घातक होगी यह यौन स्वच्छन्दता

Created on Monday, 01 October 2018 08:28
Written by Shail Samachar

मैं हूं । मैं स्वतन्त्र हूं। मेरी अपनी निज की सत्ता है। मैं अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर सकता हूं। मैं कोई वस्तु नही हूं जिस पर किसके स्वामीत्व का हक हो। क्या इस बोध का मानक केवल यौन स्वच्छन्दता ही है। यह सवाल सर्वोच्च न्यायालय के आईपीसी की धारा 377 और 497 को लेकर आये फैसलों से उभरा है। इन फैसलों से समलैंगिकता और व्यभिचार अब अपराध नही माने जायेंगे। व्यभिचार तलाक का आधार तो हो सकता है लेकिन अपराध नही। सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है। क्या इन फैसलों को समाज सहजता से स्वीकार कर लेता है या नही यह सब आने वाले समय में ही स्पष्ट होगा। इस तरह के आचरण का प्रभाव उस परिवार पर क्या पड़ेगा जिसमें संयोगवश यह सब घट जाता है। क्या आचरण को सांस्कृतिक मान्यता मिल पायेगी? क्या इसे मूल्य आधारित जीवन करार दिया जा सकेगा? यह सारे सवाल सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों के बाद एक सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनेंगे यह तय है। क्योंकि अभी तक भारतीय समाज ऐसे आचरण को स्वीकार नही कर पाया है। जहां पर लव-जिहाद, खाप पंचायतें और वैल्नटाईन डे तथा पहरावे तक को लेकर विवाद खड़े हों वहां पर इस तरह की व्यवस्था को सामान्यता तक पहुंचने में समय लगेगा यह भी तय है।

सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से परिवार की संरचना कितनी प्रभावित होगी यह सबसे बड़ा सवाल रहेगा। क्योंकि जब विवाह के बाद इस तरह के संबधों की स्थिति उभर आती है तब स्वभाविक है कि बात तलाक तक पंहुच जायेगी और इसी आधार पर तलाक हो भी जायेगा। ऐसे में उस सन्तान की जिम्मेदारी किसकी रहेगी जो इस तलाक से पहले जन्म ले लेती है। उसकी देखभाल कौन करेगा। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण होगा कि ऐसे तलाक से पहले यह पति-पत्नी जो भी संपति बनायेंगे उसका बंटवारा, उसकी मलकियत किसकी कितनी रहेगी। जिस परिवार में समलैंगिकता पसर जायेगी वहां पर परिवार की वंश वृद्धि की धारणा क्या होगी। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इन फैसलों से परोक्ष/अपरोक्ष में जुड़े हैं और देर-सवेर समाज के व्यवस्थापकों से जवाब मांगेंगे। यौन संबधों की स्वतन्त्रता तलाक को बढ़ावा देगी और उसी अनुपात में बहु विवाह को यह स्वाभाविक है। क्योंकि यौन संबंध शरीर का स्वभाविक धर्म और गुण है जो अपने समय पर स्वतः ही प्रस्फुटित होता है । आज जो हमारा खान-पान और अन्य व्यवहार हो गये हैं उसके परिणामस्वरूप शरीर की यह आवश्यकता कुछ एडवांस हो गयी है। बल्कि इससे तो विष्णु पुराण में कलियुग को लेकर दिया गया विवरण व्यवहार में शतप्रतिशत घटता नज़र आ रहा है। वहां कहा गया है कि कलियुग में कुल आयु बीस वर्ष की होगी और आठ नौ वर्ष की आयु में ही सन्तान पैदा हो जायेगी। आज ही यह सब घटना शुरू हो गया है। स्कूल जाने वाली बच्ची कि मां बनने की घटना चण्डीगढ़ में पिछले दिनों सामने आ चुकी है।
ऐसे में जब समाज में यौन संबंधो की स्वतन्त्रता एक प्रभावी शक्ल ले लेगी तब समाज में व्यवस्था की स्थिति क्या हो जायेगी? क्या इस पर विचार नही किया जाना चाहिये। जिस समाज में यौन संबंध एक वैचारिक और शारीरिक स्वछन्दता की संज्ञा ले लेंगे उसमें व्यवस्था की स्थापना क्या एक गंभीर चुनौती नही बन जायेगी। सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान जजों ने भविष्य में सामने आने वाले इन प्रश्नों पर विचार नही किया है। मानवीय व्यवहार में तो यह बहुत पहले कह दिया गया था कि ‘‘ योनी नही है रे नारी वह भी मानवी स्वतन्त्रत, रहे न नर पर आश्रित ’’ महिला सशक्तिकरण आन्दोलन में उसे पुरूष के बराबर अधिकारों की वकालत का परिणाम है कि वह आज हर क्षेत्र में पुरूष के बराबर खड़ी है। लेकिन इस आन्दोलन में यौन संबधों की स्वच्छन्दता तो कभी कोई मांग नही रही है। आज जहां विश्व के कई देशों में व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है लेकिन कई जगह यह अपराध है और इस पर कड़ाई से अमल हो रहा है। अभी इस मुद्दे पर आरएसएस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। संघ अपने को हिन्दु संस्कृति का एकमात्र पक्षधर और संरक्षक मानता है। ऐसे में यह दखना दिलचस्प होगा कि संघ इस नयी संस्कृति को कैसे लेता है? क्या वह सरकार को इस संद्धर्भ में एससीएसटी एक्ट की तर्ज पर नये सिरे से विचार करने का आग्रह करता है या नही