शिमला/शैल। किसी व्यक्ति या संगठन के कथ्य मे तथ्य और तर्क का अभाव होता है तब वह अपने को प्रमाणित करने के लिये ऐसी आक्रामकता का सहारा ले लेता है जिसमें भाषाई मर्यादाएं तक लांघ दी जाती है। आज देश का राजनीतिक परिदृश्य इसी दौर से गुजर रहा है। इसमें राजनीतिक दल तथ्य और तर्क के स्थान पर भाषायी अमर्यादा का शिकार होते जा रहे हैं। इस अमर्यादित भाषायी प्रयोग का अन्जाम क्या होगा? कई बार तो इसे सोचकर ही डर लगने लगता है। क्योंकि अभी एक भाजपा सांसद की जनसभा का वो वीडियो सामने आया है इसमें सांसद महोदय ने कांग्रेस अध्यक्ष राहूल गांधी को अपने संबोधन में ‘‘पप्पु’’ कह दिया। इस संबोधन पर वहां बैठे लोगों मे तीव्र प्रतिक्रिया हुई। सभा में से उठकर एक महिला ने सांसद महोदय से यह सवाल कर दिया कि उन्होंने राहुल गांधी को अपने संबोधन में ‘‘पप्पु’’ क्यों कहा? महिला के इस सवाल पर सारी भीड़ उत्तेजित हो गयी और पूरा वातावरण हिंसक हो चला था। इस घटना से यह सामने आता है कि जनता हर छोटी- 2 चीज पर गहरी नजर रख रही है। आज जनता को इस तरह के संबोधनों से गुमराह नही किया जा सकेगा उसे हर कथ्य के साथ तथ्य और तर्क भी देना होगा।
इस परिदृश्य में यदि 2014 से लेकर अब तक मोदी सरकार का मोटा आंकलन भी किया जाये तो सबसे पहले यही भाषायी अमर्यादा सामने आती है जिसकी कीमत भी भाजपा को चुकानी पड़ी है। इसी कारण 2014 में प्रचण्ड बहुमत लेकर सरकार बनाने वाली भाजपा को दिल्ली विधानसभा के चुनावों में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। क्योंकि लोकसभा चुनावों के दिल्ली विधानसभा आने तक मुस्लिम समुदाय के लोगों पर भाजपा के कुछ मन्त्रियों तक ने जिस भाषा में निशाना साधा उससे सीधे यह सन्देश गया कि यह पार्टी और इसका नियन्ता संघ किस हद तक मुस्लिम समाज को दूसरे दर्जे का नागरिक मानता है। दिल्ली की प्रबुद्ध जनता में इसका सकारात्मक सन्देश नही गया और परिणास्वरूप भाजपा हार गयी। प्रधानमन्त्री मोदी ने कई बार इस तरह की ब्यानबाजी करने वाले नेताओं को जुबान पर लगाम लगाने तक की नसीहत दी जिसका किसी पर कोई असर नहीं हुआ और न ही ऐसे लोगों के खिलाफ सरकार और संगठन की ओर से कोई कारवाई हुई। जबकि दर्जनों वैचारिक विरोध रखने वालों के खिलाफ देशद्रोह के मामले बनाए गये। सरकार के इस आचरण से भी यही सन्देश गया कि यह सब एक सुनियोजित रणनीति के तहत हो रहा है। इसी के साथ जब आगे चलकर गो रक्षकों का अति उत्साह और लव जिहाद जैसे मामलों की स्थिति भीड़ हिंसक तक पंहुच गयी तब इससे भी इसी धारणा की पुष्टि हुई। क्योंकि इन मामलों में सबसे ज्यादा पीड़ित और प्रताड़ित दलित और मुस्लिम समाज ही हुआ। यह समाज अपने को एकदम असुरक्षित मानने पर विवश हुआ। इस समाज की परैवी करने के लिये मायावती और अखिलेश जैसे नेता भी सामने नही आ पाये। कांग्रेस के अन्दर राहुल ही नही बल्कि नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ सोशल मीडिया में एक जिहाद ही छेड़ दिया गया। लेकिन इस सबका प्रतिफल लोस के हर उपचुनावों में भाजपा की हार के रूप में सामने आया और जब इस हार का विश्लेषण और आकलन किया गया तो इसकी पृष्ठभूमि में समाज के इस बड़े वर्ग का आक्रोश सामने आया।
