वाजपेयी की विरासत पर भाजपा

Created on Monday, 20 August 2018 12:27
Written by Shail Samachar

भारत रत्न पूर्व प्रधान मन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर पूरा देश शोकाकुल रहा है। हर आंख उनके निधन पर नम हुई है और हर शीष ने उन्हे अपने-अपने अंदाज में नमन किया है। वाजपेयी बहुअयामी व्यक्तित्व के मालिक थे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों में समेट पाना संभव नही है। लेकिन वह वक्त के ऐसे मोड़ पर स्वर्ग सिधारे हैं जहां से आने वाले समय में वह राजनीति से जुड़े हर सवाल में सद्धर्भित रहेंगे। वह तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन हर बार सत्ता छोड़ते समय वह कुछ ऐसे नैतिक मानदण्ड छोड़ गये जिन पर उनके हर वारिस का आकलन किया ही जायेगा। खासतौर पर भाजपा नेतृत्व के लिये तो वह एक कड़ी रहेंगे ही। वाजपेयी का स्वास्थ्य लगभग एक दशक से अस्वस्थ्य चल रहा था। पिछले दो माह से तो वह एम्ज़ में भर्ती ही थे। इस दौरान किन लोगां ने उनके स्वास्थ्य की कितनी चिन्ता की कितने और कौन नेता उनका कुशलक्षेम जानने उनसे मिलने गये हैं यह सब आने वाले दिनों में चर्चा का विषय बनेगा यह तय है। उनके परिजनों में से कितने लोग आज भी भाजपा में सम्मानित रूप से सक्रिय हैं यह सब मरणोपरान्त चर्चा में आता ही है क्योंकि ऐसे महान लोगों का मरणोपरान्त भी लाभ लिया जाता है और इस लाभ की शुरूआत इसी से हो जाती है जब केन्द्र से लेकर राज्यां तक हर सरकार अपनी-अपनी सुविधानुसार निधन पर छुट्टी की घोषणा करती है। क्योंकि सभी भाजपा शासित राज्यों भी यह छुट्टी अगल-अलग रही है।
वाजपेयी भाजपा के वरिष्ठतम नेता थे। आडवानी और वाजपेयी ने भाजपा को कैसे सत्ता तक पंहुचाया है यह भाजपा ही नही सारा देश जानता है। यह वाजपेयी-आडवानी ही थे जिन्होने दो दर्जन राजनीति दलों को साथ लेकर सरकार बनायी और चलाई। संघ की विचारधारा के प़क्षधर होते हुए भी गुजरात दगों पर मोदी सरकार की भूमिका को लेकर यह कहने से नही हिचकिचाए की मोदी ने राजधर्म नही निभाया है। भले ही इस वक्तव्य के बाद वाजपेयी हाशिये पर चले गये थे। लेकिन उन्होने यह धर्म निभाया। संघ के मानस पुत्र होते हुए भी वाजपेयी शासन में मुस्लिमों की देश के प्रति निष्ठा पर कोई सवाल नही उठा था। वह वास्तव में ही सर्वधर्म समभाव की अवधारणा पर व्यवहारिकता में ही अमल करते थे। यही कारण है कि आज वाजपेयी के जाने के बाद भाजपा के लिये यह मुस्लिम सवाल एक नये रूप में खड़ा है। क्यांकि वाजपेयी के वक्त में भाजपा ने मुस्लिमों को चुनाव में टिकट देने के लिये अछूत नही समझा था। जबकि आज की भाजपा में मुस्लिम चुनावी टिकट के लिये अछूत होने के बाद भीड़ हिंसा का शिकार होने के कगार पर पंहुच गये हैं। वाजपेयी ने सत्ता के लिये अनैतिक जोड़ तोड़ से कैसे कोरे शब्दों में इन्कार कर दिया था इसके लिये उनके निधन पर उनके इस भाषण को सभी चैनलों ने अपनी चर्चा में विशेष रूप से उठाया है।
वाजपेयी के शासन में पहली बार विनिवेश मंत्रालय का गठन हुआ था और कुछ सार्वजनिक उपक्रमों को प्राईवेट सैक्टर को सौंपा गया था। लेकिन इसके बावजूद भी उन पर यह आरोप नही लगा था कि वह कुछेक औद्यौगिक घरानों की ही कठपुतली बनकर रह गये हैं। जबकि आज मोदी सरकार को अंबानी-अदानी की सरकार करार दिया जा रहा है। रफाल सौदा मोदी और अबानी के रिश्तों की ही तस्वीर माना जा रहा है। वाजपेयी सरकार में करंसी का मुद्रण कभी भी प्राईवेट सैक्टर को नही दिया गया था। जबकि आज नोटबंदी के बाद मोदी सरकार ने करंसी का मुद्रण अबानी की प्रैस से करवाया। आज सरकारी क्षेत्रा के बैंकों का 31000 करोड़ का डुबा हुआ ट्टण जिस ढंग से एआरसी लाकर माफ किया गया है ऐसा देश की आर्थिकी के साथ उस समय नही हुआ था। आज सरकारी क्षेत्र की कीमत पर प्रोईवेट सैक्टर को खड़ा किया जा रहा है। ऐसे बहुत सारे मुद्दे आने वाले समय में देश के सामने आयेंगे जहां मोदी के हर काम को वाजपेयी के आईने से परखा जायेगा।
अभी पन्द्रह अगस्त को मोदी का जो भाषण लाल किले से आया है और उसमें उपलब्धियों के जो आंकड़े देश के सामने परोसे गये हैं अब उन आंकड़ो को हर गांव और हर घर में खोजा जायेगा। जब वह आंकड़े व्यवहारिकता के धरातल पर नही मिलेंगे तब मोदी का एकदम तुलनात्मक आकलन वाजपेयी के साथ किया जाने लगेगा। क्योंकि वाजपेयी जनता को लुभाने के लिये तथ्यों को बढ़ा चढ़ाकर पेश नही करते थे। जो दावा किया जाता था वह ज़मीन पर मिल जाता था। जबकि आज मोदी को लेकर यह धारणा बनती जा रही है कि वह कहीं भी कुछ भी बोल सकते हैं। अभी जो रूपया डालर के मुकाबले गिरावट की सारी हदें पार करता जा रहा है उसको लेकर जब मोदी के 2013 में दिये गये ब्यानों के आईने में भाजपा से सवाल पूछे जायेंगे तो उसकी स्थिति निश्चित रूप से खिसयानी बिल्ली खम्भा नोचे वाली होना तय है। ऐसे में देश की जनता वर्तमान भाजपा का आकलन वाजपेयी के कार्यकाल से करने पर विवश हो जायेगी और तब यह एक और सवाल पूछा जायेगा कि जिस मोदी शासन में वाजपेयी के सहयोगी रहे सभी बड़े नेताओं को आज हाशिये पर धकेल रखा गया है उसके हाथों में भविष्य कितना सुरक्षित रह सकता है। आज वाजपेयी की सियासी विरासत को भाजपा कितना सहेजती है और कितना हाशिये पर धकेलती है। आज वाजपेयी के निधन के बाद भाजपा के लिये यह सबसे ज्वलंत प्रश्न होंगे। आने वाले दिनों में वाजपेयी की विरासत भाजपा के लिये हर समय एक कड़ी कसौटी बन कर खड़ी रहेगी। भाजपा-मोदी के हर कार्य को वाजपेयी के तराजू में तोलकर देखा जायेगा। वाजपेयी को अब कौन और कितना याद करेगा उसके लिये तो यही कहना सही होगा-

अब कोई याद करे या न करे
हम तो पैमाने पे भी निशां छोड़ चलें