मनकोटिया मामले में अकेले पड़ते जा रहे हैं वीरभद्र विक्रमादित्य और आहलूवालिया भी नहीं मना पाये मनकोटिया को

Created on Tuesday, 18 July 2017 12:51
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। मनकोटिया को जनहित में प्रदेश के पर्यटन विकास बोर्ड के उपाध्यक्ष पद से हटाना कांग्रेस और विशेषकर वीरभद्र परिवार और उनके निकटस्थ सलाहकारों को आने वाले समय में नुकसान देह साबित हो सकता है। इसका अहसास इन लोगों को मनकोटिया की पहली प्रैस वार्ता से ही समझ आ गया है। क्योंकि उच्चस्थ सूत्रों के मुताबिक मनकोटिया को मनाने की जिम्मेदारी विक्रमादित्य को स्वयं सभालनी पड़ी है। विक्रमादित्य ने इस दिशा में मनकोटिया से संपर्क साधने के लिये एक ही नही चार बार फोन किये। लेकिन जब मनकोटिया ने एक बार भी विक्रमादित्य का फोन नही उठाया तब दिल्ली के एक काॅमन उद्योगपति मित्र से विक्रमादित्य ने आग्रह किया कि वह उससे बात करके
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लिये राजी करे। इस उद्योगपत्ति मित्र/संबधी ने विक्रमादित्य के आग्रह को मानकर मनकोटिया को फोन किया। मनकोटिया ने इस उद्योगपति का फोन आने पर उससे बात कर ली लेकिन जैसे ही उ़द्योगपति ने विक्रमादित्य से एक बार बात करने का आग्रह किया तो मनकोटिया ने इस आग्रह को भी अस्वीकार कर दिया। इस प्रयास के भी असफल रहने के बाद विक्रमादित्य सुभाष आहलूवालिया के पास पहुंचे। आहलूवालिया ने मनकोटिया को फोन किया और लम्बे चौडे आश्वासन देकर विक्रमादित्य से एक बार फोन पर ही बात कर लेने का आग्रह किया। लेकिन मनकोटिया ने यह आग्रह भी स्वीकार नही किया। इसके बाद मनकोटिया लगातार अपनी लाईन बढ़ाते जा रहे है और उन्हें अपने क्षेत्र की जनता से भरपूर सहयोग/समर्थन भी मिलता जा रहा है। यही सहयोग/समर्थन मनकोटिया के सारे विरोधियों को परेशान भी करता जा रहा है।

मनकोटिया को यह समर्थन इसलिये मिल रहा है क्योंकि उनके खिलाफ आज तक भ्रष्टाचार का कोई आरोप नही लगा है। जबकि वीरभद्र और उनका पूरा परिवार आयकर सीबीआई और ईडी के मामलों में बुरी तरह घिरा हुआ है। ईडी में चल रही जांच के तहत दो अटैचमैन्ट आदेश जारी हो चुके है। सहअभियुक्त आनन्द चौहान एक साल से हिरासत में चल रहा है आयकर में वीरभद्र को उच्च न्यायालय से भी राहत नही मिली है। ईडी मामले में भी दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बाद लगातार भय और दुविधा का मौहाल बनता जा रहा है। इन सारे मामलो में जिस तरह के दस्तावेजी प्रमाण अब तक सामने आ चुके है वह अन्ततः कितने सही या गल्त साबित होते हैं उसका अदालत से अन्तिम फैसला आने में वर्षों लग जायेंगे लेकिन आज यदि यह सबकुछ पब्लिक के सामने आ जाये तो जनता उसे ध्रुव सत्य मान लेगी और जनता का यही मानना वीरभद्र और उनके परिवार के लिये घातक सिद्ध हो जायेगा। फिर इन मामलों के साथ अब तिलक राज का एक और प्रकरण जुड़ गया है। तिलक राज और अशोक राणा को फिलहाल ज़मानत मिलने के आसार नजर नही आ रहे हैं। सुभाष आहलूवालिया का अपना मामला भी अभी तक खत्म नही हुआ है वह ईडी में लंबित चल रहा है। चुनावों के दौरान यदि इन सारे मामलो का पूरा ब्योरा जनता के समाने आ जाता है तो निश्चित है कि इससे अप्रत्याशित राजनीतिक नुकसान हो जायेगा। यदि इस समय वीरभद्र और विक्रमादित्य राजनीतिक बाजी हार जाते हैं तो परिवार के राजनीतिक भविष्य पर ही संकट खड़ा हो जाता है।
