कर्नाटक में सत्ता ही नही नीयत और नीति भी हारी भाजपा

Created on Tuesday, 22 May 2018 09:17
Written by Shail Samachar

कर्नाटक में अन्ततः सत्ता भाजपा के हाथ नही आ पायी है। भाजपा की यह हार सत्ता से अधिक उसकी नीयत और नीति की हार है। क्योंकि जिस तर्क से उसने गोवा, मणीपुर, मेघालय और बिहार में सरकारें बनायी थी उसी तर्क पर उसके हाथ से कर्नाटक की सत्ता निकल गयी। गोवा, मणिपुर, मेघालय और बिहार में सभी जगह चुनाव परिणामों के बाद गठबन्धन बनाकर सत्ता हासिल की गयी थी लेकिन जब कर्नाटक में कांग्रेस और जद (एस) ने उसी रणनीति का सहारा लेकर चुनावों के बाद गठबन्धन बनाकर अपना बहुमत बना लिया और राज्यपाल ने गठबन्धन को सरकार बनाने के लिये आमन्त्रित न करके भाजपा को सबसे बड़े दल के रूप में यह न्यौता दे दिया तब सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला पहुंच गया। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल के फैसले पर अपना कोई अन्तिम फैसला न देते हुए उसमें आंशिक सुधार करके बहुमत सिद्ध करने के लिये 15 दिन के समय को घटाकर शनिवार चार बजे तक का समय कर दिया। सदन की कार्यवाही चलाने के लिये अध्यक्ष का होना आवश्यक होता है लेकिन अध्यक्ष का विधिवत चुनाव सदस्यों द्वारा शपथ लेने के बाद ही होता है और शपथ दिलाने के लिये राज्यपाल प्रोटम अध्यक्ष की नियुक्ति करता है। यहां राज्यपाल ने जिस विधायक को प्रोटम स्पीकर नियुक्त किया उस पर कांग्रेस और जद (एस) ने एतराज उठाया। मामला एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। न्यायालय ने प्रोटम स्पीकर को तो नही हटाया लेकिन सदन की सारी कारवाई के लाईव टैलीकास्ट के आदेश कर दिये। इस तरह जब सदन की कारवाई चली और मुख्यमन्त्री येदियुरप्पा ने विश्वास मत का प्रस्ताव रखा तब इस प्रस्ताव पर मतदान होने से पूर्व ही अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।
इस तरह चुनाव परिणामों से लेकर मुख्यमन्त्री के त्यागपत्र देने तक जो कुछ घटा है उससे स्पष्ट हो गया है कि भाजपा ने सत्ता हथियाने के लिये कोई कोर- कसर नही छोड़ी थी। इन प्रयासों में मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया में सरदार पटेल से लेकर आपातकाल और बुटा सिंह प्रकरण तक का सारा राजनीतिक इतिहास देश के सामने अपने ही तर्कों के साथ परोसा गया। यह कहने का प्रयास किया गया कि कांग्रेस ने भी भूतकाल में ऐसा ही कुछ किया था इसलिये आज भाजपा को वह सब कुछ दोहराने का दो गुणा हक हासिल हो गया है। इसमें भाजपा के पक्षधरों ने एक बार भी यह नही माना कि जो कुछ उसने गोवा, मणिपुर और मेघालय में किया था वही सबकुछ अब कांग्रेस और जद(एस) कर रहे हैं वह भी जायज है। सत्ता के इस खेल के लिये भाजपा जिस हद तक चली गयी है उससे भाजपा की नीयत और नीति दोनों पर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है। क्योंकि इस चुनाव में जिस हद तक मोदी, अमितशाह और योगी चुनाव प्रचार में चले गये थे उससे यह चुनाव एक तरह से केन्द्र सरकार बनाम कांग्रेस होकर रह