भ्रष्टाचार के प्रति गंभीरता पर उठे सवाल

Created on Monday, 03 December 2018 05:39
Written by Shail Samachar

 देश की शीर्ष जांच ऐजैन्सी सीबीआई के शीर्ष अधिकारियों के बीच उभरे विवाद और इस विवाद के कारण जो कुछ घटा वह सब सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुका है और इस पर सुनवाई चल रही है। इस सुनवाई और उसके अन्तिम परिणाम पर पूरे देश की नज़रें लगी हुई हैं। कानून की बारीकियों पर परत दर परत सवाल और बहस हो रही है और इसका जो भी परिणाम परिणाम रहेगा उसका देश पर दूरगामी असर पड़ेगा इसमें कोई दो राय नही है। अस्थाना के खिलाफ दर्ज हुई एफआईआर कानून की नजर में कैसे आंकलित होती है और आलोक वर्मा तथा अस्थाना को सीबीआई द्वारा छुट्टी पर भेजना जायज़ था या नही? इन सब सवालों के जवाब इस विवाद के फैसले में आ जायेंगें लेकिने क्या इस फैसले का असर भ्रष्टाचार के मामलों की जांच पर पड़ेगा? यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समय देश की संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक सैंकड़ो में ऐसे लोग जब प्रतिनिधि होकर बैठे हैं जिनके खिलाफ वर्षों से आपराधिक मामले लंबित चल रहे हैं इन मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय चिन्ता व्यक्त करते हुए अधिनस्थ न्यायपालिका को ऐसे लोगों के मामले दैनिक आधार पर सुनवाई करते हुए एक वर्ष के भीतर निपटाने के निर्देश दे चुका है। इसके लिये विशेष अदालतें तक गठित करने के निर्देश हैं? लेकिन क्या इन निर्देशों की अनुपालना हो पायी है? क्या माननीयों के खिलाफ मामलों की सुनवाई एक वर्ष के भीतर हो पायी है? क्या सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्देशों की अनुपालना पर रिपोर्ट तलब की है?
इन सवालों का यदि निष्पक्षता और निर्भिकता से आंकलन किया जाये तो शायद जवाब नही मे ही होगा क्योंकि हिमाचल जैसे छोटे राज्य में ही जहां पर माननीयों के खिलाफ केवल सात दर्जन के करीब मामले दर्ज हैं वहां पर ही सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार न कोई सुनवाई हो पायी है और न ही कोई फैसला आ पाया है। यहां पर सरकार और उच्च न्यायालय ने विशेष अदालत के गठन कीे आवश्यकता इसलिये नही समझी थी क्योंकि मामलों की संख्या कम थी। लेकिन क्या जो मामलें हैं उनकी सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार नही हो जानी चाहिये थी परन्तु ऐसा हुआ नही है बल्कि कई माननीयों के मामलों को अदालत से वापिस लेने के प्रयास किये जा रहे हैं यदि हिमाचल में यह स्थिति हो सकती है तो देश के अन्य राज्यों में भी ऐसा ही होगा ऐसा माना जा सकता है। कई मामलों में अदालत से कई अधिकारियों/कर्मचारियों के खिलाफ कारवाई करने के निर्देश सरकार को मिले हैं। लेकिन सरकार की ओर से कोई कारवाई नही की गयी है। इसमें सबसे ताजा उदाहरण कसौली कांड का है। जिसमें एनजीटी ने कुछ लोगों को नामतः चिन्हित करते हुए उनके खिलाफ कारवाई करने के निर्देश प्रदेश के मुख्य सचिव को दिये थे। एनजीटी के इस फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मोहर लगा दी है। लेकिन इन निर्देशों पर आज तक कोई कारवाई नही हुई है। इसी तरह धर्मशाला के मकलोड़गंज बस अड्डा प्रकरण पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदेश के मुख्य सचिव को दोषी कर्मचारियों/अधिकारियों को चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई के निर्देश दिये थे। फिर इस मामले में जब एक अपील सर्वोंच्च न्यायालय में आयी तब शीर्ष अदालत ने अपने निर्देशों को संशोधित करते हुये यह