प्रस्तावित अन्ना आन्दोलन-कुछ सवाल

Created on Monday, 10 December 2018 10:04
Written by Shail Samachar

शिमला/शैल। अन्ना हजारे ने पहली दिसम्बर को प्रधानमन्त्री कार्यालय में तैनात राज्य मन्त्री जितेन्द्र सिंह को पत्र लिखकर सूचित किया है कि बार -बार आश्वासन दिये जाने के बाद भी सरकार लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्तियां नही कर रही है। इसलिये वह अपने गांव रालेगन सिद्धि में 30 जनवरी 2019 से आन्दोलन करने जा रहे हैं। अन्ना ने अपने पत्र में यह भी लिखा है कि 2011 में उनके साथ देश के करोड़ों लोगो ने इसके लिये आन्दोलन किया था। इस आन्दोलन पर 27 अगस्त 2011 को तत्कालीन सरकार ने लिखित आश्वासन और 2013 में इसके लिये कानून भी बना दिया। इससे लोगों को उम्मीद बंधी थी कि अब लोकपाल/लोकायुक्त नियुक्त हो जायेंगे और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जायेगा। लेकिन इसके बाद सरकार बदल गयी और अब इस सरकार का कार्यकाल समाप्त होने में पांच माह का समय बचा है लेकिन अभी तक यह नियुक्तियां नही हो पायी है। अन्ना ने यह भी लिखा है कि उन्होंने तीस बार इस विषय पर मोदी सरकार से पत्राचार किया लेकिन एक बार भी जवाब तक नही आया है।
अन्ना ने अपने पत्र में जो कुछ लिखा है वह सही है। इसी से सरकार की नीयत पर सवाल खड़े़ होते हैं और इसी से कुछ सवाल अन्ना की ओर भी उछलते हैं। यह पूरा देश जानता है कि केन्द्र मेें मोदी सरकार और दिल्ली प्रदेश की केजरीवाल सरकार दोनों ही अन्ना आन्दोलन के ही प्रतिफल हैं। केन्द्र की मोदी सरकार का कामकाज कैसा रहा है इसका प्रमाणपत्र अन्ना का यह पत्र ही बन जाता है जिसमें कहा गया है कि तीस बार पत्राचार करने के बावजूद एक बार भी जवाब तक नही आया। यही नही इससे भी बड़ा प्रमाणपत्र है मोदी सरकार द्वारा भ्रष्टाचार निरोधी अधिनियम को ही संशोधित कर देना। नये संशोधित अधिनियम के जुलाई 2018 से लागू हो जाने के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी शिकायत करना आसान नही होगा। बल्कि यदि कहीं किसी शिकायत की जांच के बाद किसी के खिलाफ मामला खड़ा भी हो जाता है तो उसे आगे चलाने के लिये सरकार की पूर्व अनुमति चाहिये। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार व्यवहारिक रूप से भ्रष्टाचार के प्रति कितनी गंभीर है। सरकार के कार्यकाल के अन्तिम दिनों में राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जांच ऐजैन्सीयां कितनी सक्रिय हो उठी हैं उससे यही सामने आता है कि भ्रष्टाचार केवल राजनीतिक विरोधीयों को दबाने का ही एक साधन रह गया है, इससे अधिक कुछ नही। इस सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार हुआ है या नही इसका प्रमाण राफेल सौदा और सीबीआई के शीर्ष अधिकारियोें के झगड़े से बड़ा और क्या हो सकता है।