गया था। चुनाव प्रचार में जिस तरह से भाषायी मर्यादाएं लांघ दी गयी थी उसको लेकर पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह को भी राष्ट्रपति को पत्र लिखने के लिये बाध्य होना पड़ा है। लेकिन इस सारे प्रचार के बावजूद मोदी, शाह और योगी भाजपा को बहुमत नही दिला पाये। बल्कि वोट शेयर में भी कांग्रेस को 38% तो भाजपा को 36% वोट हासिल हुए हैं। प्रधानमन्त्री के इतने प्रयासोें के बाद भी भाजपा को बहुमत न मिल पाना और उसके बाद सत्ता के लिये अपनाई गयी रणनीति का इस तरह असफल हो जाना भाजपा के भविष्य के लिये खतरे का संकेत है। क्योंकि इससे यही संकेत और संदेश जाता है कि भाजपा देश की जनता को दे पायी है कि सत्ता के लिये वह किसी भी हद तक जा सकती है।
कर्नाटक के इस चुनाव के बाद जो कुछ घटा है उसने एक और सवाल खड़ा कर दिया है कि जिन लोगों को राजनीतिक दल अपना टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारते हैं उनमें से अधिकांश अभी तक इसके पात्र नही बन पाये हैं। भाजपा के पास आंकड़ो का बहुमत नही था। यह बहुमत कांग्रेस और जद(एस) के विधायकों को किसी न किसी तरह तोड़कर ही हासिल किया जाना था। इसी व्यवहारिक सच को जानते हुए भी राज्यपाल ने भाजपा को यह सबकुछ करने का मौका दिया इससे राजभवन की मर्यादा को ही नुकसान पहुंचा है जो कि लोकतन्त्र के भविष्य के लिये एक बड़ा खतरा बन गया है। इस सबसे हटकर भी यदि मोदी सरकार का आकलन किया जाये तो भी यह सरकार अपने ही वायदों पर खरी नही उतरती है। 2014 में सत्ता में आने के लिये यह वायदा किया था कि कांग्रेस जो 60 वर्षों में नही कर पायी है वह हम 60 महीनों में कर देंगे। अच्छे दिनों का दावा किया गया था। लेकिन बेरोज़गारी और मंहगाई का जो स्तर 2014 के चुनावों से पहले था आज उससे भी बदत्तर हो चुका है। भ्रष्टाचार के खात्मे के जो दावे किये गये उनमें भी आज तक एक भी मामला अन्तिम परिणाम तक नही पहुंचा है बल्कि इस सरकार में मुख्य अभियुक्त तो खुले घूमते और सत्ता भोगते रहे और उनके सहअभियुक्त बिना फैसले के सलाखों के पीछे रहे। नोटबन्टी के फैसले ने देश की अर्थव्यवस्था को जो व्यवहारिक नुकसान पहुंचाया उससे उबरने के लिये दशकों लग जायेंगे। इसी नोटबन्दी का परिणाम आज सामने आ रही कंरसी की कमी है। सत्ता के लिये सारे स्थापित संस्थानों को विश्वसनीयता के संकट के कगार पर पहुंचा दिया है। इन्ही के साथ यह सवाल भी अभी तक कायम है कि यह सरकार इतने प्रचण्ड बहुमत के बाद भी धारा 370 को हटा नही पायी है बल्कि 35(A) को लेकर जो याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में आयी हैं उन पर अभी तक बन पाया सरकार अपना जबाव दायर नही कर पायी है। राम मन्दिर अभी तक नही बन पाया है और विश्वहिन्दु परिषद् के नेता डा. प्रवीण तोगड़िया ने जो आरोप लगाये हैं उनका भी कोई खण्डन आज तक नही आ पाया है। इस तरह कर्नाटक के घटनाक्रम ने भाजपा की नीयत और नीति पर देश के सामने एक नयी बहस का जो मुद्दा परोस दिया है उसने विपक्ष को नये सिरे से एकजुट होने का मौका दे दिया है।