जिम्मेदारी मुख्य सचिव की वजाये सत्रा न्यायधीश कांगड़ा धर्मशाला को दे दी थी। तीन माह में यह रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में जानी थी जो कि आज तक नही जा पायी है और इन निर्देशों को हुए करीब दो वर्ष हो गये हैं। ऐसे ही प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देशों पर एक अभय शुक्ला कमेटी गठित हुई थी इस कमेटी ने अपनी रिर्पोट में खुलासा किया है। चम्बा में 65 किलोमीटर तक रावी हाईडल परियोजनाओं की भेंट चढ़ चुकी है। ऐसी ही एक एसआईटी जेपी उद्योग थर्मल प्लांट को लेकर एडीजीपी के तहत गठित की गयी थी। यह एसआईटी भी अपनी रिर्पोट उच्च न्यायालय को सौंप चुकी है। लेकिन इन रिर्पोटों पर आज तक कोई कारवाई नही हुई है। इससे यह जन धारणा बन जाती है कि कुछ भी करते रहो अन्ततः कोई कारवाई नही होती है क्योंकि इन मामलों में ऐसा ही हुआ है जबकि यह अति संवेदनशील और गंभीर मामले थे।
जब शीर्ष अदालत के निर्देशों को सरकारी तन्त्र ऐसे हल्के से लेगा तब भ्रष्टाचार के खिलाफ कभी कोई ईमानदारी से गंभीरता आ पायेगी यह उम्मीद करना ही बेमानी हो जाता है। जब देश की शीर्ष ऐजैन्सी के शीर्ष लोगों के खिलाफ ही एक दूसरे द्वारा रिश्वतखोरी तक के आरोप जनता के सामने आ जाये तो फिर आम आदमी किस पर और कैसे भरोसा करे। जो स्थिति इस समय सामने है उस पर एक बार फिर आम आदमी की नजरें सर्वोच्च न्यायालय पर लगी हुई हैं। सवाल शीर्ष ऐजैन्सी की विश्वनीयता बहाल करने का ही नही है। बल्कि आम आदमी को आश्वस्त करने का है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीरता है और देाषी को अवश्य सजा मिलेगी। इस संद्धर्भ में यह सुझाव है कि जब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई शिकायत आती है उस पर तुरन्त मामला दर्ज किया जाये जो अबतक नही हो रहा है। मामला दर्ज होने के बाद जांच अधिकारी को छः माह से एक वर्ष के भीतर जांच पूरी करके चालान दायर करने के निर्देश दिये जायें जब तक जांच पूरी न हो जाये और अदालतत से फैसला न आ जाये तब तक जांच अधिकारी को मामले से ना बदला जाये जो अधिकारी मामला दर्ज करे वही अदालत में उसकी पैरवी के समय मामले से संवद्ध रहे। जब तक जांच अधिकारी और उसके कन्ट्रोलिंग अधिकारी को व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार बनाना होगा बल्कि जांच अधिकारी की पदोन्नति इस पर आधारित की जाये कि उसने कितने मामलों मे जांच की और उसमें दोषीयों को सजा मिली। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे निर्देश जारी भी कर रखे हैं कि यह देखा जाये कि कोई आपराधिक मामला अदालत में यदि सिद्ध नही हो पाया तो उसमें देखा जाये कि जांच में कमी रहने के कारण या सरकारी वकील द्वारा ठीक से पैरवी न करने के कारण मामला असफल हुआ है। जिसका भी दोष निकले उसके खिलाफ कारवाई की जाये। लेकिन व्यवहार में ऐसा हो नही रहा है। दशकों तक मामले जांच में लंबित रह रहे हैं। कई कई अधिकारी बदल जाते हैं और इससे किसी की भी जिम्मेदारी नही रह जाती है। ऐसे में यदि हम सही में भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीर और ईमानदार हैं तो इन मामलो की जांच को समयवद्ध करने के साथ ही जांच अधिकारी और सरकारी वकील को इसमें जवाबदेही बनाना होगा। यह जवाबदेह तन्त्र सरकारों से उम्मीद करना संभव नही रह गया है। इसके लिये सर्वोच्च न्यायालय को ही कोई व्यवस्था खड़ी करनी होगी। यदि ऐसा न हो पाया तो देश में शीघ्र ही अराजकता फैल जायेगी क्योंकि सीबीआई विवाद से सरकार और ऐजैन्सी दोनों पर से ही आम आदमी का विश्वास उठ चुका है।