प्रदेश सरकार 38 वर्षों में नही बना पायी स्थायी Development Plan

Created on Wednesday, 29 November 2017 06:25
Written by Shail Samachar

1979 में जारी हुई थी अन्तरिम प्लान
अन्तरिम प्लान में हो चुके हैं 18 संशोधन
 प्रदेश का 97.42% क्षेत्र है लैण्ड स्लाईड के
दायरे में
अवैध निमार्णों को नियमित करने के 5143
आवेदन हैं सरकार के पास लंबित
नौ बार आ चुकी हैं रिटैन्शन पालिसियां


शिमला/शैल। भारत सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल प्रदेश का 97.42% भौगोलिक क्षेत्र लैण्डस्लाइड के जोन में है। प्रदेश के राजस्व विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में flash floods, Cloud burst  और land slides से 2016 के मानसून में 863.97 करोड़ का नुकसान हो चुका है। इनमें 40 लोगों की जान का और 2283 करोड़ का स्ट्रक्चरल नुकसान हो चुका है। 2017 में किन्नौर में भूस्खलन के 5, प्लैश फ्लड और बादल फटने के तीन, चटट्टाने गिरने के तीन हादसे हो चुके हैं। जिनमें 5 लोगों की मौत हुई है। 31 अगस्त 2017 तक मण्डी में लैण्ड स्लाईड के 48 मामले घट चुके हैं। शिमला में लैण्ड स्लाईड के 4 भवन गिरने के 2, बादल फटने के 2 और भूकंप का 1 मामला घटा है। कुल्लु में लैण्ड स्लाईड के 5 भूकम्प का 1 और प्लैश फ्लड के 34 हादसे हुए हैं। बिलासपुर में लैण्ड स्लाईड के 4 और फ्लैश फ्लड का 1 मामला घटा है। सोलन के बद्दी नालागढ़ और कण्डाघाट में 2016 और 2017 में लैण्ड स्लाईड के 31 हादसे हो चुके हैं। सरकार के अपने इन आंकड़ो से अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में यह आपदा कितनी भयानक हो सकती है। मण्डी के कोटरूपी हादसे में 50 लोगों की तो जान ही जा चुकी है। इस परिदृश्य में यह चिन्ता और चिन्तन का एक गंभीर मामला बनकर सामने हैं। लेकिन क्या शासन और प्रशासन इस बारे में ईमानदारी से गंभीर है? यह सवाल एनजीटी द्वारा 16 नवम्बर को दिये फैंसले के बाद हरेक जुबान पर है। बल्कि इस फैंसले का विरोध करने के लिये शिमला में करीब 100 भवन मालिकों ने एक बैठक करके एक जन कल्याण समिति का गठन तक कर लिया है और एक बड़ा आन्दोलन इस फैसले के खिलाफ खड़ा करने की घोषणा की है।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर एनजीटी को ऐसा फैैसला सुनाने की नौबत क्यों आई? सरकार की ओर से इस संद्धर्भ में कहां और क्या-क्या चूक हुई है। स्मरणीय है कि हिमाचल प्रदेश में नगर एवम् ग्राम नियोजन अधिनियम 1977 में पारित हो गया था और इस एक्ट की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिये टीसीपी विभाग की स्थापना कर दी गयी थी। निदेशक टीसीपी को इस एक्ट के तहत न्याययिक शक्तियां तक हासिल है। इस एक्ट का उद्देश्य पूरे प्रदेश के शहरी ग्रामीण क्षेत्रों का सुनियोजित विकास सुनिश्चित करना था। इसके लिये एक स्थायी योजना लाई जानी थी। लेकिन विभाग मार्च 1979 में केवल एक अन्तरिम प्लान ही जारी कर पाया। अब तक 18 संशोधन लाये जा चुके हैं  The Development Plan is a document, which can transform the future of a city by impacting its development positively in the years to come depending upon the infrastructural resources existing or which could be augmented. Unfortunately, this did not happen in case of Shimla. This city, famously known as the ‘queen of hills’ has been surviving on the crutches of Interim Development Plan since 1979. As many as 18 amendments in interim development plan of 1979 have been carried out which shows adhocism, anarchy and arbitrariness in functioning and decision  making. Therefore, all        successive governments have faulted in their duty of beholding of public trust for short-term gains.  जबकि एक्ट की धारा  16 (c) One more aspect which warrants attention is the provision of Section 16(c) of the HP Town and Country Planning Act, 1977. The provisions of this section impose restriction on the change use of land or on carrying out of any development except for agriculture purposes.  Sub-section  ‘c’ of Section 16 imposes a restriction on registration of any deed or document of transfer of any sub-division of land by way of sale or otherwise, unless the sub-division of land is duly approved by the Director, subject to the rules framed. 

 यदि इस प्रावधान की अनुपालना सुनिश्चित की गयी होती तोे जिस तरह के निर्माण संजौली मे खड़े हो गये हैं वह खड़े न हो पाते। यही नही टीसीपी के प्रावधानों की अनुपालना सुनिश्चित करने की बजाये सरकार अवैधताओं को नियमित करने के लिये रिटैन्शन पाॅलिसियां लाती चली गयी और अब तक नौ पाॅलिसियां आ चुकी हैं। बल्कि 2016 में एक अध्यादेश लाकर 1977 के अधिनियम की मूल भावना को ही कमजोर करने का प्रयास किया गया और इस अध्यादेश को तो राज्यपाल की स्वीकृति भी मिल गयी थी। जबकि 11 अगस्त 2000 को सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके यह कहा है कि That all private as well as government construction are totally  banned within the core area of Shimla planned area permitting only construction on old lines with prior approval of the state Govt. लेकिन इस अधिसूचना के बाद 22 अगस्त 2002, 5 जून 2003, 28 नवम्बर 2011, 13 अगस्त 2015 और 28 जून 2016 को अलग-अलग अधिसूचनाएं जारी करके पूरे एक्ट को ही एक तरह से पंगू बना दिया है। सरकारी नीतियों की इसी अस्थिरता को अन्ततः 2014 में एनजीटी में चुनौती दी गयी । एनजीटी में याचिका आनेे पर जब अदालत ने इस पर सरकार और उसके संवद्ध अदारों से जवाब तलब किया तब यह सामने आया कि शिमला में 5143 लोगों ने अपने निमार्णो को नियमित किये जाने के लिये आवदेन कर रखा है। इनमें 3342 निमार्णों में तो स्वीकृत प्लान से कुछ हटकर निर्माण किये जाने को नियमित किये जाने के लिये आवेदन किया गया है। लेकिन 180 निमार्ण तो पूरी तरह अवैध हैं जिनमें पहले कोई प्लान स्वीकृति के लिये सौंपा ही नही गया है। बल्कि यह आंकड़ा भी लोगों के अपने आवदेनों पर आधारित है। लेकिन संवद्ध विभागों को अपने तौर पर अवैध निर्माणो की कोई जानकारी ही नही है क्योंकि इन विभागों ने ऐसी कोई स्टडी ही नही करवा रखी है। इस परिदृश्य में यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि सरकारों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते पर्यावरण और कालान्तर में आम आदमी को होने वाले नुकसान की ओर कभी कोई ध्यान नही दिया है। ऐसे में क्या सरकार एनजीटी के इस आदेश को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने का साहस जुटा पायेगी?