इस परिदृश्य में सवाल उठता है कि क्या आज लोकपाल/लोकायुक्त नियुक्त होने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा? नहीं इसके लिये तो मौजुदा कानून भी पर्याप्त है लालू यादव और ओम प्रकाश चैटाला को सज़ा के लिये लोकपाल की आवश्यकता नही पड़ी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रतिबद्धता चाहिये। आज की सरकार आम आदमी के प्रति कितनी गंभीर है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरदार पटेल की प्रतिमा स्थापित करने में 3000 करोड़ खर्च किया गया है यह सामने आया है। इस देश की आबादी 125 करोड़ है यदि यह प्रतिमा लगाने की बजाये हर व्यक्ति को एक- एक करोड़ दे दिया जाता तो देश की स्थिति वैसे ही बदल जाती। यह दिया जा सकता था लेकिन ऐसा हुआ नही क्योंकि आम आदमी को संपन्न बनाना उद्देश्य नही है उसको केवल वोट के लिये इस्तेमाल करना ही मकसद है। अभी चुनावों में राजनीतिक दलों ने जिस तरह के वायदे मतदाताओं से किये हैं वह सब प्रलोभन की परिभाषा में आते हैं। लेकिन हमारा चुनाव आयोग इन प्रलोभनों पर पूरी तरह खामोश है। चुनाव प्रचार के लिये एक आचार संहिता जारी कर दी जाती है। लेकिन इसकी उल्लंघना करने पर सजा कोई नही है क्योंकि इसे अभी तक अपराध अधिनियम के दायरे में नही लाया गया है। इस पर केवल चुनाव जीतने वाले के खिलाफ याचिका ही दायर की जा सकती है जिसका फैसला अगले चुनावों से पहले आने की कोई संभावना नही होती है। चुनाव आयोग ने चुनाव का खर्च इतना बढ़ा दिया है कि केवल राजनीतिक दल ही चुनाव लड़ सकते हैं आम आदमी नहीं।
इसलिये आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिये लोकपाल का नियुक्त होना कोई उपाय नही रह गया है। इसके लिये सबसे पहले चुनाव प्रक्रिया में सुधार की आवश्यकता है। आचार संहिता उल्लंघन को दण्डनीय अपराध बनाने की आवश्यकता है और इसमें उम्मीदवार के साथ ही संबंधित राजनीतिक दल के खिलाफ भी दण्ड का प्रावधान किया जाना चाहिये। जिसके भी खिलाफ कहीं कोई आपराधिक मामला दर्ज हो उसे चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिये। आज जिन माननीयों के खिलाफ मामले हैं वह दशकों तक इनकी जांच और फैसला नही होने देते। यदि चुनाव लड़ने पर रोक लग जाये तो यह लोग स्वयं अपने मामलों के शीघ्र निपटारे का प्रचार करेंगे। राजनीतिक दलों के खर्च की सीमा तय होनी चाहिये और किसी भी दल का चुनावी वायदा व्यक्तिगत प्रलोभन के दायरे में नही आना चाहिये इसकी व्यवस्था की जानी चाहिये। इसलिये अन्ना से यह अनुरोध है कि वह लोकपाल को मुद्दा बनाने की बजाये इन चुनाव सुधारों को मुद्दा बनाये। इसके लिये जन आन्दोलन का आह्वान करें। अन्यथा आज जो आन्दोलन का आह्वान किया जा रहा है उससे कोई परिणाम नही निकलेगा। उल्टे इससे सत्तारूढ़ दल को ही लाभ मिलेगा और फिर यह आरोप लगेगा कि यह प्रस्तावित आन्दोलन भी संघ/ भाजपा का प्रायोजित है यही आरोप पहले भी लग चुका है।
ऐसे में आज यदि अन्ना सही में भ्रष्टाचार पर लगाम लगती देखना चाहते हैं तो उनके आन्दोलन का मुद्दा लोकपाल की जगह यह चुनाव सुधार होना चाहिये। जिस सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन करके शिकायत करने का रास्ता कठिन बना दिया और अन्ना जैसे व्यक्ति के पत्रों का जवाब तक नही दिया उस सरकर की नीयत का खुलासा इससे अधिक और क्या हो सकता है। इसलिये आज नैतिकता की मांग यह हो जाती है कि अन्ना इस सरकार को ही सत्ता से बाहर करने का आह्वान करें ताकि आम आदमी को यह विश्वास हो जाये की जो सरकार उनके ही आन्दोलन का प्रतिफल रही है। अन्ना गुण दोष के आधार पर उस सरकार का भी विरोध कर सकते हैं।