शिमला/शैल। जयराम सरकार ने हमीरपुर स्थित प्रदेश के अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड में भाजपा के कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के संगठन मन्त्री डा. संजीव ठाकुर को बतौर सदस्य नियुक्ति दी है। डा. ठाकुर आरएसएस के एक प्रशिक्षित और समर्पित कार्यकर्ता हैं। ग्वालियर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के एक सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं। संघ के प्रति अपने समर्पण के कारण ही डा. ठाकुर ने एक दिन भी सरकारी नौकरी नही की है और इसी कारण से पार्टी ने उन्हे कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के संगठन मन्त्री का दायित्व दिया था। भाजपा में संगठन मन्त्री और अध्यक्ष के पदों की अहमियत एक बराबर रहती है। संगठन मन्त्री पद का कितना प्रभाव होता है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जयराम सरकार को सबसे पहले चारों संसदीय क्षेत्रों के संगठन मन्त्रीयों संजीव कटवाल, पुरूषोत्तम गुलेरिया, शिशु धर्मा और अब डा. संजीव ठाकुर को ताजपोशीयां देनी पड़ी है जबकि अन्य कार्यकर्ताओं के लिये तो यह कह दिया कि अभी ऐसी नियुक्तियों की कोई शीघ्रता नही है।
हर राजनीतिक पार्टी सत्ता में आने पर अपने कार्यकर्ताओं को विभिन्न अदारों में ताजपोशीयां देती हैं और इसमें किसी को कोई एतराज भी नहीं रहता है केवल अपनी पार्टी के अन्दर ही कार्यकर्ताओं में ऐसी ताजपोशी के लिये दौड़ रहती है। इसलिये जब संजीव कटवाल, पुरूषोत्तम गुलेरिया, शिशु धर्मा, धर्मानी और जमवाल तथा डा. पुंडीर की नियुक्ति हुई तो कहीं से भी नियम प्रक्रिया और राजनीतिक नैतिकता को नजरअन्दाज किये जाने के कोई आक्षेप नही उठे लेकिन जब डा. रचना गुप्ता की लोकसेवा आयेाग में नियुक्ति हुई तब पहली बार सरकार के फैसले पर उंगलियां उठीं और अब वैसी ही स्थिति डा. संजीव ठाकुर को इस बोर्ड का सदस्य नियुक्त किये जाने पर उठ खड़ी हुई है। डा. ठाकुर की नियुक्ति को लेकर सरकार की नीयत और नीति पर सवाल क्यों उठ रहे हैं इसके लिये बोर्ड के कार्य और इस नियुक्ति के साथ जो कुछ और घटा उस पर नजर डालना आवश्यक है। स्मरणीय है कि अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड के जिम्मे क्लास थ्री और क्लास फेार के कर्मचारियों की भर्ती करना है। इस चयन की एक लम्बी प्रक्रिया रहती है इसलिये अलग बोर्ड का गठन किया गया था। परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक काफी काम रहता था लेकिन अब केन्द्र सरकार ने इन पदों की भर्ती के लिये परीक्षा और साक्षात्कार दोनो को ही समाप्त कर दिया है। अब यह चयन प्रार्थी की शैक्षणिक योग्यता की मैरिट के आधार पर ही होगा और इस तरह ऐसे चयन में सिफारिश और पक्षपात की संभावनाओं की कोई गुंजाईश ही नहीं रह जाती है। यदि किसी की मैरिट को नजरअन्दाज किया जाता है तो वह इसकी जानकरी आरटीआई में ले सकता है। केन्द्र का यह फैसला प्रदेशों पर भी लागू है। वीरभद्र सरकार इस आश्य के प्रस्ताव तीन बार मन्त्रीमण्डल की बैठकों में लायी थी। परन्तु किन्ही कारणों से यह फैसला टलता रहा। लेकिन अब सरकार ने केन्द्र में इस फैसले पर अमल करते हुए अभी कुछ दिन पहले ही कुछ साक्षात्कार रद्द किये हैं। केन्द्र के इस फैसले पर पूरी तरह अमल होना ही है और इस अमल के बाद हमीरपुर बोर्ड के पास भी कोई बड़ा काम नही बचेगा। बल्कि जो काम शेष रहेगा वह केवल प्रशासनिक स्तर का ही होगा और उसे तो संबधित विभाग अपने स्तर पर ही अच्छे से निपटा लेंगे। इसलिये अब व्यवहारिक रूप से इतने भारी -भरकम बोर्ड की कोई आवश्कता ही नही रह जाती है। लेकिन इस सरकार ने इस व्यवहारिक पक्ष की ओर ध्यान दिये बिना ही इसमें सदस्य की नियुक्ति कर दी।
इसी के साथ इस नियुक्ति से पहले यहां पर वीरभद्र सरकार के समय लगाये गये चेयरमैन प्रो. झारटा को हटाया गया। प्रो. झारटा ने इस नियुक्ति के बाद हिमाचल विश्वविद्यालय से वांच्छित छुट्टी ले रखी थी और विश्वविद्यालय प्रबन्धन ने वाकायदा उन्हे छुट्टी दे रखी थी। लेकिन अब उसी प्रबन्धन ने विश्वविद्यालय में अध्यापकों की कमी होने का तर्क देकर उनकी छुट्टी रद्द करके उन्हे वापिस बुला लिया। लेकिन प्रबन्धन ने जिस बैठक में प्रो. झारटा की छुट्टी रद्द की उसी बैठक में उसी समय प्रो. नड्डा को वैसी ही छुटटी प्रदान कर दी क्योंकि प्रो. नड्डा केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जेपी नड्डा के सगे भाई हैं। प्रो. झारटा से पहले प्रो. एसपी बंसल भी विश्वविद्यालय से ऐसी ही छुटटी पर हैं लेकिन प्रबन्धन ने उनकी छुट्टी रद्द करके उन्हे तो वापिस नही बुलाया। इस तरह डा. संजीव ठाकुर को बोर्ड में नियुक्त करने के लिये पद का प्रबन्ध किया गया। लेकिन इसपर विश्वविद्यालय की अपनी कार्यप्रणाली पर तो ऐसे सवाल उठ खडे़ हुए हैं जो कि एक शैक्षणिक संस्थान के भविष्य के लिये किसी भी गणित से सही नही ठहराये जा सकते क्योंकि विश्वविद्यालय के प्रबन्धन में शीर्ष पर महामहिम राज्यपाल आते हैं और इस तरह के फैसलों की छाया सीधे उन पर पड़ती है।
इसी परिदृश्य में डा. संजीव ठाकुर की बोर्ड में हुई नियुक्ति सरकार के लिये अनचाहे ही एक ऐसा सवाल बन जाती है जिसका कोई भी जवाब नहीं हो सकता है। क्योंकि जिस संस्थान के पास आगे चलकर कोई विशेष काम रहने वाला ही नही है उसमें ऐसे नियुक्ति किये जाने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। क्योंकि बोर्ड के पास पर्याप्त काम रखने का अर्थ होगा कि यह सरकार भी वीरभद्र सरकार की तरह केन्द्र के फैसले पर अमल करने से पीछे हट जाये और इन पदों की भर्तियों में परीक्षा और साक्षात्कार की व्यवस्था को बनाये रखे।