अभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने ‘‘भविष्य का भारत और संघ का दृष्टिकोण’’ नाम से एक आयोजन किया है। इस आयोजन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने यह कहा है कि संघ में निरंकुशता और अंहकार नही है। इसी कड़ी में उन्होने यह भी स्पष्ट किया कि संघ की स्थापना हिन्दुओं को संगठित करने के लिये हुई है और भारत हिन्दु राष्ट्र है और रहेगा भी। फिर यह भी स्पष्ट किया कि मूल्यों पर आधारित जीवन जीने वाला और पाप न करने वाला हिन्दु है। भागवत ने यह भी माना कि भारत विविधताओं का देश है तथा विविधताओं का सम्मान होना चाहिये। देश की आजादी में कांग्रेस के योगदान को स्वीकारते हुए यह भी माना कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व का कोई अर्थ नही है। संघ प्रमुख ने जो कुछ कहा है क्या वह एक ईमानदारी पूर्ण सीधा ओर सरल स्पष्टीकरण है या यह एक राजनीतिक कुटलता है यह सवाल इस आयोजन के बाद हर विश्लेष्क के सामने खड़ा हो गया है। क्योंकि संघ का इस तरह का आयोजन पहली बार हुआ है और उसमें इस तरह का वक्तव्य आया है।
संघ अपने को एक गैर राजनीतिक संगठन मानता है लेकिन व्यवहार में संघ एक परिवार है जिसकी भाजपा एक राजनीतिक इकाई है और यह सभी जानते है कि इकाई कभी अपने मूल से अलग और बड़ी नही होती है। संघ के स्वयं सेवक भाजपा के सदस्य नहीं हो सकते ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी तरह भाजपा के सदस्य एक साथ संघ भाजपा के सदस्य हो सकते हैं। बल्कि इसी दोहरी सदस्यता के कारण 1980 में जनता पार्टी की सरकारी टूटी थी यह सभी जानते हैं आज भी भाजपा का हर स्तर का संगठन मन्त्रा संघ का मनोनीत सदस्य होता है जो कि भाजपा और संघ के बीच संपर्क सूत्रा का काम करता है। इसलिये इस सबको सामने रखते हुए यह नही स्वीकारा जा सकता कि संघ का कोई राजनीतिक मंतव्य नही हैं बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि भाजपा संघ की राजनीति का एक माध्यम है। यदि ऐसा निहित नही है तो फिर संघ को भाजपा के नाम से राजनीतिक इकाई स्थापित करने की आवश्यकता ही क्यों है। संघ का जो भी सांस्कृतिक मन्तव्य है क्या उसे राजनीतिक समर्थन के बिना प्राप्त किया जा सकता है। बल्कि क्या कोई भी संगठन राजनीतिक समर्थन के बिना काम कर सकता है और आगे बढ़ सकता है? शायद नही। इसलिये आज की परिस्थितियों की यह मांग है कि संघ परिवार अपने में जितना बड़ा संगठन है उसे सीधे स्पष्ट रूप से राजनीतिक भूमिका में आना चाहिये। हर व्यक्ति जानता है कि भाजपा सरकारो ंमेंं संघ की स्वीकृति के बिना कोई बड़ा काम नही होता है इसलिये संघ को अपरोक्षता का लवादा उतार कर सीधे जिम्मेदारी स्वीकारनी चाहिये। यदि संघ ऐसा नही करता है तो इसका अर्थ यही होगा संघ भाजपा सरकार की असफलताओं को स्वीकारने का साहस नही जुटा पा रहा है। क्या संघ भी रामदेव की मानसिकता का अनुसरण करने जा रहा है।क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों रामदेव की जो सक्रिय भूमिका रही है उसे सभी जानते है लेकिन आज वही राम देव अपने को जब निर्दलीय और सर्वदलीय कहने पर आ गये हैं तो यह सीधा संदेश जाता है कि स्वामी रामदेव भी अब मोदी सरकार की असफलताओं को स्वीकारने से भागने का प्रयास कर रहे हैं।
आज संघ प्रमुख भागवत यह मान रहे हैं कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व संभव नही है क्योंकि हिन्दु तो वह है जो मूल्यों पर आधारित और पाप रहित जीवन जीता है। इस परिप्रेक्ष में पूरे विश्व में कौन व्यक्ति होगा जो पाप पूर्ण जीवन जीना चाहते हो। जीवन मूल्य तो देश-काल और उसकी परिस्थितियां बनाती हैं क्योंकि संसार में हर प्राणी के जन्म लेने और उसकी मृत्यु की प्रक्रिया तो एक जैसी ही है । संस्कारिक विविधता तो उसके बाद होती है जब यह सवाल आता है कि जन्म लेने के बाद उसका पालन पोषण कैसे करना है और मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर का क्या करना है। फिर पाप और अपराध में केवल इतना ही अन्तर है कि अपराध की सजा़ देने के लिये स्थापित कानून है और पाप आपके अपने मन बुद्धि का विवके है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब संघ यह मान रहा है कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व संभव नही है तो क्या इस बार चुनावों में संघ की राजनीतिक ईकाई भाजपा मुस्लमानों को टिकट देगी या फिर इस प्रवचन के बावजूद 2014 और उत्तर प्रदेश ही दोहराया जायेगा। क्या इस प्रवचन के बाद लव जिहाद और भीड़ हिंसा पर प्रतिबन्द लग पायेगा।
आज जो प्रवचन रूपी अपरोक्ष स्पष्टीकरण संघ का आया है उसमें संघ प्रमुख ने मंहगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार पर कुछ भी क्यों नही बोला? इस समय तेल की बढ़ती कीमतों तथा रूपये के अवमूल्यन से सारी अर्थव्यवस्था संकट में आ खड़ी हुई है। नोटबंदी सबसे घातक फैसला सिद्ध हुआ है। यह सब आज के ज्लवन्त मुद्दे बने हुए हैं। लेकिन संघ प्रमुख का इन मुद्दों पर मौन रहना क्या अपने में सवाल नही खड़े करता। क्योंकि अभी से चुनावी महौल बनता जा रहा हैं ऐसे में इस संघ का यह प्रवचन रूपी स्पष्टीकरण कूटनीति नही माना जायेगा? आज जिस ढंग से राहूल के मन्दिर जाने और मानसरोवर यात्रा पर भाजपा/संघ के लोगों की प्रतिक्रियाएं रही हैं क्या उनके परिप्रेक्ष में संघ प्रमुख को इस पर कुछ कहना नही चाहिये था। क्या राहूल गांधी को लेकर आयी प्रतिक्रियाएं किसी भी अर्थ में विविधता का सम्मान कही जा सकती हैं।