इस चुनाव में धूमल और वीरभद्र की प्रतिष्ठा दांव पर
एक विश्लेषण
शिमला/शैल। प्रदेश में अगली सरकार किसकी बनेगी इसके लिये नौ तारीख को मतदान होगा। दोनो बड़े दल भाजपा और कांग्रेस सरकार बनाने के दावे कर रहे हैं। भाजपा तो 50 प्लस सीटे जीतने का दावा कर रही है लेकिन इन दावों के वाबजूद मतदाता अभी तक मौन चल रहा है। वह खुलकर किसी के पक्ष में नही आ रहा है। भाजपा ने जब बूथ स्तर के त्रिदेव और फिर विभिन्न प्रकोष्ठों द्वारा आयोजित सम्मलेनो का आयोजन किया था उस समय भाजपा के पक्ष में एक बड़ा माहौल खड़ा हो गया था। लेकिन इस माहौल को पहली बार धक्का उस समय लगा था जब नगर निगम शिमला के चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत नही मिल पाया। निर्दलीयों को लेकर सत्ता में आये। और यह स्थिति तब हुई जब इस चुनाव से पहले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी शिमला के रिज मैदान पर एक जनसभा को संबोधित कर गये थे। नगर निगम शिमला के चुनाव की हार इस बात का संकेत था कि अब अकेले केन्द्र सरकार के भरोसे को केन्द्रिय नेताओं की छवि के सहारे ही प्रदेश में चुनावी सफलता नही पायी जा सकती है।
हिमाचल की राजनीतिक संस्कृति देश के अन्य राज्यों से भिन्न है। यहां पर बिजली, पानी सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाएं लगभग पुरे प्रदेश में उपलब्ध हैं। बल्कि कई स्कूल तो प्रदेश उच्च न्यायालय के युक्तिकरण के आदेशों के
तहत बन्द करने पड़े हैं। प्रदेश में यह मांग कम है कि नये संस्थान खोले जायें वरन् यह है कि जो खोले गये हैं वह सुचारू रूप से चलें। इन संस्थानों में पूरा स्टाॅफ उपलब्ध हो। हर स्कूल, कालिज में पर्याप्त अध्यापक हों और किसी भी अस्पताल में डाक्टरों की कमी न हों। सरकारी कार्यालयों में समुचित कर्मचारी तैनात हों। प्रदेश के हर क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि वहा खुले संस्थान/कार्यालय में स्टाॅफ की कमी रहती है। लेकिन यह कमी तो नयी भर्तियों के माध्यम से ही पूरी की जा सकती है। परन्तु यह भर्तियां करने के लिये सरकार के पास धन की कमी आड़े आती है। इसके लिये कान्ट्रैक्ट और आऊटसोर्स जैसे तरीके अपनाये जाते हैं और उनमें मैरिट की जगह भाई-भतीजावाद चलता है। आगे चलकर ऐसे भर्ती हुए लोगों को नियमित किये जाने की मांग उठती है जिसे मौजदा आरएण्डपी रूल्ज़ के तहत पूरा करना संभव नही होता है। यह समस्या हर सरकार के समय रहती है चाहे कांग्रेस हो या भाजपा। प्रदेश के युवाओं की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है और रोजगार का सबसे बड़ा साधन प्रदेश में सरकार से अतिरिक्त कोई नही है। सरकार में नौकरी पाने के लिये मैरिट से ज्यादा सिफारिश चाहिये यह धारणा आम बन चुकी है। प्रदेश के लोकसेवा आयोग से लकर अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड तक पर मैरिट को नजरअन्दाज किये जाने के आरोप लगते रहे है। सहकारी बैको और परिवहन निगम की भर्तीयों को जो अदालत तक में चुनौतियां दी जा चुकी हैं। प्रदेश के औद्यौगिक क्षेत्र पर नौकरियों के लिये आश्रित रहना संभव नही है क्योंकि अब तक औद्यौगिक नीतियों के कारण ही प्रदेश भारी भरकम कर्जे के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। प्रदेश के मतदाता के सामने यह सबसे बड़ी समस्या है और इसके हल के लिये वह किसी भी दल पर भरोसा करने की स्थिति में नही है। इसलिये वह अब तक मौन चला हुआ है।
