जयराम सरकार को सत्ता में आये नौ माह का समय हो गया है। इस दौरान दर्जनों मन्त्रीपरिषद की बैठकें हो चुकी है और हर बैठक में दर्जनों फैसले लिये गये है। लेकिन क्या इन सभी फैसलों की समीक्षा गुण दोष के आधार पर किये जाने की कोई आवश्यकता कभी उभरी है शायद नही क्योंकि अधिकांश फैसले तो ऐसे रहे है जो हर सरकार की सामान्य प्रक्रिया की एक अभिन्न अंग होते है। सरकार की सामान्य प्रक्रिया में हर कार्य के निष्पादन के लिये रूल्ज़ ऑफ विजनैस बने हुए है। इन रूल्ज़ के साथ ही हर विभाग में अपना-अपना स्टैण्डिंग आर्डर भी रहता है। ऐसे में सामान्यत जब प्रशासन स्वभाविक रूप से इन नियमों का पालन करते हुए अपना काम निपटाता रहता है तब उस पर कहीं से कोई सवाल उठता ही नही है। सवाल तब उठने शुरू होते है जब इस तय प्रक्रिया को नजर अन्दाज किया लाना शुरू होता है। वैसे तो प्रशासन के मनोविज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि प्रशासन अपनी पकड को बनाये रखने के लिये हर सत्ता परिवर्तन के बाद राजनीतिक नेतृत्व के सामने कई ऐसे मसलों को लेकर चला जाता है जिसकी कायदे से आवश्यकता ही नही होती है। प्रशासन ऐसा करके राजनीतिक नेतृत्व की प्रशासनिक समझ और महत्वकांक्षाओं का आसानी से आंकलन कर लेता है और जब इस आकलन में राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता सामने आ जाती है। तब यह प्रशासन राजनीतिक नेतृत्व पर हावि हो जाता है शायद जयराम प्रशासन के साथ भी ऐसा ही हुआ है।
अभी जयराम ने नये मुख्य सचिव की नियुक्ति की है। इस नियुक्ति पर हमने इसे सरकार का पहला सही फैसला कहा था। हमारे ऐसा लिखने पर सभी संवद्ध क्षेत्रों में अपनी-अपनी तरह की प्रतिक्रियाएं हुई है। ऐसी प्रतिक्रियाएं होगी ऐसा हमारा विश्वास भी था। इसलिये अब सरकार के कुछ फैसलों पर आकलन की दृष्टि से लिखना आवश्यक हो जाता है। इस आकलन का आधार हमे उस सबसे मिल जाता है जो विधानसभा चुनावों से पूर्व घटा था। पाठकों को याद होगा कि विधानसभा चुनावों के दौरान ही भाजपा ने एक प्रपत्र जारी किया था ‘‘हिमाचल मांगे हिसाब’’ इस प्रपत्र में कुछ मुद्दों को उछालते हुए वीरभद्र सरकार से उन पर जब जवाब मांगा गया था। इसमें बहुत सारे तात्कालिक मुद्दे थे और इनसे यह विश्वास बना था कि यह पार्टी सत्ता में आकर कम सके कम इस सबको दोहराने का प्रयास नही करेगी। लेकिन जब सत्ता में आकर अपने ही स्वतः प्रचारित-प्रसारित मुद्दों पर अपना ही आचरण एकदम यूटर्न ले गया तो आम आदमी के विश्वास को इससे आघात पहुंचना स्वभाविक था और ऐसा हुआ भी। वीरभद्र सरकार पर बड़ा आरोप था कि उसने प्रदेश को कर्ज के गर्त में डाल दिया है। यह आरोप था और है भी सही। इसमें जयराम से यह उम्मीद थी और प्रशासनिक सूझ-बूझ का तकाजा भी था कि प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर एक ‘‘सफेद पत्र’’ लाया जाता और जनता को असलीयत की जानकरी दी जाती । यदि जनता के सामने यह स्थिति रख दी जाती तो शायद इस पर कांग्रेस के पास कोई जवाब न होता। क्योंकि 27 मार्चे 2016 को भारत सरकार के वित्त विभाग से प्रदेश सरकार को एक पत्र आया था और कर्जों की सीमा तय करते हुए सरकार को गंभीर चेतावनी दी गयी थी। परन्तु 2017 के चुनावी वर्ष में केन्द्र के इस चेतावनी पत्र को नज़रअन्दाज करके कर्ज की सीमाओं का खुलकर दुरूपयोग किया गया। सफेद पत्रा आने से उस वक्त के संवद्ध प्रशासनिक और राजनीति नेतृत्व का असली चेहरा जनता के सामने आ जाता। लेकिन जयराम के सलाहकारों ने ऐसे नही होने दिया और यह इस सरकार की पहली सबसे बड़ी भूल रही।
इसके अतिरिक्त चुनावों के दौरान लगाये गये आरोप में कुछ नियुक्तियों पर गंभीर एतराज उठाया गया था। लेकिन सत्ता में आने उपर इन नियुक्तियों को रद्द करने की बजाये उन्ही संस्थानों में पदों का सृजन करे और नियुक्तियां कर दी गयी। भाजपा वीरभद्र सरकार पर यह आरोप लगाती थी कि इसे ‘‘रिटायड-टायरड’’ लोग चला रहे है। परन्तु सता में आने पर स्वंय भी वैसा ही जब किया जाने लगा तो निश्चित रूप से इससे सरकार और इसके मुखिया की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगे हैं। मुख्यमुन्त्री के अपने ही गृहक्षेत्र में एसडीएम कार्यालय को लेकर जो कुछ घटा है उसे मुख्यमन्त्री के गिर्द बैठे शीर्ष प्रशासन की धूर्तता करार देने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नही है। प्रशासनिक स्तर पर जो तबादले किये उसमें भी रोज बदलाव होते रहे। इसके लिये भी शीर्ष प्रशासन को ही ज्यादा जिम्मेदार माना जायेगा और शायद यह इसलिये हुआ है क्योंकि संभवतः इनकी निष्ठाएं बंटी हुई थी। क्योंकि पिछले मुख्य सचिव के अपने ही गिर्द ऐसे आरोप चल रहे थे जिनके लिये मुख्यमन्त्री को स्वयं उनकी रक्षा के लिये आना पड़ा। इस परिदृश्य में अब जो नियुक्ति की गयी है शायद उसके साथ ऐसी कोई स्थिति नही है और इसी संद्धर्भ में हमने इसे सही फैसला कहा है।
अब तक के नौ माह में कई ऐसे फैसले भी हुए है जिनसे सरकार पर आने वाले समय में कई गंभीर आरोप लगेंगे। उनपर अगले अंको में चर्चा करेंगे।