संघ -भाजपा की इस वैचारिक सोच का खुलासा स्कूलों और विश्वविद्यालयों के कई पाठयक्रमों में किये गये बदलाव से भी सामने आया। दीनानाथ बत्रा की कई पुस्तकों को इन पाठय्क्रमों में परोक्ष/अपरोक्ष रूप से स्थान दिया जाना इसका उदाहरण है। इस सबसे संघ- भाजपा की सामाजिक सोच और समझ को लेकर बुद्धिजीवी समाज में एक अलग ही धारणा बनती चली गयी। इस सामाजिक सोच- समझ के साथ ही प्रशासनिक और आर्थिक स्तर पर भी मोदी सरकार अपने को प्रमाणित नही कर पायी। भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की नियुक्ति 2014 के अन्ना आन्दोलन का केन्द्रिय मुद्दा था। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप ही मनमोहन सिंह सरकार को लोकपाल विधेयक संसद में लाना और पारित करवाना पड़ा। इसके बाद आयी मोदी सरकार को केवल लोकपाल की नियुक्ति करने का ही काम बचा था जो आज तक नही हो पाया। यही नहीं मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम से आपराधिक सांठ-गांठ का प्रावधान ही हटा दिया। जिसे टूजी स्कैम मनमोहन सिंह सरकार के समय केन्द्र के मन्त्री, सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी और कारपोरेशन जगत के अधिकारी जेल गये थे। उस मामले की पैरवी में मोदी सरकार के वक्त में यह सारे लोग छूट गये और अदालत को यह कहना पड़ा कि यह स्कैम हुआ ही नही था। इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की प्रतिबद्धता का सच सामने आ जाता है। इसी सच का प्रमाण है कि सरकार राफेल मामले में संसदीय जांच का सामना करने से डर रही है। इसी कारण आज चुनावों की पूर्व संध्या पर सीबीआई को अखिलेश और हुड्डा के खिलाफ सक्रिय किया गया है। इस सक्रियता पर स्वभाविक रूप से यह प्रश्न उठ रहा है कि इन मामलों में सरकार और सीबीआई पांच वर्ष क्या करती रही। इससे अनचाहे ही सरकार की नीयत और नीति पर सवाल उठने लगे हैं।
दूसरी ओर आर्थिक मुहाने पर भी सरकार की कोई बड़ी सकारात्मक उपलब्धि नही है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान करते हुए जब आठ लाख की आय तक के व्यक्ति को सरकार गरीब मान रही है तो इस मानक के आधार पर तो शायद देश की 70% से अधिक जन संख्या गरीब निकलेगी। क्योंकि देश के किसान और बागवान तो शायद 1% भी ऐसा नही निकल पायेगा जो साठ हजार रूपये प्रतिमाह कमा पा रहा हो। इस मानक से सरकार की व्यवहारिक सोच पर प्रश्न उठने लगा है। नोटबन्दी में 99% से अधिक पुराने नोट नये नोटों के साथ बदल दिये गये हैं। इकट्ठे कालेधन को लेकर किये गये सारे दावों और प्रचार का सच सामने आ गया है। इसी तरह जीएसटी में किये गये संशोधनों से यह सामने आ गया कि यह फैसला जल्दबाजी में किया गया था। इस फैसले से रोजगार के अवसर पैदा होने की बजाये काफी कम हुए हैं। इस तरह मोदी सरकार का हर बड़ा फैसला देशहित में पूरा खरा नही उतरा है। बल्कि इन फैसलों के बाद यह चुनाव सीधे-सीधे दो विचारधाराओं मे से चयन का चुनाव होने जा रहा है। क्योंकि देश वाम विचारधारा को देश आज तक स्वीकार नही कर सका है और दक्षिण पंथी विचारधारा की परीक्षा मोदी शासन में हो चुकी है।