दूूसरी ओर आज चुनाव प्रचार में कोई भी दल प्रदेश की इस बुनियादी समस्या पर बात नही कर रहा है। भाजपा का हर नेता प्रधानमन्त्री तक सरकार और वीरभद्र के भ्रष्टाचार को प्रदेश का मुख्य मुद्दा बनाकर प्रचारित कर रहा है। लेकिन इस भ्रष्टाचार के खिलाफ आज तक प्रचार के अतिरिक्त और कोई कारवाई नही की गयी है। बल्कि वीरभद्र के मामले में केन्द्र की ईडी ने जिस तरह का आचरण अब तक बनाये रखा है उससे उसकी विश्वनीयता पर यह सवाल उठने शुरू हो गये हैं। वीरभद्र के भ्रष्टाचार पर जिस तरह से सारी भाजपा हमलावर हो रही है उससे यह सवाल भी चर्चा में आने लगा है कि वीरभद्र को बड़ी कारवाई से अब तक बचाता कौन आया है! इसके अतिरिक्त भाजपा से अब यह सवाल भी पूछा जाने लगा है कि जब उसने मोदी-शाह के चेहरों पर ही चुनाव लड़ने का फैसला अब तक प्रचारित रखा था तो उसे अचानक धूमल को चेहरा घोषित करने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी? यदि भाजपा को अपनी नीतियों और उनकीे जनस्वीकारयता पर भरोसा था तो उन्हे हिमाचल में भी कांग्रेस के अन्दर सेंध लगाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? फिर कांग्रेस से भाजपा में गये हर व्यक्ति ने चाहे वह सुखराम और उनका परिवार हो या मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह की पत्नी पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह की भाभी विजय ज्योति सेन या हिमाचल निर्माता और प्रदेश के पहले मुख्यमन्त्री डा. परमार के पौत्र हो सबने कांग्रेस छोड़ने का कारण व्यक्तिगत उपेक्षा होना बताया है। किसी ने भी यह नही कहा है कि उसे कांग्रेस की नीतियों पर एतराज है न ही यह कहा है कि वह भाजपा की विचारधारा से प्रभावित होकर यह कदम उठा रहा है। दलबदल के लिये केवल राजनीतिक स्वार्थ ही सबसे बड़ा कारण रहा है। भ्रष्टाचार के कारण ज़मानत पर होने के आरोप दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व पर एक बराबर हैं। फिर जिस तरह प्रधानमन्त्री ने प्रदेश को पांच दानवों से मुक्त करवाने को आहवान किया है उस भाषा को भी लोगों ने ज्यादा नही सराहा है।
इस परिदृश्य में धूमल के नेता घोषित किये जाने की राजनीतिक आवश्यकता थी और उसके अनुसार यह घोषणा हुई थी। लेकिन इस घोषणा के साथ ही धूमल के चयन को राजपूत बिरादरी को खुश करने का प्रयास करार दे दिया गया। इसके लिये यह तर्क दिया गया कि प्रदेश में राजपूत 37% है और जातिय गणित में सबसे अधिक जन संख्या है जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में ब्राहमणों की जन संख्या 28 लाख 5 हजार 628 और राजपूतों की 24 लाख 16 हजार 986 है। लेकिन राजपूत एंगल दिये जाने से ब्राहमण सुमदाय में रोष की स्थिति पैदा होना स्वभाविक है। इस जातिय गणित का कुप्रभाव भाजपा को कांगड़ा में