इस मामले में वीरभद्र परिवार को भाजपा और उसके नेतृत्व से भले ही कोई खतरा न हो लेकिन इसमें मनकोटिया एक ऐसे हथियार के रूप में समाने आ गया है जिसके अपने पास भी चलने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नही रह गया है और जब वह चलेगा तो उससे सामने वाले का गला कटना तय है। कांग्रेस के मंत्री और नेता मनकोटिया की इस स्थिति को भलीभांती समझ गये हैं। इसीलिये अभी तक मनकोटिया मामले में कोई बड़ा नाम वीरभद्र के सहयोग के लिये आगे नही आया है। क्योंकि सबको खतरा है कि जैसे ही कोई मनकोटिया के खिलाफ बोलने का साहस दिखायेगा तो दूसरे ही दिन उसका काला चिट्ठा भी बाहर आ जायेगा। इस कारण से वीरभद्र इस मामले में लगभग अकेले पडते जा रहे हैं। बल्कि दूसरी ओर कुछ नेता मनकोटिया के साथ चलकर वीरभद्र से अपने काम निकलवा रहे हैं। चर्चा है कि जब बाली ने शिमला के आशियाना में मनकोटिया के साथ चाय पी तो दूसरे ही दिन कांगड़ा के एसपी का तबादला हो गया जिसके लिये बाली कई दिनों से प्रयासरत थे। और इसका प्रभाव बाली की प्रैस वार्ता में भी स्पष्ट देखने को मिला जब बाली ने मनकोटिया मामले को यह कह कर समाप्त कर दिया कि ‘‘मनकोटिया को न तो पार्टी में लाते समय उससे पूछा था और न ही अब बाहर करते वक्त पूछा है।’’
मनकोटिया के मामले में कांग्रेस एक ऐसी असमंजस में फंस गयी है जिसमें उसे पार्टी से बाहर करने में ज्यादा नुकसान की संभावना है क्योंकि अभी तो उसने केवल वीरभद्र सिंह के खिलाफ ही मोर्चा खोला हुआ है और बाहर जाने पर दूसरे मन्त्री/नेता भी अटैक के पात्र बन जायेंगे। इस समय मनकोटिया ने वीरभद्र के खिलाफ अैटक की जो लाईन ली है वह एक दम तथ्यों पर आधारित है क्योंकि लोकसभा चुनावों के दौरान तो केवल यही प्रचार हुआ था कि ‘‘वीरभद्र के पेड़ो पर भी पैसे उगते हैं’’ और इस कारण चारों सीटें हार गये थे। अब तो इसमें और बहुत कुछ जुड़ गया है। आज यह प्रचार और आरोप यदि भाजपा की ओर से आयेेंगे तो उसमें भाजपा का भी नुकसान होगा क्योंकि अभी तक केन्द्र की ऐजैन्सीयां ज्यादा परिणाम नही दे सकी हैं। बल्कि दबी जुबान से तो यह चर्चा भी चल पड़ी है कि भाजपा नेतृत्व का ही एक बड़ा वर्ग वीरभद्र की मदद कर रहा है और ऐसे प्रचार के कई ठोस आधार भी उपलब्ध है। इस परिदृश्य में जब मनकोटिया कांग्रेस के अन्दर रह कर ही वीरभद्र के खिलाफ अपना अटैक जारी रखते है तो प्रदेश का कोई भी नेता उनके खिलाफ स्वार्थी होने का आरोप नही लगा पायेगा और हाईकमान को भी इसका संज्ञान लेने पर विवश होना पडेगा।