग की जा रही थी। क्या भाजपा को इन आरोपों की विश्वसनीयता पर स्वयं ही अब विश्वास नही रहा है।
भाजपा यदि इस चुनाव प्रचार के अन्तिम दिन धूमल को फील्ड में न उतारती तो इतनी सफलता भी उसे न मिल पाती क्योंकि धूमल से पहले वीरभद्र ने शिमला ग्रामीण से जुडे वार्डों में जाकर स्थिति को नियन्त्रण में कर लिया था। लेकिन धूमल ने अन्तिम दिन जाकर पूरा पासा ही पलट दिया। धूमल के अन्तिम दिन के प्रचार के कारण ही भाजपा को उन पांच वार्डों  में सफलता मिली जो कांग्रेस के पक्के गढ़ माने जाते थे। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि भापजा को विधान सभा चुनावों के लिये नेतृत्व के प्रश्न पर शुरू से ही दो टूक फैसला प्रदेश की जनता के सामने रखना होगा। सामुहिक नेतृत्व की रणनीति से भाजपा को लाभ मिलना आसान नही होगा।