तो कांग्रेस को मण्डी में झेलना पड़ सकता है। धूमल के नेता घोषित होने के बाद जगत प्रकाश नड्डा को संयोगवश कुछ चुनाव सभायें रद्द करनी पड़ी है। खराब मौसम के कारण केन्द्र केे कई नेता पूर्व घोषित पत्रकार वार्ताओं को संबोधित नही कर पाये हैं लेकिन इसे भी राजनीति के चश्मे से ही देखा गया है। इसलिये धूमल के नेता घोषित होने से जो यह उम्मीद थी कि आम आदमी पूरी तरह खुलकर पार्टी के पक्ष में खड़ा हो जायेगा वैसा हुआ नही है।
दूसरी ओर कांग्रेस में जितना समय वीरभद्र और सुक्खु ने आपसी स्कोर सैटल करने में लगा दिया उससे पूरी पार्टी का जितना नुकसान हो गया है उसकी भरपायी हो पाना संभव नही है। क्योंकि जब भाजपा के स्टार प्रचारको तक की सूची जारी हो गयी थी तब तक सुक्खु और वीरभद्र का झगड़ा सुलझा ही नही था। यही तय नही हो पा रहा था कि वीरभद्र को चुनाव की कमान मिलेगी या नही। लेकिन जब वीरभद्र को कमान मिल गयी और चुनाव टिकटों को वितरण हुआ तो उसमें कई स्थानों पर वीरभद्र के समर्थको को टिकट नही मिल पाये। इन स्थानों पर वीरभद्र के कुछ समर्थक विद्रोही होकर चुनाव लड़ रहे हैं। इन विद्रोहीयों के चुनाव लड़ने से निश्चित रूप से पार्टी के अधिकृत उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचेगा ही। यह विद्रोही सीधे वीरभद्र के नाम लग रहे हैं। इसके अतिरिक्त पार्टी का चुनाव प्रचार अभियान बहुत कमजोर चल रहा है। इस समस कांग्रेस का संगठन चुनाव प्रचार के नाम पर कहीं नजर नही आ रहा है। भाजपा के हमलों का जवाब देने वाला कांग्रेस के कार्यालय में कोई है ही नही। बल्की कांग्रेस के उपाध्यक्ष हर्ष महाजन जो स्वंय चुनाव नही लड़ रहे हैं वह भी न तो कांग्रस के कार्यलय में दिख रहे हैं और न ही प्रचार में। वह केवल मुख्यमन्त्री का ही चुनाव देख रहे हैं। इस समय कांग्रेस का सारा प्रचार पार्टी के केन्द्रिय कार्यालय द्वारा भेजे गये छोटेे बड़े नेताओं द्वारा संचालित हो रहा है। प्रदेश नेताओं से वीरभद्र के अतिरिक्त और कोई फील्ड में दिख ही नही रहा है और वीरभद्र नेताओं से ज्यादा सेवानिवृत अधिकारियों पर आश्रित होकर चल रहे हैं। कल तक यह लोग प्रदेश सचिवालय में बैठकर उनकी सरकार चला रहे थे और आज हाॅलीलाज में बैठकर चुनाव का संचालन कर रहे हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस कहां खड़ी है और उसका भविष्य क्या होने वाला है।
इस परिदृश्य में जहां संगठन और प्रचार के नाम पर कांग्रेस कहीं दिख नही रही और उसके मुकाबले में भाजपा बहुत आगे चल रही है। इसके बावजूद भी मतदाता अभी तक चुप चल रहा है। माना जा रहा है कि जहां प्रदेश की जनता वीरभद्र के कुशासन से दुःखी है वहीं पर भाजपा से भी पूरी तरह प्रसन्न नजर नही आ रही है। यह स्थिति अधिकांश में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना मानी जाती है। लेकिन अब भाजपा ने धूमल को नेता घोषित करके स्थिति को संभालनेे का प्रयास किया है। उससे भाजपा को काम चलाऊ बहुमत मिलने की संभावना कुछ बनती जा रही है। वर्तमान स्थिति में यह लगता है कि कहीं सरकार बनाने के लिये निर्दलीयों की आवश्यकता पड़ सकती है।