शिमला/शैल। केन्द्रशासित राज्य दिल्ली की चुनी हुई सरकार और एलजी के बीच अधिकारों के वर्चस्व को लेकर चल रही लड़ाई में अब सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद कानूनी रूप से स्पष्ट हो गया है कि उपराज्यपाल मन्त्रीमण्डल के सर्वसम्मत फैसलो को मानने के लिये बाध्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि दिल्ली सरकार मन्त्रीमण्डल के फैसलों की जानकारी तो एलजी को देगी लेकिन जानकारी देने का अर्थ यह नही होगा कि इन फैसलों पर एलजी की सहमति और स्वीकृति भी आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायाधीश पर आधारित पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने अपने 535 पन्नो के फैसले मे पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि जनता द्वारा चुनी गयी सरकार के अधिकार सर्वोपरि है। पिछले दिनों जिस तरह से कई बार केजरीवाल केन्द्र सरकार के खिलाफ धरने पर बैठने और एलजी हाऊस में ही धरने पर बैठ गये थे इस तरह के सारे कृत्यों को भी सर्वोच्च न्यायालय ने अराजकता करार देते हुए इस सबकी भी निन्दा की है। कुल मिलाकर इस ऐतिहासिक फैंसले से यह स्पष्ट हो गया है कि केन्द्र सरकार उप राज्यपालों के माध्यम से केन्द्रशासित राज्यों की सरकारों को परेशान करने /अस्थिर करने का प्रयास नही कर सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की सर्वत्र सराहना की गयी है और इस फैलसे से एक बार फिर न्यायपालिका पर आम आदमी का भरोसा बढ़ा है जो कि अब अन्यथा टूटने लग पड़ा था। लेकिन इस फैसले पर जिस तरह की प्रतिक्रिया भाजपा की उसके प्रवक्ता डा. पात्रा के माध्यम से आयी है और इसी तरह की प्र्रतिक्रिया एलजी और दिल्ली सरकार की वरिष्ठ अफसरशाही की आयी है उससे लग रहा है कि यह टकराव इस फैसले से ही खत्म होने वाला नही है। क्योंकि पिछले दिनों दिल्ली सरकार के आईएएस अधिकारियों का काम पर न आने का मामला अदालत तक पहुंच गया था तथा मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री के बीच अभद्र व्यवहार का प्रकरण पुलिस और अदालत तक जा पहुंचा है उससे जो तनाव और अविश्वास पनपा है वह अपरोक्ष में इन प्रतिक्रियाओं के रूप में सामने आया है। इसी के साथ यह भी खुलकर स्पष्ट हो गया है कि दिल्ली में जो कुछ वरिष्ठ अफसरशाही और एलजी कर रहे थे वह सब केन्द्र द्वारा ही प्रायोजित था। तीन मसलों भूमि, पुलिस और व्यवस्था पर ही केन्द्र फैसले ले सकता है। शेष सारे विभागों पर दिल्ली सरकार का फैसला ही सर्वोपरि होगा। विजिलैन्स भी राज्य सरकार का ही एक विभाग होता है और इस नाते सरकार कोई भी मामला जांच के लिये विजिलैन्स को भेज सकती है। अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट भी मुख्यमन्त्री से ही फाईनल होगी। अधिकारियां की पोस्टिंग, ट्रांसफर पर सरकार का अधिकार होगा एलजी का नही। संभवतः इसी सबको देखते हुए अधिकारी दुविधा में आ गये हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से दिल्ली सरकार का एलजी पर वर्चस्व प्रमाणित हो गया है। अब इस वर्चस्व को स्वीकार करना और उसे अधिमान देने के अतिरिक्त नौकरशाही के पास और कोई विकल्प नही रह गया है। इस फैसले से दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी तथा केजरीवाल का व्यक्तिगत स्तर पर भी मान सम्मान बढ़ा है। आम आदमी पार्टी इस फैसले से मजबूत होगी इसमें किसी को भी शक नही होगा चाहिये। अगर इस फैसले के बाद भी केन्द्र सरकार एलजी और अफरशाही के माध्यम से फिर टकराव जारी रखते हैं तो इससे अब मोदी सरकार की साख ही राष्ट्रीय स्तर तक प्रभावित होगी। यह सही है कि यह केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ही थी जिसने भाजपा को लोकसभा में इतना प्रचण्ड बहुमत मिलने के बाद ही दिल्ली प्रदेश के चुनावों में ‘‘स्कूटर पार्टी ’’ तक सीमित कर दिया था। क्योंकि लोकसभा की जीत के बाद ही जिस तरह से कुछ भाजपा संघ नेताओं के मुस्लिमों को लेकर ब्यान आने शुरू हो गये थे उसी का नज़ला भाजपा पर गिरा था। आज तो चार वर्षों में और भी बहुत कुछ भाजपा और मोदी सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया है। लोकसभा चुनाव सिर पर खड़े हैं इन चुनावों के लिये फिर से एक लोक लुभावन भावनात्मक मुद्दें की तलाश जारी है। इसके लिये जम्मू- कश्मीर में धारा 370 को समाप्त करने और एक देश एक-चुनाव की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है। लेकिन यह सारी संभावनाएं अर्थहीन हो जायेंगी यदि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को अक्षरशः अधिमान न दिया गया। यह फैसला भाजपा के भविष्य को प्रभावित करेगा क्योंकि इससे यह सामने आयेगा कि पार्टी न्यायालय का कितना मान सम्मान करती है।